Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

ये चार चमत्कारिक वटवृक्ष, नहीं होते कभी नष्ट

हमें फॉलो करें ये चार चमत्कारिक वटवृक्ष, नहीं होते कभी नष्ट

अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

वैसे तो इस धरती पर करोड़ों वृक्ष हैं, लेकिन उनमें से कुछ वृक्ष ऐसे में भी हैं जो हजारों वर्षों से जिंदा है और कुछ ऐसे हैं जो चमत्कारिक हैं। कुछ ऐसे भी वृक्ष हैं जिन्हें किसी महत्वपूर्ण व्यक्ति ने हजारों वर्ष पहले लगाया था या उस व्यक्ति ने उस वृक्ष ने नीचे बैठकर ध्यान या समाधी लगाई थी।
हालांकि आज हम बात कर रहे हैं ऐसे चार वृक्षों के रहस्य के बारे में जिनका हिन्दू धर्म में बहुत ही महत्व है। उन वृक्षों के बारे में कम ही लोग जानते होंगे। यदि जानते भी होंगे तो उनके संबंध में क्या रहस्य है यह नहीं जानते होंगे। तो हम आपको आज बताएंगे कि उन  वृक्षों के बारे में क्या मान्यता जुड़ी हुई है और क्या है उनका सच।
 
अगले पन्ने पर पहला वृक्ष...
 

तीर्थदीपिका में पांच वटवृक्षों का वर्णिन मिलता है-
वृंदावने वटोवंशी प्रयागेय मनोरथा:।
गयायां अक्षयख्यातः कल्पस्तु पुरुषोत्तमे।।
निष्कुंभ खलु लंकायां मूलैकः पंचधावटः।
स्तेषु वटमूलेषु सदा तिष्ठति माधवः।।
त्रिवेणी माधवं सोमं भारद्वाजं च वासुकीम्, वंदे अक्षयवटं शेषं प्रयाग: तीर्थ नायकम्।
 
webdunia
अमर है अक्षयवट : जैसा की इसका नाम ही है अक्षय। अक्षय का अर्थ होता है जिसका कभी क्षय न हो, जिसे कभी नष्ट न किया जा सके। इसीलिए इस वृक्ष को अक्षय वट कहते हैं। वट का अर्थ बरगद, बढ़ आदि। इस वृक्ष को मनोरथ वृक्ष भी कहते हैं अर्थात मोक्ष देने वाला या मनोकामना पूर्ण करने वाला। यह वृक्ष प्रयाग में स्थित है। हिन्दुओं के पवित्र तीर्थों के नाम बदलने के दौरा में प्रयाग का नाम बदलकर मुगल बादशाह अकबर ने अल्लाहबाद कर दिया था जो बिगड़कर इलाहाबाद हो गया। यह वृक्ष इलाबाद के संगम तट पर हजारों वर्षों से स्थित है।
 
5267 वर्ष पुराने है वृक्ष : पुरात्व विज्ञान के वैज्ञानिक शोध के अनुसार इस वृक्ष की रासायनिक उम्र 3250 ईसा पूर्व की बताई जाती है अर्थात 3250+2017=5267 वर्ष का यह वृक्ष है। पर्याप्त सुरक्षा के बीच संगम के निकट किले में अक्षय वट की एक डाल के दर्शन कराए जाते हैं। पूरा पेड़ कभी नहीं दिखाया जाता। सप्ताह में दो दिन, अक्षय वट के दर्शन के लिए द्वार खोले जाते हैं। हालांकि देखरेख के अभाव में अब यह वृक्ष सूखने लगा है।
 
अक्षय वट और इतिहासकार : अक्षयवट का जिक्र पुराणों में भी मिलता है लेकिन यह कहना आसान नहीं कि यह वही वृक्ष है या कि कोई दूसरा। सन 1030 में अलबरूनी ने इसे प्रयाग का पेड़ बताते हुए लिखा कि इस अजीबोगरीब पेड़ की कुछ शाखाएँ ऊपर की तरफ और कुछ नीचे की तरफ जा रही हैं। इनमें पत्तियां नहीं हैं। 11वीं शताब्दी में समकालीन इतिहासकार मेहमूद गरदीजी ने लिखा है कि एक बड़ा सा वट वृक्ष गंगा-यमुना तट पर स्थित है, जिस पर चढ़कर लोग आत्महत्या करते हैं। 13वीं शताब्दी में जामी-उत-तवारीख के लेखक फजलैउल्लाह रशीउद्दीन अब्दुल खैर भी इस पेड़ पर चढ़कर आत्महत्याएँ किए जाने का जिक्र करते हैं। अकबर के समकालीन इतिहासकार बदायूनी ने भी लिखा है कि तमाम काफिर लोग मोक्ष की आस में इस वृक्ष पर चढ़कर नदी में कूदकर खुदकुशी कर लेते हैं। संभवत: इसी कारण इस वृक्ष को सातवीं शताब्दी में व्हेनत्सांग की यात्रा के संस्मरण को आधार बनाकर इतिहासकार वाटर्स ने 'आदमखोर वृक्ष' की संज्ञा दी थी।
 
