'रामायण' का शब्दार्थ है- राम का ‘अयण' अर्थात ‘भ्रमण'। वाल्मीकि रामायण और उसके समकालीन ग्रंथों में ‘इतिहास' को ‘पुरावृत्त' कहा गया है। कालिदास के ‘रघुवंश' में विश्वामित्र श्रीराम को पुरावृत्त सुनाते हैं। मार्क्सवादी चिंतक डॉ.रामविलास शर्मा ने रामायण को महाकाव्यात्मक इतिहास की श्रेणी में रखा है। रामायण और महाभारत में विज्ञानसम्मत अनेक सूत्र व स्रोत मौजूद हैं। रामायण काल को लगभग 7323 ईसा पूर्व अर्थात आज से लगभग 9339 वर्ष पूर्व का बताया है, जबकि भगवान श्रीराम का जन्म 5114 ईसा पूर्व चैत्र मास की नवमी को हुआ था।
इतिहास तथ्य और घटनाओं के साथ मानव की विकास यात्रा की खोज भी है। यह तय है कि मानव अपने विकास के अनुक्रम में ही वैज्ञानिक अनुसंधानों से सायास-अनायास जुड़ता रहा और आगे बढ़ता रहा है। रामायण काल में कई वैज्ञानिक थे। नल, नील, मय दानव, विश्वकर्मा, अग्निवेश, सुबाहू, ऋषि अगत्स्य, वशिष्ठ, विश्वामित्र आदि कई वैज्ञानिक थे।
रामायण के काल को आर्यों के प्रारंभिक काल से जोड़ा जाता है। ऋग्वेद के लेखन-संपादन काल के समय संस्कृत भाषायी विकास के शिखर पर थी। रामायण काल में जो वैज्ञानिक उपलब्धियां या आविष्कार हासिल किए गए थे, वे सभी महाभारत काल में चरमोत्कर्ष पर थे।
रामायण भारत के जीवन का वृत्तांतभर नहीं है। इसमें कौटुम्बिक सांसारिकता है। राष्ट्रीयता, शासन और समाज संचालन के कूट-सूत्र हैं। भूगोल, वनस्पति और जीव-जगत हैं। अस्त्र-शस्त्र और यौद्धिक कौशल के गुण हैं। भौतिकवाद और अध्यात्मवाद के बीच संतुलन है। षठ दर्शन और अनेक वैज्ञानिक उपलब्धियां हैं। वाल्मीकि ने अपने ग्रंथ में वे सारी बातें समाहित करने का प्रयास किया, जो उस काल में प्रचलित थीं।
आओ जानते हैं कि आज से लगभग 10,000 वर्ष पूर्व हुए भगवान राम के काल में कौन-कौन-से ऐसे आविष्कार हो चुके थे, जो वर्तमान के आधुनिक काल में भी प्रचलित हैं।
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विमान : रामायण के अनुसार रावण के पास कई लड़ाकू विमान थे। पुष्पक विमान के निर्माता ब्रह्मा थे। ब्रह्मा ने यह विमान कुबेर को भेंट किया था। कुबेर से इसे रावण ने छीन लिया। रावण की मृत्यु के बाद विभीषण इसका अधिपति बना और उसने फिर से इसे कुबेर को दे दिया। कुबेर ने इसे राम को उपहार में दे दिया। राम लंका विजय के बाद अयोध्या इसी विमान से पहुंचे थे।
उल्लेखनीय है कि लंका में लड़ाकू विमानों की व्यवस्था प्रहस्त के सुपुर्द थी। यानों में ईंधन की व्यवस्था प्रहस्त ही देखता था। लंका में सूरजमुखी पौधे के फूलों से तेल (पेट्रोल) निकाला जाता था (अमेरिका में वर्तमान में जेट्रोफा पौधे से पेट्रोल निकाला जाता है।) अब भारत में भी रतनजोत के पौधे से तेल बनाए जाने की प्रक्रिया में तेजी आई है। लंकावासी तेलशोधन में निरंतर लगे रहते थे।
वाल्मीकि रामायण के अनुसार पुष्पक विमान मोर जैसी आकृति का आकाशचारी विमान था, जो अग्नि-वायु की समन्वयी ऊर्जा से चलता था। इसकी गति तीव्र थी और चालक की इच्छानुसार इसे किसी भी दिशा में गतिशील रखा जा सकता था। इसे छोटा-बड़ा भी किया जा सकता था। यह सभी ऋतुओं में आरामदायक यानी वातानुकूलित था। इसमें स्वर्ण खंभ मणिनिर्मित दरवाजे, मणि-स्वर्णमय सीढ़ियां, वेदियां (आसन) गुप्त गृह, अट्टालिकाएं (कैबिन) तथा नीलम से निर्मित सिंहासन (कुर्सियां) थे। अनेक प्रकार के चित्र एवं जालियों से यह सुसज्जित था। यह दिन और रात दोनों समय गतिमान रहने में समर्थ था।
तकनीकी दृष्टि से पुष्पक में इतनी खूबियां थीं, जो वर्तमान विमानों में नहीं हैं। ताजा शोधों से पता चला है कि यदि उस युग का पुष्पक या अन्य विमान आज आकाश गमन कर ले तो उनके विद्युत-चुंबकीय प्रभाव से मौजूदा विद्युत व संचार जैसी व्यवस्थाएं ध्वस्त हो जाएंगी। पुष्पक विमान के बारे में यह भी पता चला है कि वह उसी व्यक्ति से संचालित होता था जिसने विमान संचालन से संबंधित मंत्र सिद्ध किया हो, मसलन जिसके हाथ में विमान को संचालित करने वाला रिमोट हो।
