हर कोई यह जानने का प्रयास करता है कि हिन्दू धर्म की शुरुआत कैसे हुई और क्या है इसका क्रमबद्ध इतिहास। बहुत से लोग पुराण कथाएं पढ़कर हमेशा भ्रम में रहते हैं और सोचते हैं कि आखिर पहले कौन हुआ और बाद में कौन? उत्पत्ति का मूल जानना और फिर क्रमश: विकास, उत्थान और पतन को जानना जरूरी है। ग्रंथों में इतिहास को क्रमबद्ध न लिखकर काव्यमय और होचपोच लिखा गया है इसीलिए वह हमारी समझ में नहीं आता।
हिन्दू मानते हैं कि समय सीधा ही चलता है। सीधे चलने वाले समय में जीवन और घटनाओं का चक्र चलता रहता है। समय के साथ घटनाओं में दोहराव होता है फिर भी घटनाएं नई होती हैं। लेकिन समय की अवधारणा हिन्दू धर्म में अन्य धर्मों की अपेक्षा बहुत अलग है। प्राचीनकाल से ही हिन्दू मानते आए हैं कि हमारी धरती का समय अन्य ग्रहों और नक्षत्रों के समय से भिन्न है, जैसे 365 दिन में धरती का 1 वर्ष होता है तो धरती के मान से 365 दिन में देवताओं का 1 'दिव्य वर्ष' होता है। हिन्दू काल-अवधारणा सीधी होने के साथ चक्रीय भी है। चक्रीय इस मायने में कि दिन के बाद रात और रात के बाद दिन होता है तो यह चक्रीय है, लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कल वाला दिन ही आज का दिन है और आज भी कल जैसी ही घटनाएं घटेंगी। राम तो कई हुए, लेकिन हर त्रेतायुग में अलग-अलग हुए और उनकी कहानी भी अलग-अलग है। पहले त्रेतायुग के राम का दशरथ नंदन राम से कोई लेना-देना नहीं है। यह तो ब्रह्मा, विष्णु और शिव ही तय करते कि किस युग में कौन राम होगा और कौन रावण और कौन कृष्ण होगा और कौन कंस? ब्रह्मा, विष्णु और महेश के ऊपर जो ताकत है उसे कहते हैं... 'काल ब्रह्म'। यह काल ही तय करता है कि कौन ब्रह्मा होगा और कौन विष्णु? उसने कई विष्णु पैदा कर दिए हैं कई अन्य धरतियों पर। खैर...
उपरोक्त लिखने का आशय यह है कि हिन्दू काल निर्धारण अनुसार 4 युगों का मतलब 12,000 दिव्य वर्ष होता है। इस तरह अब तक 4-4 करने पर 71 युग होते हैं। 71 युगों का एक मन्वंतर होता है। इस तरह 14 मन्वंतर का 1 कल्प माना गया है। 1 कल्प अर्थात ब्रह्माजी के लोक का 1 दिन होता है।
विष्णु पुराण के अनुसार मन्वंतर की अवधि 71 चतुर्युगी के बराबर होती है। इसके अलावा कुछ अतिरिक्त वर्ष भी जोड़े जाते हैं। 1 मन्वंतर = 71 चतुर्युगी = 8,52,000 दिव्य वर्ष = 30,67,20,000 मानव वर्ष। ...फिलहाल 6 मन्वंतर बीत चुके हैं और यह 7वां मन्वंतर चल रहा है जिसका नाम वैवस्वत मनु का मन्वंतर कहा गया है। यदि हम कल्प की बात करें तो अब तक महत कल्प, हिरण्य गर्भ कल्प, ब्रह्म कल्प और पद्म कल्प बीत चुका है और यह 5वां कल्प वराह कल्प चल रहा है।
अब तक वराह कल्प के स्वयम्भुव मनु, स्वरोचिष मनु, उत्तम मनु, तमास मनु, रेवत मनु, चाक्षुष मनु तथा वैवस्वत मनु के मन्वंतर बीत चुके हैं और अब वैवस्वत तथा सावर्णि मनु की अंतरदशा चल रही है। सावर्णि मनु का आविर्भाव विक्रमी संवत् प्रारंभ होने से 5,631 वर्ष पूर्व हुआ था।
हिन्दू धर्म के इतिहास को कई इतिहासकारों ने लिखा है, लेकिन आजकल नेट का युग है। यहां इतनी लंबी-चौड़ी बातें लिखने से शायद ही समझ में आए। मोटी-मोटी किताबें पढ़ने की किसे फुर्सत? हिन्दू धर्म के प्राचीन इतिहास को किसी मानव की उत्पत्ति से जोड़कर नहीं देखा जा सकता, जैसा कि दूसरे धर्मों में आदम से इतिहास की शुरुआत होती है और फिर क्रमश: मूसा, ईसा और मोहम्मद तक समाप्त हो जाती है। जबकि हिन्दू धर्मानुसार मनुष्य पहली बार नहीं जन्मा तथा उसका अस्तित्व कई बार मिट गया और हर बार उसकी उत्पत्ति किसी एक माध्यम से नहीं हुई। कभी उसको रचा गया तो कभी वह क्रम विकास के माध्यम से जन्मा। इसीलिए हमने पुराणों में से कुछ ऐसी कहानियां छांटी हैं, जो आपको क्रमश: इतिहास की रोचक जानकारी देगी।
अगले पन्ने पर जानिए पहली कहानी...