अकबर ने इस वृक्ष और इससे लगे मंदिर के आसपास एक किला बनाने की सोच और इसी के चललते उसने मंदिरों को तोड़ दिया लेकिन वृक्ष को रहने दिया। हिन्दुओं की इस वृक्ष से आस्था जुड़ी होने के कारण प्राचीन वृक्ष का तना पातालपुरी में स्थापित कर दिया गया। बाद में जब इस स्थान को लोगों के लिए खोला गया तो उसे पातालपुरी नाम दिया गया। जिस जगह पर अक्षयवट था वहां पर रानीमहल बन गया। आज सामान्य जन उसी पातालपुरी के अक्षयवट के दर्शन करते हैं जबकि असली अक्षयवट आज भी किले के भीतर मौजूद है। 
 
व्हेनत्सांग 643 ईस्वी में प्रयाग आया था तो उसने लिखा- नगर में एक देव मंदिर है जो अपनी सजावट और विलक्षण चमत्कारों के लिए विख्‍यात है।  इसके विषय में प्रसिद्ध है कि जो कोई यहां  एक पैसा चढ़ाता है वह मानो और तीर्थ स्थानों में सहस्र स्वर्ण मुद्राएंं  चढ़ाने जैसा है और यदि यहां आत्मघात द्वारा कोई अपने प्राण विसर्जन कर दे तो वह सदैव के लिए स्वर्ग चला जाता है। मंदिर के आंगन में एक विशाल वृक्ष है जिसकी शाखाएं और पत्तियां बड़े क्षेत्र तक फैली हुई हैं। इसकी सघन छाया में दाईं और बाईं ओर स्वर्ग की लालसा में इस वृक्ष से गिरकर अपने प्राण दे चुके लोगों की अस्थियों के ढेर लगे हैं।
 
वृक्ष को नष्ट करने के अनेक प्रयास हुए : पठान राजाओं और उनके पूर्वजों ने भी इसे नष्ट करने की असफल कोशिशें की हैं। जहांगीर ने भी ऐसा किया है लेकिन पेड़ पुनर्जीवित हो गया और नई शाखाएं निकल आईं। वर्ष 1693 में खुलासत उत्वारीख ग्रंथ में भी इसका उल्लेख है कि जहांगीर के आदेश पर इस अक्षयवट को काट दिया गया था लेकिन वह फिर उग आया। औरंगजेब ने इस वृक्ष को नष्ट करने के बहुत प्रयास किए। इसे खुदवाया, जलवाया, इसकी जड़ों में तेजाब तक डलवाया। किन्तु वर प्राप्त यह अक्षयवट आज भी विराजमान है। आज भी औरंगजेब के द्वारा जलाने के चिन्ह देखे जा सकते हैं।
 
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में इतिहास के प्रोफेसर योगेश्वर तिवारी अक्षयवट को नष्ट करने और इसके पुन: जीवित होने संबंधी ऐतिहासिक तथ्यों में सत्यता पाते हैं और उसे सही भी ठहराते हैं। दरअसल, इस वृक्ष की जड़ें इतने गहरी गई है जिसे जानना मुश्किल है। 
 
धार्मिक महत्व :  द्वादश माधव के अनुसार बालमुकुन्द माधव इसी अक्षयवट में विराजमान हैं। यह वही स्थान है जहाँ माता सीता ने गंगा की प्रार्थना की थी और जैन धर्म के पद्माचार्य की उपासना पूरी हुई थी। पृथ्वी को बचाने के लिए भगवान ब्रह्मा ने यहां पर एक बहुत बड़ा यज्ञ किया था। इस यज्ञ में वह स्वयं पुरोहित, भगवान विष्णु यजमान एवं भगवान शिव उस यज्ञ के देवता बने थे।  तब अंत में तीनों देवताओं ने अपनी शक्ति पुंज के द्वारा पृथ्वी के पाप बोझ को हल्का करने के लिए एक 'वृक्ष' उत्पन्न किया। यह एक बरगद का वृक्ष था जिसे आज अक्षयवट के नाम से जाना जाता है। यह आज भी विद्यमान है।
 
