सिंधु घाटी के लोग बहुत सभ्य थे। वे नगरों के निर्माण से लेकर जहाज आदि सभी कुछ बनाना जानते थे। सिंधु सभ्यता एक स्थापित सभ्यता थी। उक्त स्थलों से प्राप्त अवशेषों से पता चलता है कि यहां के लोग दूर तक व्यापार करने जाते थे और यहां पर दूर-दूर के व्यापारी भी आते थे। आठ हजार वर्ष पूर्व सिंधु घाटी सभ्यता के लोग धर्म, ज्योतिष और विज्ञान की अच्छी समझ रखते थे। इस काल के लोग जहाज, रथ, बेलगाड़ी आदि यातायात के साधनों का अच्छे से उपयोग करना सीख गए थे। सिंधु सभ्यता के लोगों को ही आर्य द्रविड़ कहा जाता है। आर्य और द्रविड़ में किसी भी प्रकार का फर्क नहीं है यह डीएनए और पुरातात्विक शोध से सिद्ध हो चुका है।
सिंधु घाटी की मूर्तियों में बैल की आकृतियों वाली मूर्ति को भगवान ऋषभनाथ जोड़कर इसलिए देखा जाता। यहां से प्राप्त ग्रेनाइट पत्थर की एक नग्न मूर्ति भी जैन धर्म से संबंधित मानी जाती है। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त मोहरों में जो मुद्रा अंकित है, वह मथुरा की ऋषभदेव की मूर्ति के समान है व मुद्रा के नीचे ऋषभदेव का सूचक बैल का चिह्न भी मिलता है।
मुद्रा के चित्रण को चक्रवर्ती सम्राट भरत से जोड़कर देखा जाता है। इसमें दांई ओर नग्न कायोत्सर्ग मुद्रा में भगवान ऋषभदेव हैं जिनके शिरोभाग पर एक त्रिशूल है जो त्रि-रत्नत्रय जीवन का प्रतीक है। निकट ही शीश झुकाए उनके ज्येष्ठ पुत्र चक्रवर्ती भरत हैं जो उष्णीब धारण किए हुए राजसी ठाठ में हैं। भरत के पीछे एक बैल हैं जो ऋषभनाथ का चिन्ह है। अधोभाग में सात प्रधान अमात्य हैं। हालांकि हिन्दू मान्यता अनुसार इस मुद्रा में राजा दक्ष का सिर भगवान शंकर के सामने रखा है और उस सिर के पास वीरभद्र शीश झुकाए बैठे हैं। यह सती के यज्ञ में दाह होने के बाद का चित्रण है।
सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए हैं और मोहनजोदड़ो सभ्यता की खुदाई में प्राप्त भवनों में दीपकों को रखने हेतु ताख बनाए गए थे व मुख्य द्वार को प्रकाशित करने हेतु आलों की शृंखला थी। मोहनजोदड़ो सभ्यता के प्राप्त अवशेषों में मिट्टी की एक मूर्ति के अनुसार उस समय भी दीपावली मनाई जाती थी। उस मूर्ति में मातृ-देवी के दोनों ओर दीप जलते दिखाई देते हैं। इससे यह सिद्ध स्वत: ही हो जाता है कि यह सभ्यता हिन्दू आर्यों की ही सभ्यता थी।