1. ब्रह्मा, विष्णु, महेश, स्वयम्भुव मनु का काल : हालांकि ब्रह्मा, विष्णु और महेश की कथा को शिव के भक्तों ने शिव को आधार बनाकर लिखा तो विष्णु के भक्तों ने विष्णु को आधार बनाकर। कहा जाता है कि एक बार जब भगवान शिव से जब पूछा गया कि आपके पिता कौन तो उन्होंने ब्रह्मा का नाम लिया और फिर पूछा गया कि ब्रह्मा के पिता कौन तो उन्होंने विष्णु का नाम लिया और जब उनसे पूछा गया कि विष्णु के पिता कौन? तो उन्होंने कहा कि मैं स्वयं।
जब सब कुछ प्रलय के कारण नष्ट हो गया तो धरती लाखों वर्ष तक अंधकार में रही। फिर सूखी धरती पर जलावृष्टि हुई और यह धरती पूर्ण रूप से जल से भर गई। संपूर्ण धरती जलमग्न हो गई। जल में भगवान विष्णु की उत्पत्ति हुई। जब उन्होंने आंखें खोलीं तो नेत्रों से सूर्य की और हृदय से चंद्रमा की उत्पत्ति हुई। जल से विष्णु की उत्पत्ति होने के कारण उन्हें हिरण्याभ भी कहते हैं। हिरण्य अर्थात जल और नाभ अर्थात नाभि यानी जल की नाभि। इस नाभि से कमल की उत्पत्ति हुई और कमल जब जल के ऊपर खिला तो उसमें से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई।
फिर उनके माथे से ही एक ज्योतिर्लिंग प्रकट हुआ, जो टूटकर जब बिखरा तो उसमें से महेश की उत्पत्ति हुई। दोनों ने पूछा- मैं कौन हूं। तब विष्णु ने उनको सृष्टि के विस्तार का आदेश दिया। इस काल में एक और जहां जल में एकइंद्रिय और एकरंगी जीवों की उत्पत्ति हुई वहीं असंख्य पौधों और लताओं की उत्पत्ति होती गई। इसी तरह मेरू पर्वत से जब कुछ जल हटा तो यही एकइंद्रिय जीव वहां फैलकर तरह-तरह के रूप धरने लगे। ये जीवन क्रम विकास के क्रम में शामिल हो गए। यह सब ब्रह्मा की घोर तपस्या और अथक प्रयास से संभव हुआ।
तब ब्रह्मा ने एक ऐसे जीव की उत्पत्ति करने की सोची, जो अन्य जलचर, थलचर और नभचर जीवों की अपेक्षा अधिक बुद्धिमान हो अर्थात खुद ब्रह्मा की तरह हो। यह सोचकर उन्होंने पहले 4 सनतकुमारों को जन्म दिया, लेकिन वे कुछ नहीं कर पाए और वे चारों भी ब्रह्मा की तरह तपस्या में लीन हो गए। तब ब्रह्मा ने 10 मानस पुत्रों को उत्पन्न किया (वशिष्ठ, कृतु, पुलह, पुलस्य, अंगिरा, अत्रि और मरीचि आदि) और उनसे कहा कि आप मानव जीवन की उत्पत्ति करें, उनको शिक्षा दें और परमेश्वर का मार्ग बताएं। बहुत काल तक जब ये ऋषि तपस्या में ही लीन रहे तो यह देखकर स्वयं ब्रह्मा ने मानव रूप में स्वयम्भुव मनु और स्त्री रूप में शतरूपा को जन्म दिया। उन्होंने तब उन दोनों से मानव जाति के विस्तार का आदेश दिया और कहा कि आप सभी धर्मसम्मत वेदवाणी का ज्ञान दें।
वेद ईश्वर की वाणी है। इस वाणी को सर्वप्रथम 4 क्रमश: ऋषियों ने सुना- 1. अग्नि, 2. वायु, 3. अंगिरा और 4. आदित्य। परंपरागत रूप से इस ज्ञान को स्वयम्भुव मनु ने अपने कुल के लोगों को सुनाया, फिर स्वरोचिष, फिर औत्तमी, फिर तामस मनु, फिर रैवत और फिर चाक्षुष मनु ने इस ज्ञान को अपने कुल और समाज के लोगों को सुनाया। बाद में इस ज्ञान को वैवश्वत मनु ने अपने पुत्रों को दिया। इस तरह परंपरा से प्राप्त यह ज्ञान श्रीकृष्ण तक पहुंचा।
हिन्दू धर्म की शुरुआत की कहानी में सबसे पहले ब्रह्मा और उनके पुत्रों की कहानी का अधिक महत्व है उसके बाद विष्णु और महेश के शिष्यों और भक्तों की कहानी का अधिक महत्व है। महेश ने ब्रह्मा के पुत्र दक्ष की बेटी सती से विवाह किया और विष्णु ने ब्रह्मा के पुत्र भृगु की बेटी लक्ष्मी से विवाह किया। इस तरह ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने संपूर्ण धरती पर देव, दैत्य, दानव, राक्षस, मानव, किन्नर, वानर, नाग, मल्ल आदि हजारों तरह के जीवों की रचना की।
उल्लेखनीय है कि स्वयम्भुव मनु के कुल में भगवान ऋषभदेव हुए। ऋषभदेव स्वयम्भुव मनु से 5वीं पीढ़ी में इस क्रम में हुए- स्वयम्भुव मनु, प्रियव्रत, अग्नीघ्र, नाभि और फिर ऋषभ। ऋषभदेव ने प्रजा को जीवन के निर्वाह हेतु असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, विद्या, शिल्प आदि की शिक्षा दी। इनका नंदा व सुनंदा से विवाह हुआ। इनके भरत व बाहुबली आदि 100 पुत्र हुए। भरत के नाम पर ही इस अजनाभखंड का नाम भारतवर्ष रखा गया।
अगले पन्ने पर जानिए दूसरी कहानी...
2. ऋषि कश्यप, हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष : जैसा कि हम पहले बता चुके हैं कि संपूर्ण धरती पर पहले जल ही था। जल जब हटा तो धरती का सर्वप्रथम हिस्सा जो प्रकट हुआ, वह मेरू पर्वत के आसपास का क्षेत्र था। यह पर्वत हिमालय के बीचोबीच का हिस्सा है। यहीं पर कैलाश पर्वत है। कश्मीर को कश्यप ऋषि के कुल के लोगों ने ही बसाया था।
ऋषि कश्यप एक ऐसे ऋषि थे जिन्होंने बहुत-सी स्त्रियों से विवाह कर अपने कुल का विस्तार किया था। आदिम काल में जातियों की विविधता आज की अपेक्षा कई गुना अधिक थी। ऋषि कश्यप ब्रह्माजी के मानस-पुत्र मरीचि के विद्वान पुत्र थे। सुर-असुरों के मूल पुरुष ऋषि कश्यप का आश्रम मेरू पर्वत के शिखर पर था, जहां वे परब्रह्म परमात्मा के ध्यान में लीन रहते थे। समस्त देव, दानव एवं मानव ऋषि कश्यप की आज्ञा का पालन करते थे। कश्यप ने बहुत से स्मृति-ग्रंथों की रचना की थी।