श्रीराम से जुड़ी कथा :  प्रयाग के दक्षिणी तट पर झूंसी नामक स्थान है जिसका प्राचीन नाम पुरुरवा था। कालांतर में इसका नाम उलटा प्रदेश पड़ गया। फिर बिगड़ते बिगड़ते झूंसी हो गया। उल्टा प्रदेश पड़ने का कारण यह है कि यहां शाप के चलते सब कुछ उल्टा पुल्टा था। यहां के महल की छत नीचे बनी है जो आज भी है। इसकी खिड़कियां ऊपर तथा रोशन दान नीचे बने हैं। यानी कि सब कुछ उलटा। मान्यता अनुसार उलटा प्रदेश इसलिए पड़ा, क्योंकि यहां भगवान शिव अपनी पत्नीं पार्वती के साथ एकांत वास करते थे तथा यहां के लिए यह शाप था कि जो भी व्यक्ति इस जंगल में प्रवेश करेगा वह औरत बन जाएगा। मतलब उल्टा होगा।
 
त्रेतायुग में श्रीराम को जब अपनी माता कैकेयी के शाप से वनवास हुआ तो उनके कुल पुरुष भगवान सूर्य बड़े ही दुखी हुए। उन्होंने हनुमान जी को आदेश दिया कि वनवास के दौरान राम को होने वाली कठिनाईयों में सहायता करोगे। चूंकि हनुमान ने भगवान सूर्य से ही शिक्षा दीक्षा ग्रहण की थी। अतः अपने गुरु का आदेश मान कर वह प्रयाग में संगम के तट पर आकर उनका इंतजार करने लगे। कारण यह था कि वह किसी स्त्री को लांघ नहीं सकते थे। गंगा, यमुना एवं सरस्वती तीनो नदियां ही थी। इसलिए उनको न लांघते हुए वह संगम के परम पावन तट पर भगवान राम की प्रतीक्षा करने लगे।
 
जब भगवान राम अयोध्या से चले तो उनको इस झूंसी या उलटा प्रदेश से होकर ही गुजरना पड़ता, लेकिन प्रचलित मान्यता अनुसार शिव के शाप के कारण उन्हें स्त्री बनना पड़ता। इसलिए उन्होंने रास्ता ही बदल दिया। एक और भी कारण भगवान राम के रास्ता बदलने का पड़ा। यदि वह सीधे गंगा को पार करते तो यहां पर प्रतीक्षा करते हनुमान सीधे उनको लेकर दंडकारण्य उड़ जाते तथा बीच रास्ते में अहिल्या उद्धार, शबरी उद्धार तथा तड़का संहार आदि कार्य छूट जाते। यही सोच कर भगवान श्रीराम ने रास्ता बदलते हुए श्रीन्गवेर पुर से गंगाजी को पार किया। चूंकि भगवान श्रीराम के लिए शर्त थी कि वह वनवास के दौरान किसी गांव में प्रवेश नहीं करेगें तो उन्होंने इस शर्त को भी पूरा कर दिया।
 
इस बात को प्रयाग में तपस्यारत महर्षि भारद्वाज भली भांति जानते थे। वह भगवान श्रीराम की अगवानी करने के पहले ही श्रीन्गवेरपुर पहुंच गए, भगवान राम ने पूछा कि हे महर्षि! मैं रात को कहां विश्राम करूं? महर्षि ने बताया कि एक वटवृक्ष है। हम चल कर उससे पूछते हैं कि वह अपनी छाया में ठहरने की अनुमति देगा या नहीं। कारण यह है कि तुम्हारी माता कैकेयी के भय से कोई भी अपने यहां तुमको ठहरने की अनुमति नहीं देगा। सबको यह भय है कि कही अगर वह तुमको ठहरा लिया, तथा कैकेयी को पता चल गाया तो वह राजा दशरथ से कहकर दंड दिलवा देगी। इस प्रकार भगवान राम को लेकर महर्षि भारद्वाज उस वटवृक्ष के पास पहुंचे।
 
भगवान राम ने उनसे पूछा कि क्या वह अपनी छाया में रात बिताने की अनुमति देगें। इस पर उस वटवृक्ष ने पूछा कि मेरी छाया में दिन-रात पता नहीं कितने लोग आते एवं रात्री विश्राम करते हैं लेकिन कोई भी मुझसे यह अनुमति नहीं मांगता। क्या कारण है कि आप मुझसे अनुमति मांग रहे हैं? महर्षि ने पूरी बात बताई। वटवृक्ष ने कहा, 'हे ऋषिवर! यदि किसी के दुःख में सहायता करना पाप है। किसी के कष्ट में भाग लेकर उसके दुःख को कम करना अपराध है तो मैं यह पाप और अपराध करने के लिये तैयार हूं। आप निश्चिन्त होकर यहां विश्राम कर सकते हैं और जब तक इच्छा हो रह सकते हैं।' यह बात सुन कर भगवान राम बोले 'हे वटवृक्ष! ऐसी सोच तो किसी मनुष्य या देवता में भी बड़ी कठनाई से मिलती है। आप वृक्ष होकर यदि इतनी महान सोच रखते हैं तो आप आज से वटवृक्ष नहीं बल्कि 'अक्षय वट' हो जाओ। जो भी तुम्हारी छाया में क्षण मात्र भी समय बिताएगा उसे अक्षय पुण्य फल प्राप्त होगा और तब से यह वृक्ष पुराण एवं जग प्रसिद्ध अक्षय वट (Immoratl Tree) के नाम से प्रसिद्ध होकर आज भी संगम के परम पावन तट पर स्थित है।
 
संदर्भ ग्रंथ- श्रीमद्भागवत पुराण, वाल्मीकि रामायण, शिव पुराण, संग पो दियान्गहू (चमत्कारी पेड़), आदि पुराण (जैन धर्म), भारद्वाज स्मृति आदि।
 
अगले पन्ने पर दूसरा वृक्ष...
 

सिद्धवट  : उज्जैन के भैरवगढ़ के पूर्व में शिप्रा के तट पर प्रचीन सिद्धवट का स्थान है। इसे शक्तिभेद तीर्थ के नाम से जाना जाता है। हिंदू पुराणों में इस स्थान की महिमा का वर्णन किया गया है। हिंदू मान्यता अनुसार चार वट वृक्षों का महत्व अधिक है। अक्षयवट, वंशीवट, गयावट और सिद्धवट के बारे में कहा जाता है कि इनकी प्राचीनता के बारे में कोई नहीं जानता।
 
webdunia
संसार में केवल चार ही पवित्र वट वृक्ष हैं। प्रयाग (इलाहाबाद) में अक्षयवट, मथुरा-वृंदावन में वंशीवट, गया में गयावट जिसे बौधवट भी कहा जाता है और यहां उज्जैन में पवित्र सिद्धवट हैं। नासिक के पंचववटी क्षेत्र में सीता माता की गुफा के पास पांच प्राचीन वृक्ष है जिन्हें पंचवट के नाम से जाना जाता है। वनवानस के दौरान राम, लक्ष्मण और सीता ने यहां कुछ समय बिताया था। इन वृक्षों का भी धार्मिक महत्व है। उक्त सारे वट वक्षों की रोचक कहानियां हैं। मुगल काल में इन वृक्षों को खतम करने के कई प्रयास हुए।
 
सिद्धवट के पुजारी ने कहा कि स्कंद पुराण अनुसार पार्वती माता द्वारा लगाए गए इस वट की शिव के रूप में पूजा होती है। मां पार्वती ने शिव को पतिरूप में पाने के लिए यहीं पर इस वृक्ष को लगाकर तपस्या की थी। माता की तपस्या से प्रसन्न होकर शिव ने प्रकट होकर पार्वती माता को पत्नी रूप में स्वीकार ही नहीं किया बल्कि यह वरदान भी दिया कि जो कोई इस वटवृक्ष पर दूध चढ़ाएगा उसे मेरा आशीर्वाद मिलेगा और उसके पितरों को मोक्ष। कहते हैं कि तारकासुर के वध के लिए इसी वट के नीचे पार्वती के पुत्र कार्तिक स्वामी ने घोर तप किया और फिर उन्हें यहीं पर सेनापति नियुक्त किया गया था। बाद में इस वटवृक्ष के भगवान शिव से सिद्धवट घोषित कर उसके युगो युगो तक बने रहने का वरदान दिया।
 