पुराण के अनुसार सृष्टि की रचना और विकास के काल में धरती पर सर्वप्रथम भगवान ब्रह्माजी प्रकट हुए। ब्रह्माजी से दक्ष प्रजापति का जन्म हुआ। ब्रह्माजी के निवेदन पर दक्ष प्रजापति ने अपनी पत्नी असिक्नी के गर्भ से 66 कन्याएं पैदा कीं। इन कन्याओं में से 13 कन्याएं ऋषि कश्यप की पत्नियां बनीं। मुख्यत: इन्हीं कन्याओं से सृष्टि का विकास हुआ और कश्यप सृष्टिकर्ता कहलाए। उल्लेखनीय है कि ब्रह्मा के पुत्रों के कुल के लोगों ने ही आपस में रोटी-बेटी का संबंध रखकर कुल का विस्तार किया।
कश्यप की पत्नियां : इस प्रकार ऋषि कश्यप की अदिति, दिति, दनु, काष्ठा, अरिष्टा, सुरसा, इला, मुनि, क्रोधवशा, ताम्रा, सुरभि, सुरसा, तिमि, विनता, कद्रू, पतांगी और यामिनी आदि पत्नियां बनीं। इन पत्नियों की कहानी भी बड़ी रोचक है। हिन्दुओं को इनकी कहानियां पढ़ना चाहिए।
1. अदिति : पुराणों के अनुसार कश्यप ने अपनी पत्नी अदिति के गर्भ से 12 आदित्यों को जन्म दिया जिनमें भगवान नारायण का वामन अवतार भी शामिल था। ये 12 पुत्र इस प्रकार थे- विवस्वान (सूर्य), अर्यमा, पूषा, त्वष्टा (विश्वकर्मा), सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण, मित्र, इंद्र और त्रिविक्रम (भगवान वामन)। माना जाता है कि ऋषि कश्यप के पुत्र विवस्वान से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ।
नोट : *महाराज वैवस्वत मनु को इक्ष्वाकु, नृग, धृष्ट, शर्याति, नरिष्यंत, प्रांशु, नाभाग, दिष्ट, करुष और पृषध्र नामक 10 श्रेष्ठ पुत्रों की प्राप्ति हुई। इनके ही कुल में आगे चलकर राम हुए। यह सूर्यवंशियों का कुल था, जबकि चंद्रवंशियों की उत्पत्ति ब्रह्मा के पुत्र अत्रि से हुई थी। *ब्रह्मा से अत्रि, अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध, बुध से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति और कृति नामक 6 महाबल-विक्रमशाली पुत्र हुए। *इधर, सूर्यवंश- ब्रह्मा से मरीचि, मरीचि से कश्यप और कश्यप से विवस्वान (सूर्य), विवास्वान से वैवस्वत मनु का जन्म हुआ।
2. दिति : कश्यप ऋषि ने दिति के गर्भ से हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र एवं सिंहिका नामक एक पुत्री को जन्म दिया। श्रीमद्भागवत के अनुसार इन तीन संतानों के अलावा दिति के गर्भ से कश्यप के 49 अन्य पुत्रों का जन्म भी हुआ, जो कि मरुंदण कहलाए। कश्यप के ये पुत्र नि:संतान रहे। जबकि हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद।
देवासुर संग्राम : उक्त दोनों के पुत्रों को सुर और असुर कहा जाता है। दोनों के ही पुत्रों में धरती पर स्वर्ग के अधिकार को लेकर घनघोर युद्ध होता था। माना जाता है कि देवासुर संग्राम लगभग 12 बार हुआ। इन दोनों के पुत्रों में अदिति के पुत्र इंद्र और विवस्वान की प्रतिद्वंद्विता दिति के पुत्र हिरण्यकश्यप और हिरण्याक्ष से चलती रहती थी। अदिति के पुत्र वरुण देव और असुर दोनों को ही प्रिय थे इसलिए उनको असुरों का समर्थक भी माना गया है। वरुण देव जल के देवता हैं।
हिरण्याक्ष : हिरण्याक्ष भयंकर दैत्य था। वह तीनों लोकों पर अपना अधिकार चाहता था। हिरण्याक्ष का दक्षिण भारत पर राज था। ब्रह्मा से युद्ध में अजेय और अमरता का वर मिलने के कारण उसका धरती पर आतंक हो चला था। हिरण्याक्ष भगवान वराहरूपी विष्णु के पीछे लग गया था और वह उनके धरती निर्माण के कार्य की खिल्ली उड़ाकर उनको युद्ध के लिए ललकारता था। वराह भगवान ने जब रसातल से बाहर निकलकर धरती को समुद्र के ऊपर स्थापित कर दिया, तब उनका ध्यान हिरण्याक्ष पर गया।
आदि वराह के साथ भी महाप्रबल वराह सेना थी। उन्होंने अपनी सेना को लेकर हिरण्याक्ष के क्षेत्र पर चढ़ाई कर दी और विंध्यगिरि के पाद प्रसूत जल समुद्र को पार कर उन्होंने हिरण्याक्ष के नगर को घेर लिया। संगमनेर में महासंग्राम हुआ और अंतत: हिरण्याक्ष का अंत हुआ। आज भी दक्षिण भारत में हिंगोली, हिंगनघाट, हींगना नदी तथा हिरण्याक्षगण हैंगड़े नामों से कई स्थान हैं। उल्लेखनीय है कि सबसे पहले भगवान विष्णु ने नील वराह का अवतार लिया फिर आदि वराह बनकर हिरण्याक्ष का वध किया इसके बाद श्वेत वराह का अवतार नृसिंह अवतार के बाद लिया।
हिरण्यकश्यप : हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था। हिरण्यकश्यप को यह अच्छा नहीं लगता था। हिरण्याक्ष की तरह वह चाहता था कि संपूर्ण धरती के देव, दानव और मानव मुझे ईश्वर मानें। हिरण्यकश्यप को मारने के लिए भगवान विष्णु को नृसिंह का अवतार लेना पड़ा। भक्त प्रह्लाद की कहानी से सभी अवगत हैं। होलिका दहन और नृसिंह जयंती पर्व इस घटना की याद में मनाया जाता है।
अगले पन्ने पर जानिए तीसरी कहानी...