यहां तीन तरह की सिद्धि होती है संतति, संपत्ति और सद्‍गति। तीनों की प्राप्ति के लिए यहां पूजन किया जाता है। सद्‍गति अर्थात पितरों के लिए अनुष्ठान किया जाता है। संपत्ति अर्थात लक्ष्मी कार्य के लिए वृक्ष पर रक्षा सूत्र बांधा जाता है और संतति अर्थात पुत्र की प्राप्ति के लिए उल्टा सातिया (स्वस्विक) बनाया जाता है। यह वृक्ष तीनों प्रकार की सिद्धि देता है इसीलिए इसे सिद्धवट कहा जाता है। स्थानीय लोगों का मानना है कि देवी पार्वती ने इस जगह पर तपस्या की थी। स्कंद पुराण में इसको कल्पवृक्ष भी कहा गया है। यह पितृमोक्ष का तीर्थ बताया गया है।
 
पंडित नागेश्वर कन्हैन्यालाल ने कहा कि यहां पर नागबलि, नारायण बलि-विधान का विशेष महत्व है। संपत्ति, संतित और सद्‍गति की सिद्धि के कार्य होते हैं। यहां पर कालसर्प शांति का विशेष महत्व है, इसीलिए कालसर्प दोष की भी पूजा होती है। कालसर्प दोष का निदान कराने आईं पुना की श्वेता उपाध्याय ने कहा कि मेरी जन्मकुंडली में कालसर्प दोष था। हमें पता चला कि यहां कालसर्प दोष का निदान होता है तो मैं यहां पर दोष का निवारण कराने आई हूं। वर्तमान में इस सिद्धवट को कर्मकांड, मोक्षकर्म, पिंडदान, कालसर्प दोष पूजा एवं अंत्येष्टि के लिए प्रमुख स्थान माना जाता है। यह यात्रा आपकों कैसी लगी हमें जरूर बताएं।
 
अगले पन्ने पर तीसरा वृक्ष...
 
webdunia
वंशीवट में से आती है मृदंग की आवाज : वंशीवट मथुरा जिले में वृंदावन के यमुना के किनारे स्थित है। यहां इसी स्थान पर द्वापर युग में श्रीकृष्ण अपने बालपल में खेला करते थे और गायों को चराते हुए विश्राम करते थे। इसी स्थान पर रास बिहारी ने तरह-तरह की लीलाएं कीं। 
 
तहसील मांट मुख्यालय से एक किमी दूर यमुना किनारे यह वह स्थान है जहां पर कन्हैया नित्य गाय चराने जाते थे। बेणुवादन, दावानल का पान, प्रलम्बासुर का वध तथा नित्य रासलीला करने के साक्षी ररहे इस वट का नाम वंशीवट इसलिए पड़ा क्योंकि इसकी शाखाओं पर बैठकर श्रीकृष्ण वंशी बजाते थे और गोपियों को रिझाते थे।
 
माना जाता है कि इस वटवृक्ष से आज भी कान लगाकर ध्यान से सुनने पर आपको ढोल, मृदंग और वंशी की आवाज सुनाई देगी। हालांकि दुख की बात है कि स्थानीय प्रशासन ने इस पौराणिक धरोहर को संजोने के लिए किसी भी प्रकार का कोई कदम नहीं उठाया है। वंशीवट को देखने हर साल बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं।
 
अगले पन्ने पर चौथा वट...
 

गया का वटवृक्ष : उज्जैन के सिद्ध वट के बाद यहां गया में गया वट के पास पितरों का पिंडदान किया जाता है। श्राद्ध, तर्पण एवं पिंडदान की नगरी गया में एक अति प्राचीन और विशाल वटवृक्ष हैं जिसे गयावृक्ष कहा जाता है। गया का नाम गयासुर नामक एक असुर पर रखा गया था। वर्तमान में इस वृक्ष को बोधिवृक्ष कहते हैं। बोधगया मुख्य मार्ग पर माढ़नपुर से थोड़ी दूरी पर चाहरदीवारी से घिरे विस्तृत पक्के आंगन के मध्य शोभायमान है यह वटवृक्ष।
 
webdunia
मान्यता है कि गया वृक्ष का रोपण भगवान ब्रह्मा ने स्वर्ग से लाकर किया था। मुक्तिप्रद तीर्थ गया में जिस स्थान पर अंतिम पिंड होता है वह गयावट ही है। कुछ लोग इस अक्षयवट इसलिए कहते हैं क्योंकि यह भी अक्षय है। विशाल जड़ों से युक्त बड़े क्षेत्र में विस्तृत गयावट के प्रथम दर्शन से ही इसकी प्राचीनता का सहज अनुमान लग जाता है। मगध की श्रेष्ठ धरोहर श्रीविष्णुपद मंदिर और ब्रह्मयोनि पर्वत के साथ-साथ आदि शक्तिपीठ महामाया मंगला गौरी के एक सीध में स्थित गयावट के पास वृद्ध प्रपिता माहेश्वर मंदिर, रुक्मणी तालाब, गदालोल दधिकुल्या और मधुकुल्या तीर्थ वेदी प्रमुख हैं।
 