3. बाली-वामन : महाबली बाली अजर-अमर है। कहते हैं कि वो आज भी धरती पर रहकर देवताओं के विरुद्ध कार्य में लिप्त है। पहले उसका स्थान दक्षिण भारत के महाबलीपुरम में था लेकिन मान्यता अनुसार अब मरुभूमि अरब में है जिसे प्राचीनकाल में पाताल लोक कहा जाता था। अहिरावण भी वहीं रहता था। समुद्र मंथन में उसे घोड़ा प्राप्त हुआ था जबकि इंद्र को हाथी। उल्लेखनीय है कि अरब में घोड़ों की तादाद ज्यादा थी और भारत में हाथियों की।
शिवभक्त असुरों के राजा बाली की चर्चा पुराणों में बहुत होती है। वह अपार शक्तियों का स्वामी लेकिन धर्मात्मा था। वह मानता था कि देवताओं और विष्णु ने उसके साथ छल किया। हालांकि बाली विष्णु का भी भक्त था। भगवान विष्णु ने उसे अजर-अमर होने का वरदान दिया था। हिरण्यकश्यप के 4 पुत्र थे- अनुहल्लाद, हल्लाद, भक्त प्रह्लाद और संहल्लाद। प्रह्लाद के कुल में विरोचन के पुत्र राजा बाली का जन्म हुआ। बाली जानता था कि मेरे पूर्वज विष्णु भक्त थे, लेकिन वह यह भी जानता था कि मेरे पूर्वजों को विष्णु ने ही मारा था इसलिए बाली के मन में देवताओं के प्रति द्वेष था। उसने शुक्राचार्य के सान्निध्य में रहकर स्वर्ग पर आक्रमण करके देवताओं को खदेड़ दिया था। वह तीनों लोकों का स्वामी बन बैठा था।
देवताओं के कहने पर वामन रूप विष्णु ने दानवीर बाली के समक्ष ब्राह्मण रूप में उपस्थित होकर उससे तीन पग भूमि मांग ली थी। वामन ने दो पग में तीनों लोक नापकर पूछा, अब तीसरा पग कहां रखूं तो बाली ने कहा कि प्रभु अब मेरा सिर ही बचा है आप इस पर पग रख दें। बाली के इस वचन को सुनकर और उसकी दानवीरता को देखते हुए भगवान वामन ने उनको पाताल लोक का राजा बनाकर अमरता का वरदान दे दिया। इस तरह इंद्र और अन्य देवताओं को फिर से स्वर्ग का साम्राज्य मिल गया था।
अगले पन्ने पर जानिए चौथी कहानी...
4. इन्द्र-बाली (समुद्र मंथन) : समुद्र मंथन की कथा सभी जानते हैं। राजा बाली के हाथ से जब वामन के दान के कारण स्वर्ग का राज्य चला गया, तब कुछ काल बाद एक घटना घटी। दुर्वासा ऋषि की पारिजात पुष्पमाला का इंद्र ने उचित सम्मान नहीं किया तो इससे रुष्ट होकर उन्होंने इंद्र को श्रीहीन होकर स्वर्ग से वंचित होने का श्राप दे डाला। यह समाचार लेकर लेकर शुक्राचार्य दैत्यराज बाली के दरबार में पहुंचते हैं। वे दैत्यराज बाली को कहते हैं कि इस अवसर का लाभ उठाकर असुरों को तुरंत आक्रमण करके स्वर्ग पर अधिकार कर लेना चाहिए। ऐसा ही होता है। दैत्यराज बाली स्वर्ग पर आक्रमण का देवताओं को वहां से खदेड़ देता है।
इधर, असुरों से पराजित देवताओं की दुर्दशा का समाचार लेकर नारद ब्रह्मा के पास जाते हैं और फिर नारद सहित सभी देवतागण भगवान विष्णु के पास पहुंच जाते हैं। भगवान विष्णु सभी को लेकर देवादिदेव महादेव के पास पहुंच जाते हैं। सभी निर्णय लेते हैं कि समुद्र का मंथन कर अमृत प्राप्त किया जाए और वह अमृत देवताओं को पिलाया जाए जिससे कि वे अमर हो जाएं और फिर वे दैत्यों से युद्ध लड़ें।
अगले पन्ने पर पांचवीं कहानी...
5. वैवस्वत मनु : मत्स्य पुराण में उल्लेख है कि सत्यव्रत नाम के राजा एक दिन कृतमाला नदी में जल से तर्पण कर रहे थे। उस समय उनकी अंजुलि में एक छोटी सी मछली आ गई। सत्यव्रत ने मछली को नदी में डाल दिया तो मछली ने कहा कि इस जल में बड़े जीव-जंतु मुझे खा जाएंगे। यह सुनकर राजा ने मछली को फिर जल से निकाल लिया और अपने कमंडल में रख लिया और आश्रम ले आए।
रातभर में वह मछली बढ़ गई। तब राजा ने उसे बड़े मटके में डाल दिया। मटके में भी वह बढ़ गई तो उसे तालाब में डाल दिया। और तब अंत में सत्यव्रत ने जान लिया कि यह कोई मामूली मछली नहीं है, जरूर इसमें कुछ बात है, तब उन्होंने उसे ले जाकर समुद्र में डाल दिया। समुद्र में डालते समय मछली ने कहा कि समुद्र में मगर रहते हैं मुझे वहां मत छोड़िए, लेकिन राजा ने हाथ जोड़कर कहा कि आप मुझे कोई मामूली मछली नहीं जान पड़ती है। आपका आकार तो अप्रत्याशित तेजी से बढ़ रहा है। बताएं कि आप कौन हैं?
तब मछली रूप में भगवान विष्णु ने प्रकट होकर कहा कि आज से 7वें दिन प्रलय (अधिक वर्षा से) के कारण पृथ्वी समुद्र में डूब जाएगी, तब मेरी प्रेरणा से तुम एक बहुत बड़ी नौका बनाओ और जब प्रलय शुरू हो तो तुम सप्त ऋषियों सहित सभी प्राणियों को लेकर उस नौका में बैठ जाना तथा सभी अनाज उसी में रख लेना। अन्य छोटे-बड़े बीज भी रख लेना। नाव पर बैठकर लहराते महासागर में विचरण करना।
प्रचंड आंधी के कारण नौका डगमगा जाएगी, तब मैं इसी रूप में आ जाऊंगा। तब वासुकि नाग द्वारा उस नाव को मेरे सींग में बांध लेना। जब तक ब्रह्मा की रात रहेगी, मैं नाव समुद्र में खींचता रहूंगा। उस समय जो तुम प्रश्न करोगे मैं उत्तर दूंगा। इतना कह मछली गायब हो गई।
राजा तपस्या करने लगे। मछली का बताया हुआ समय आ गया। वर्षा होने लगी। समुद्र उमड़ने लगा। तभी राजा ऋषियों, अन्न, बीजों को लेकर नौका में बैठ गए। और फिर भगवानरूपी वही मछली दिखाई दी। उसके सींग में नाव बांध दी गई और मछली से पृथ्वी और जीवों को बचाने की स्तुति करने लगे। मछलीरूपी विष्णु ने उसे आत्मतत्व का उपदेश दिया। मछलीरूपी विष्णु ने अंत में नौका को हिमालय की चोटी से बांध दिया। नाव में ही बैठे-बैठे प्रलय का अंत हो गया।
यही सत्यव्रत वर्तमान में महाकल्प में विवस्वान या वैवस्वत (सूर्य) के पुत्र श्राद्धदेव के नाम से विख्यात हुए, वही वैवस्वत मनु के नाम से भी जाने गए। माना जाता है कि राजा बाली के लगभग 3500 वर्ष बाद धरती पर जलप्रलय हुआ था। जलप्रलय के बाद धीरे-धीरे जल उतरने लगा और... त्रिविष्टप (तिब्बत) या देवलोक से वैवस्वत मनु (6673 ईसा पूर्व) के नेतृत्व में प्रथम पीढ़ी के मानवों (देवों) का मेरू प्रदेश में अवतरण हुआ। वे देव स्वर्ग से अथवा अम्बर (आकाश) से पवित्र वेद पुस्तक भी साथ लाए थे। इसी से श्रुति और स्मृति की परंपरा चलती रही। वैवस्वत मनु के समय ही भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार हुआ। वैवस्वत मनु के 10 पुत्र थे। इल, इक्ष्वाकु, कुशनाम, अरिष्ट, धृष्ट, नरिष्यंत, करुष, महाबली, शर्याति और पृषध पुत्र थे। वैवस्वत मनु के 10 पुत्र और इला नाम की कन्या थी।
वैवस्वत मनु के काल के प्रमुख ऋषि- वशिष्ठ, विश्वामित्र, अत्रि, कण्व, भारद्वाज, मार्कंडेय, अगस्त्य आदि। वैवस्वत मनु की शासन व्यवस्था में देवों में 5 तरह के विभाजन थे- देव, दानव, यक्ष, किन्नर और गंधर्व। दरअसल ये 5 तरह की मानव जातियां थीं। प्रारंभ में ये सभी जातियां हिमालय से सटे क्षेत्रों में ही रहती थीं फिर धीरे-धीरे वहां से नीचे फैलने लगीं।
अगले पन्ने पर छठी कहानी...
6. इक्ष्वाकु : वैवस्वत मनु के बाद इक्ष्वाकु हिन्दू धर्म के इतिहास में मील का पत्थर है। इनकी कहानी को जानना जरूरी है। वैवस्वत मनु के 10 पुत्र थे- 1. इल, 2. इक्ष्वाकु, 3. कुशनाम, 4. अरिष्ट, 5. धृष्ट, 6. नरिष्यंत, 7. करुष, 8. महाबली, 9. शर्याति और 10. पृषध। राजा इक्ष्वाकु के कुल में जैन और हिन्दू धर्म के महान तीर्थंकर, भगवान, राजा, साधु-महात्मा और सृजनकारों का जन्म हुआ है।
इक्ष्वाकु के पुत्र और उनका वंश : मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु के 3 पुत्र हुए- 1. कुक्षि, 2. निमि और 3. दण्डक। इक्ष्वाकु के प्रथम पुत्र कुक्षि अयोध्या के राजा थे जिनके कुल में राम हुए। इक्ष्वाकु के दूसरे पुत्र निमि मिथिला के राजा थे जिनके कुल में राजा जनक हुए। राजा निमि के गुरु थे- ऋषि वशिष्ठ। निमि जैन धर्म के 21वें तीर्थंकर बनें।
अगले पन्ने पर सातवीं कहानी...
7. राजा पृथु : इक्ष्वाकु के वंश में महान सम्राट पृथु हुए। वेन के पुत्र पृथु की कहानी को बहुत कम हिन्दू जानते हैं। स्वयम्भुव मनु के वंशज अंग नामक प्रजापति का विवाह मृत्यु की मानसी पुत्री सुनीथा से हुआ था। वेन उनका पुत्र हुआ। पृथु ने कई महान कार्य किए थे। उनके महान कार्यों के कारण उनको विष्णु का अंशावतार माना गया है। वाल्मीकि रामायण में इन्हें अनरण्य का पुत्र तथा त्रिशंकु का पिता कहा गया है। पृथु की पत्नी का नाम अर्चि था। पृथु के पिता महापापी थे। उनके पाप के कारण वे नरक चले गए थे। पृथु ने उनको नरक से छुड़ाया था।
पृथु भगवान विष्णु के भक्त और धर्मपरायण राजा थे। उन्होंने सरस्वती नदी के तट पर पर 100 यज्ञ किए थे। उस काल में यह क्षेत्र ब्रह्मावर्त प्रदेश कहलाता था। सौवें यज्ञ के समय इंद्र ने उनका अश्व चुरा लिया था। इससे क्रुद्ध होकर पृथु ने धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ा दी थी। ब्रह्मा ने उनको रोका। तब पृथु ने प्रयाग को अपना निवास स्थल बना लिया। अंतिम दिनों में पृथु अर्चि सहित तपस्या के लिए वन में चले गए। पृथु तथा अर्चि के 5 पुत्र हुए थे- विजिताश्व, धूम्रकेश, हर्यक्ष, द्रविण और वृक।
उल्लेखनीय है कि चंद्रवंश में भी एक पृथु हुए हैं, जो वृष्णिवंश के चित्ररथ के पुत्र थे, जो विदुर का भाई था। कृष्ण ने इसे मथुरापुरी के उत्तरी द्वार की रक्षा पर नियुक्त किया था। प्रभास तीर्थ में यादव-वंश के अंत के समय यह भी परस्पर कलह में मारा गया था।
अगले पन्ने पर आठवीं कहानी...
8. राजा हरीशचन्द्र : सतयुग के राजा हरीशचन्द्र की कहानी को कौन नहीं जानता? लगभग सभी जानते हैं कि कैसे ऋषि विश्वामित्र और ब्रह्मा ने उनकी सत्यप्रियता की परीक्षा लेने के लिए उनका जीवन बर्बाद कर दिया था, लेकिन उन्होंने सत्य का साथ फिर भी नहीं छोड़ा। उनकी कहानी बड़ी ही दर्दनाक कहानी है। भारत के इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण कथा मानी जाती है सत्यवादी राजा हरीशचन्द्र की कथा।
हरीशचन्द्र सच बोलने, दान देने और वचन पालन के लिए प्रसिद्ध थे। उनकी सत्यता की परीक्षा लेने के लिए ब्रह्मा और विश्वामित्र ने एक योजना बनाई और फिर राजा हरीशचन्द्र का जीवन बदल गया। एक रात उन्होंने सपना देखा कि उन्होंने ऋषि विश्वामित्र को अपना संपूर्ण राजपाट दान कर दिया है। सुबह हुई तभी उनके द्वार पर विश्वामित्र साधु वेश में आ धमके। राजा हरीशचन्द्र ने उन्हें प्रणाम कर पूछा- 'मेरे लिए क्या आज्ञा है, मुनिवर?'
मुनि के भेष में विश्वामित्र ने कहा कि मैं जो मांगूगा, वो तुम दे सकोगे? तब राजा ने विश्वामित्र को पहचानकर कहा कि मैं अपना सबकुछ पहले से ही आपको दे चुका हूं मुनिवर अब क्या दूं? विश्वामित्र को आश्चर्य हुआ। विश्वामित्र ने कहा कि मुझे खुशी है, तुम अपने वचन के पक्के हो। चलो, तुम्हारा साम्राज्य अब मेरा हुआ किंतु अब बताओ दक्षिणा में तुम क्या दोगे?