गया वट की कथा : जनश्रुति अनुसार त्रेतायुग में भगवान श्रीराम अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता के साथ गया में अपने पिता दशरथ का श्राद्धकर्म करने के लिए आए थे। श्राद्ध कर्म के दौरान श्रीराम और लक्ष्मण कुछ सामान लेने चले गए थे इतने में ही राजा दशरथ प्रकट हुए और दोनों पुत्रों की अनुपस्थिति में सीता को ही पिंडदान करने का निर्देश दिया।
 
माता सीता ने फल्गु नदी, गाय, वटवृक्ष और केतकी के फूल को साक्षी मानकर पिंडदान कर दिया। बाद में जब भगवान श्रीराम लौटे तो उन्हें पूरा घटनाक्रम बताया गया लेकिन उन्हें इस पर सहज ही विश्वास नहीं हुआ। ऐसे में माता सीता ने जिन्हें साक्षी मानकर पिंडदान किया था, उन सबको सामने आकर सच बताने को कहा। पंडा (जिसने पिंडदान करवाया), फल्गु नदी, गाय और केतकी फूल ने असत्य बोल दिया, परन्तु वटवृक्ष ने सच बोलकर माता सीता की लाज रख ली। ऐसे में माता सीता ने फल्गु को बिना पानी की नदी, गाय के गोबर को शुद्ध तथा केतकी फूल को शुभकार्यो से वंचित होने का शाप दे दिया परन्तु वटवृक्ष को अक्षय रहने का वरदान दिया। 
 
गया तीर्थ में श्राद्ध की मुख्य विधि में मुख्य रूप से तीन कार्य होते हैं, पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोज। दक्षिणाविमुख होकर आचमन कर अपने जनेऊ को दाएं कंधे पर रखकर चावल, गाय का दूध, घी, शक्कर एवं शहद को मिलाकर बने पिंडों को श्रद्धा भाव के साथ अपने पितरों को अर्पित करना पिंडदान कहलाता है। जल में काले तिल, जौ, कुशा एवं सफेद फूल मिलाकर उससे विधिपूर्वक तर्पण किया जाता है। मान्यता है कि इससे पितृ तृप्त होते हैं। इसके बाद ब्राह्मण भोज कराया जाता है। पंडों के मुताबिक शास्त्रों में पितृ का स्थान बहुत ऊंचा बताया गया है। उन्हें चंद्रमा से भी दूर और देवताओं से भी ऊंचे स्थान पर रहने वाला बताया गया है।  
 
पितृ की श्रेणी में मृत पूर्वजों, माता, पिता, दादा, दादी, नाना, नानीसहित सभी पूर्वज शामिल होते हैं। व्यापक दृष्टि से मृत गुरू और आचार्य भी पितृ की श्रेणी में आते हैं। कहा जाता है कि गया में पहले विभिन्न नामों के 360 वेदियां थीं जहां पिंडदान किया जाता था। इनमें से अब 48 ही बची है। वैसे कई धार्मिक संस्थाएं उन पुरानी वेदियों की खोज की मांग कर रही है। वर्तमान समय में इन्हीं वेदियों पर लोग पितरों का तर्पण और पिंडदान करते हैं।   यहां की वेदियों में विष्णुपद मंदिर, फल्गु नदी के किनारे और अक्षयवट पर पिंडदान करना जरूरी माना जाता है।  इसके अतिरिक्त वैतरणी, प्रेतशिला, सीताकुंड, नागकुंड, पांडुशिला, रामशिला, मंगलागौरी, कागबलि आदि भी पिंडदान के लिए प्रमुख है। यही कारण है कि देश में श्राद्घ के लिए 55 स्थानों को महत्वपूर्ण माना गया है जिसमें बिहार के गया का स्थान सर्वोपरि है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

मकर संक्रांति पर हिन्दी निबंध