राजा सोच में पड़ गए। वे जानते थे कि दक्षिणा के बिना दान पूरा नहीं होता। कुछ देर सोचने के बाद उन्होंने कहा- 'मुनिवर, अब तो हमारे पास केवल हमारे शरीर बचे हैं। काशी नगरी के बाजार में हम अपने को बेचेंगे। जो मूल्य मिलेगा, वही आपकी दक्षिणा होगी।' राजा ने अपने पुत्र और पत्नी सहित खुद को काशी की मंडी में बेच दिया और उस रकम को विश्वामित्र को दक्षिणा में दे दिया। बस यहीं से उनके बुरे दिन शुरू हो गए। यह कहानी यहीं तक लिखी, आगे आप ढूंढकर पढ़ें या फिल्म देखें।
अगले पन्ने पर नौवीं कहानी...
9. ययाति की कहानी : ब्रह्मा से अत्रि, अत्रि से चंद्रमा, चंद्रमा से बुध, बुध से पुरुरवा, पुरुरवा से आयु, आयु से नहुष, नहुष से यति, ययाति, संयाति, आयति, वियाति और कृति नामक छः महाबल-विक्रमशाली पुत्र हुए।
अत्रि से उत्पन्न चंद्रवंशियों में पुरुरवा-ऐल के बाद सबसे चर्चित कहानी ययाति और उसने पुत्रों की है। ययाति के 5 पुत्र थे- 1. पुरु, 2. यदु, 3. तुर्वस, 4. अनु और 5. द्रुह्मु। उनके इन पांचों पुत्रों और उनके कुल के लोगों ने मिलकर लगभग संपूर्ण एशिया पर राज किया था। ऋग्वेद में इसका उल्लेख मिलता है।
ययाति बहुत ही भोग-विलासी राजा था। जब भी उसको यमराज लेने आते तो वह कह देता नहीं अभी तो बहुत काम बचे हैं। अभी तो कुछ देखा ही नहीं।
अगले पन्ने पर दसवीं कहानी...
10. वशिष्ठ-विश्वामित्र की लड़ाई : गुरु वशिष्ठ और विश्वामित्र के मध्य प्रतिष्ठा की लड़ाई चलती रहती थी। इस लड़ाई के चलते ही 5 हजार वर्ष पूर्व हुए महाभारत युद्ध के पूर्व एक और महासंग्राम हुआ था जिसे 'दशराज युद्ध' के नाम से जाना जाता। इस युद्ध की चर्चा ऋग्वेद में मिलती है। यह रामायण काल की बात है।
महाभारत युद्ध के पहले भारत के आर्यावर्त क्षेत्र में आर्यों के बीच दशराज युद्ध हुआ था। इस युद्ध का वर्णन दुनिया के हर देश और वहां की संस्कृति में आज भी विद्यमान है। ऋग्वेद के 7वें मंडल में इस युद्ध का वर्णन मिलता है। इस युद्ध से यह पता चलता है कि आर्यों के कितने कुल या कबीले थे और उनकी सत्ता धरती पर कहां तक फैली थी। इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध आधुनिक पाकिस्तानी पंजाब में परुष्णि नदी (रावी नदी) के पास हुआ था।
ब्रह्मा से भृगु, भृगु से वारिणी भृगु, वारिणी भृगु से बाधृश्य, शुनक, शुक्राचार्य (उशना या काव्या), बाधूल, सांनग और च्यवन का जन्म हुआ। शुनक से शौनक, शुक्राचार्य से त्वष्टा का जन्म हुआ। त्वष्टा से विश्वरूप और विश्वकर्मा। विश्वकर्मा से मनु, मय, त्वष्टा, शिल्लपी और देवज्ञ का जन्म हुआ। दशराज्ञ युद्ध के समय भृगु मौजूद थे।
अगले पन्ने पर ग्यारहवीं कहानी...
राजा सगर और भगीरथ : इक्ष्वाकु वंश के राजा सगर भगीरथ और श्रीराम के पूर्वज हैं। राजा सगर की 2 रानियां थीं- केशिनी और सुमति। जब दीर्घकाल तक दोनों पत्नियों को कोई संतान नहीं हुई तो राजा अपनी दोनों रानियों के साथ हिमालय पर्वत पर जाकर पुत्र कामना से तपस्या करने लगे। तब ब्रह्मा के पुत्र महर्षि भृगु ने उन्हें वरदान दिया कि एक रानी को 60 हजार अभिमानी पुत्र प्राप्त तथा दूसरी से एक वंशधर पुत्र होगा। वंशधर अर्थात जिससे आगे वंश चलेगा।
बाद में रानी सुमति ने तूंबी के आकार के एक गर्भ-पिंड को जन्म दिया। वह सिर्फ एक बेजान पिंड था। राजा सगर निराश होकर उसे फेंकने लगे, तभी आकाशवाणी हुई- 'सावधान राजा! इस तूंबी में 60 हजार बीज हैं। घी से भरे एक-एक मटके में एक-एक बीज सुरक्षित रखने पर कालांतर में 60 हजार पुत्र प्राप्त होंगे।'
राजा सगर ने इस आकाशवाणी को सुनकर इसे विधाता का विधान मानकर वैसा ही सुरक्षित रख लिया, जैसा कहा गया था। समय आने पर उन मटकों से 60 हजार पुत्र उत्पन्न हुए। जब राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया तो उन्होंने अपने 60 हजार पुत्रों को उस घोड़े की सुरक्षा में नियुक्त किया। देवराज इंद्र ने उस घोड़े को छलपूर्वक चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बांध दिया।
राजा सगर के 60 हजार पुत्र उस घोड़े को ढूंढते-ढूंढते जब कपिल मुनि के आश्रम पहुंचे तो उन्हें लगा कि मुनि ने ही यज्ञ का घोड़ा चुराया है। यह सोचकर उन्होंने कपिल मुनि का अपमान कर दिया। ध्यानमग्न कपिल मुनि ने जैसे ही अपनी आंखें खोलीं, राजा सगर के 60 हजार पुत्र वहीं भस्म हो गए।
भगीरथ के पूर्वज राजा सगर के 60 हजार पुत्र कपिल मुनि के तेज से भस्म हो जाने के कारण अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए थे। अपने पूर्वजों की शांति के लिए ही भगीरथ ने घोर तप किया और गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने में सफल हुए। पूर्वजों की भस्म के गंगा के पवित्र जल में डूबते ही वे सब शांति को प्राप्त हुए। राजा भगीरथ के कठिन प्रयासों और तपस्या से ही गंगा स्वर्ग से पृथ्वी पर आई थी, इसे ही 'गंगावतरण' की कथा कहते हैं। सगर और भगीरथ से जुड़ी अनेक और भी कथाएं हैं।
अगले पन्ने पर बारहवीं कहानी...
11. परशुराम की कहानी : अश्वत्थामा, हनुमान और विभीषण की भांति परशुराम भी चिरंजीवी हैं। भगवान परशुराम तभी तो राम के काल में भी थे और कृष्ण के काल में भी उनके होने की चर्चा होती है। कल्प के अंत तक वे धरती पर ही तपस्यारत रहेंगे। परशुराम भृगु वंश से थे।
महाभारत के अनुसार भृगु से वारिणी भृगु ऋषि और वारिणी भृगु के उशनस् शुक्र एवं च्यवन नामक दो पुत्र थे। उनमें से शुक्र एवं उसका परिवार दैत्यों के पक्ष में शामिल होने के कारण नष्ट हो गया। इस प्रकार च्यवन (पत्नी मनुकन्या आरुषि) से और्व, और्व से ऋचीक, ऋचीक से जमदग्नि और जमदग्नि से परशुराम का जन्म हुआ। भृगु ऋषि के च्यवन कुल का संबंध पश्चिमी हिन्दुस्तान के अनार्त प्रदेश से था। उशनस् शुक्र उत्तर भारत के मध्य भाग में थे। परशुराम के बाद इंद्रोत शौनक और प्रचेतन वाल्मीकि का उल्लेख मिलता है।
ऋचीक-सत्यवती के पुत्र जमदग्नि, जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे। सत्यवती गाधि की पुत्री थी। गाधि राजा कुशिक का पुत्र और विश्वामित्र के पिता थे। ऋचीक-सत्यवती के पुत्र जमदग्नि, जमदग्नि के पुत्र परशुराम थे। गाधि राजा कुशिक का पुत्र और विश्वामित्र के पिता थे।
विष्णु के छठे 'आवेश अवतार' परशुराम का जन्म वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को रात्रि के प्रथम प्रहर में भृगु ऋषि के कुल में हुआ था। उनकी माता का नाम रेणुका था। परशुराम भगवान शंकर के परम भक्त थे। उनका वास्तविक नाम राम था किंतु परशु धारण करने से वे परशुराम कहे जाने लगे। भगवान शिव से उन्होंने एक अमोघास्त्र प्राप्त किया था, जो परशु नाम से प्रसिद्ध है। परशुराम के 4 और भाई थे- रुमण्वान, सुषेण, वसु और विश्वावसु। परशुराम 5वें पुत्र थे।
उस काल में हैहयवंशीय क्षत्रिय राजाओं का अत्याचार था। राजा सहस्रबाहु अर्जुन आश्रमों के ऋषियों को सताया करता था। परशुराम ने उक्त राजा सहस्रबाहु का महिष्मती में वध कर ऋषियों को भयमुक्त किया। हैहयवंशीय क्षत्रिय राजाओं से उनके युद्ध को आज भी याद किया जाता है। उनका इन राजाओं से 36 बार युद्ध हुआ था और 36 बार ही हैहयवंशीय क्षत्रिय राजाओं को पराजित होना पड़ा था। इस दौरान लाखों क्षत्रियों का नाश हो गया था। इस पाप से छुटकारा पाने के लिए भगवान परशुराम घोर तपस्या में लीन हो गए थे।
अगले पन्ने पर तेरहवीं कहानी...
12. राम की कहानी : शोधानुसार पता चलता है कि भगवान राम का जन्म 5114 ईस्वी पूर्व चैत्र मास की नवमी को हुआ था। अयोध्या के राजा दशरथ के 4 पुत्रों में सबसे बड़े पुत्र थे भगवान राम। दशरथ की 3 पत्नियां थीं- कौशल्या, सुमित्रा और कैकयी। राम के 3 भाई थे- लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न। राम कौशल्या के पुत्र थे। सुमित्रा के लक्ष्मण और शत्रुघ्न 2 पुत्र थे। कैकयी के पुत्र का नाम भरत था। भरत को राजसिंहासन पर बैठाने के लिए कैकयी ने दशरथ से राम के लिए 14 वर्ष का वनवास मांग लिया था।
लक्ष्मण की पत्नी का नाम उर्मिला, शत्रुघ्न की पत्नी का नाम श्रुतकीर्ति और भरत की पत्नी का नाम मांडवी था। सीता और उर्मिला राजा जनक की पुत्रियां थीं और मांडवी और श्रुतकीर्ति कुशध्वज की पुत्रियां थीं। लक्ष्मण के अंगद तथा चंद्रकेतु नामक 2 पुत्र थे।
राम का विवाह मिथिला के नरेश राजा जनक की पुत्री सीता से हुआ। सीता स्वयंवर में रावण भी आया था। विवाह बाद कैकयी के कहने पर राम को दशरथ ने 14 वर्ष के लिए वनवास में भेज दिया। वनवास में सीता और लक्ष्मण भी उनके साथ गए। इधर कैकयी ने भरत को अयोध्या का राजा बना दिया।
वनवास के दौरान लक्ष्मण ने रावण की बहन शूर्पणखा की नाक काट दी थी। सीता स्वयंवर में अपनी हार और शूर्पणखा की नाक काटने का बदला लेने के लिए रावण ने सीता का हरण कर लिया। वनवास के दौरान ही राम को सीता से 2 पुत्र प्राप्त हुए- लव और कुश। एक शोधानुसार लव और कुश की 50वीं पीढ़ी में शल्य हुए, जो महाभारत युद्ध में कौरवों की ओर से लड़े थे।
राम ने सीता को रावण के चंगुल से छुड़ाने के लिए संपाति, हनुमान, सुग्रीव, विभीषण, मैन्द, द्विविद, जाम्बवंत, नल, नील, तार, अंगद, धूम्र, सुषेण, केसरी, गज, पनस, विनत, रम्भ, शरभ, महाबली कम्पन (गवाक्ष), दधिमुख, गवय और गन्धमादन आदि की सहायता से सेतु बनाया और लंका पर चढ़ाई कर दी। लंका में घोर युद्ध हुआ और पराक्रमी रावण का वध हो गया। तब पुष्पक विमान द्वारा रावण सीता सहित पुन: अयोध्या आ गए।
इस सारे घटनाक्रम में हनुमानजी ने राम का बहुत साथ दिया इसीलिए हनुमानजी राम के अनन्य सहायक और भक्त सिद्ध हुए। भगवान राम को हनुमान ऋष्यमूक पर्वत के पास मिले थे।
महत्वपूर्ण घटनाक्रम : गुरु वशिष्ठ से शिक्षा-दीक्षा लेना, विश्वामित्र के साथ वन में ऋषियों के यज्ञ की रक्षा करना और राक्षसों का वध, राम स्वयंवर, शिव का धनुष तोड़ना, वनवास, केवट से मिलन, लक्ष्मण द्वारा शूर्पणखा (वज्रमणि) की नाक काटना, खर और दूषण का वध, लक्ष्मण द्वारा लक्ष्मण रेखा खींचना, स्वर्ण हिरण-मारीच का वध, सीताहरण, जटायु से मिलन।
कबन्ध का वध, शबरी से मिलन, हनुमानजी से मिलन, सुग्रीव से मिलन, दुन्दुभि और बाली का वध, संपाति द्वारा सीता का पता बताना, अशोक वाटिका में हनुमान द्वारा सीता को राम की अंगूठी देना, हनुमान द्वारा लंकादहन, सेतु का निर्माण, लंका में रावण से युद्ध, लक्ष्मण का मूर्छित होना, हनुमान द्वारा संजीवनी लाना और रावण का वध, पुष्पक विमान से अयोध्या आगमन।
राम की जल समाधि : अयोध्या आगमन के बाद राम ने कई वर्षों तक अयोध्या का राजपाट संभाला और इसके बाद गुरु वशिष्ठ व ब्रह्मा ने उनको संसार से मुक्त हो जाने का आदेश दिया। एक घटना के बाद उन्होंने जल समाधि ले ली थी। पढ़िए समाधि कथा... कितने राम..
अगले पन्ने पर चौदहवीं कहानी...
13. कृष्ण की कहानी : 'न कोई मरता है और न ही कोई मारता है, सभी निमित्त मात्र हैं... सभी प्राणी जन्म से पहले बिना शरीर के थे, मरने के उपरांत वे बिना शरीर वाले हो जाएंगे। यह तो बीच में ही शरीर वाले देखे जाते हैं, फिर इनका शोक क्यों करते हो।' -कृष्ण
कृष्ण की कहानी भारत और हिन्दू धर्म की संपूर्ण कहानी है। महाभारत को पढ़ना हिन्दू धर्म और भारत को पढ़ना है। हिन्दू मान्यता अनुसार विष्णु ने 8वें मनु वैवस्वत के मन्वंतर के 28वें द्वापर में 8वें अवतार श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागार में जन्म लिया था। उनका जन्म भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की रात्रि के 7 मुहूर्त निकल गए और 8वां उपस्थित हुआ तभी आधी रात के समय सबसे शुभ लग्न में हुआ। उस लग्न पर केवल शुभ ग्रहों की दृष्टि थी। रोहिणी नक्षत्र तथा अष्टमी तिथि के संयोग से जयंती नामक योग में ईसा से लगभग 3200 वर्ष पूर्व उनका जन्म हुआ। ज्योतिषियों के अनुसार उस समय शून्य काल (रात 12 बजे) था।
भगवान कृष्ण के जीवन को संपूर्ण जानने के लिए महाभारत, भागवत पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण आदि पढ़ें।
'हे धनंजय! मुझसे भिन्न दूसरा कोई भी परम कारण नहीं है। माया द्वारा जिनका ज्ञान हरा जा चुका है, ऐसे आसुर-स्वभाव को धारण किए हुए, मनुष्यों में नीच, दूषित कर्म करने वाले मूढ़ लोग मुझको नहीं भजते।' -गीता
1. महाभारत के बाद धीरे-धीरे धर्म का केंद्र तक्षशिला (पेशावर) से हटकर मगध के पाटलीपुत्र में आ गया। गर्ग संहिता में महाभारत के बाद के इतिहास का उल्लेख मिलता है। अयोध्या कुल के मनु की 94 पीढ़ी में बृहद्रथ राजा हुए। उनके वंश के राजा क्रमश: सोमाधि, श्रुतश्रव, अयुतायु, निरमित्र, सुकृत्त, बृहत्कर्मन्, सेनाजित, विभु, शुचि, क्षेम, सुव्रत, निवृति, त्रिनेत्र, महासेन, सुमति, अचल, सुनेत्र, सत्यजीत, वीरजीत और अरिञ्जय हुए। इन्होंने मगध पर क्षेम धर्म से पूर्व राज किया था।
4. बृहद्रथ (जरासंध) वंश के रूप में 3233 वि.पू. से रिपुंजय तक 2011 वि.पू. तक चला, शत्रुंजय के समय श्रीकृष्ण वंशी बज्रनाम का राज्य चला, बाद में यादवों के वंश मिथिला, मगध, विदर्भ, गौंडल, जैसलमेर, करौली, काठियावाड़, सतारा, दक्षिण मथुरा पांड्यदेश, पल्लव आदि विभिन्न खंडों में बिखर गए।
5. महाभारत के बाद कुरु वंश का अंतिम राजा निचक्षु था। पुराणों के अनुसार हस्तिनापुर नरेश निचक्षु ने, जो परीक्षित का वंशज (युधिष्ठिर से 7वीं पीढ़ी में) था, हस्तिनापुर के गंगा द्वारा बहा दिए जाने पर अपनी राजधानी वत्स देश की कौशांबी नगरी को बनाया। इसी वंश की 26वीं पीढ़ी में बुद्ध के समय में कौशांबी का राजा उदयन था। निचक्षु और कुरुओं के कुरुक्षेत्र से निकलने का उल्लेख शांख्यान श्रौतसूत्र में भी है।
6. शुनक वंशी प्रद्योत और उसके 5वें वशंधर नंदिवर्धन (1873 वि.पू.)।
अगले पन्ने पर पंद्रहवीं कहानी...
14.चंद्रगुप्त, चाणक्य और सम्राट अशोक की कहानी : चंद्रगुप्त और चाणक्य की कहानी उस काल के भारत के संपूर्ण इतिहास को प्रदर्शित करती है इसीलिए सभी भारतवासियों को चाणक्य और चंद्रगुप्त की कहानी के साथ ही सम्राट अशोक की जीवनगाथा का अध्ययन करना चाहिए।
अगले पन्ने पर सौलहवीं कहानी...
विक्रमादित्य की कहानी : चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य अवंतिका के राजा जरूर थे लेकिन उनका शासन संपूर्ण भारत पर था। उन्हीं के नाम पर विक्रमादित्य की उपाधि अन्य राजाओं को दी गई जिसमें चंद्रगुप्त द्वितीय और हेमू थे। विक्रम संवत अनुसार विक्रमादित्य आज से 2286 वर्ष पूर्व हुए थे।
विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। नाबोवाहन के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। कलि काल के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व सम्राट विक्रमादित्य का जन्म हुआ। उन्होंने 100 वर्ष तक राज किया। -(गीता प्रेस, गोरखपुर भविष्यपुराण, पृष्ठ 245)।
संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'