शोधकर्ता भी इसे कंपन तकनीक (वाइब्रेशन टेक्नोलॉजी) से जोड़कर देख रहे हैं। पुष्पक की एक विलक्षणता यह भी थी कि वह केवल एक स्थान से दूसरे स्थान तक ही उड़ान नहीं भरता था, बल्कि एक ग्रह से दूसरे ग्रह तक आवागमन में भी सक्षम था यानी यह अंतरिक्ष यान की क्षमताओं से भी युक्त था। इस विवरण से जाहिर होता है कि यह उन्नत प्रौद्योगिकी और वास्तुकला का अनूठा नमूना था।
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नाव और जलपोत : तथाकथित इतिहासकार यह नहीं जानते कि भारत में ही जलपोतों का आविष्कार हुआ था। पहली बार भारत ने ही नदी में नाव और समुद्र में जहाजों को उतारा था।
रामायण के अनुसार रावण के पास वायुयानों के साथ ही कई समुद्र जलपोत भी थे। रामायण में केवट प्रसंग आता है। राम को जब वनवास हुआ तो वाल्मीकि रामायण और शोधकर्ताओं के अनुसार वे सबसे पहले तमसा नदी पहुंचे, जो अयोध्या से 20 किमी दूर है। इसके बाद उन्होंने गोमती नदी पार की और प्रयागराज (इलाहाबाद) से 20-22 किलोमीटर दूर वे श्रृंगवेरपुर पहुंचे, जो निषादराज गुह का राज्य था। यहीं पर गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था।
नौवहन की कला और नौवहन का जन्म 6,000 वर्ष पहले सिन्ध नदी में हुआ था। दुनिया का सबसे पहला नौवहन संस्कृत शब्द 'नवगति' से उत्पन्न हुआ है। शब्द 'नौसेना' भी संस्कृत शब्द 'नोउ' से उत्पन्न हुआ।
कुछ विद्वानों का मत है कि भारत और शत्तेल अरब की खाड़ी तथा फरात (Euphrates) नदी पर बसे प्राचीन खल्द (Chaldea) देश के बीच ईसा से 3,000 वर्ष पूर्व जहाजों से आवागमन होता था। भारत के प्राचीनतम ग्रंथ ऋग्वेद में जहाज और समुद्र यात्रा के अनेक उल्लेख हैं (ऋग. 1.25.7, 1.48.3, 1.56.2, 7.88.3-4 इत्यादि)। याज्ञवल्क्य सहिता, मार्कंडेय तथा अन्य पुराणों में भी अनेक स्थलों पर जहाजों तथा समुद्र यात्रा संबंधित कथाएं और वार्ताएं हैं। मनु संहिता में जहाज के यात्रियों से संबंधित नियमों का वर्णन है।
ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी में भारत अभियान से लौटते समय सिकंदर महान के सेनापति निआर्कस (Nearchus) ने अपनी सेना को समुद्र मार्ग से स्वदेश भेजने के लिए भारतीय जहाजों का बेड़ा एकत्रित किया था। ईसा पूर्व द्वितीय शताब्दी में निर्मित सांची स्तूप के पूर्व तथा पश्चिमी द्वारों पर अन्य मूर्तियों के मध्य जहाजों की प्रतिकृतियां भी हैं।
भारतवासी जहाजों पर चढ़कर जलयुद्ध करते थे। यह ज्ञात वैदिक साहित्य में तुग्र ऋषि के उपाख्यान से, रामायण में कैवर्तों की कथा से तथा लोक साहित्य में रघु की दिग्विजय से स्पष्ट हो जाती है।
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शतरंज की उत्पत्ति : शतरंज के आविष्कार का श्रेय भारत को ही जाता है, क्योंकि प्राचीनकाल से ही इसे भारत में खेला जाता रहा है। इसका धर्मग्रंथों और प्राचीन भारतीय संस्कृत साहित्य में उल्लेख मिलता है। इस खेल की उत्पत्ति भारत में कब और कैसे हुई? यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। एक किंवदंती है कि इस खेल का आविष्कार लंका के राजा रावण की रानी मंदोदरी ने इस उद्देश्य से किया था कि उसका पति रावण अपना सारा समय युद्ध में व्यतीत न कर सके। एक पौराणिक मत यह भी है कि रावण के पुत्र मेघनाद की पत्नी ने इस खेल का प्रारंभ किया था।
7वीं शती के सुबंधु रचित 'वासवदत्ता' नामक संस्कृत ग्रंथ में भी इसका उल्लेख मिलता है। बाणभट्ट रचित हर्षचरित्र में भी 'चतुरंग' नाम से इस खेल का उल्लेख किया गया है। इससे स्पष्ट है कि यह एक राजसी खेल था। प्राचीनकाल में इसे 'चतुरंग' अर्थात 'सेना का खेल' कहा जाता था। 'चतुरंग' में 4 अंग होते थे- पैदल, अश्वारोही, रथ और गज। इसीलिए इस खेल के नियम बहुत कुछ युद्ध जैसी प्रथा पर आधारित हैं।
'अमरकोश’ के अनुसार इसका प्राचीन नाम ‘चतुरंगिनी’ था जिसका अर्थ 4 अंगों वाली सेना था। गुप्तकाल में इस खेल का बहुत प्रचलन था। पहले इस खेल का नाम 'चतुरंग' था, लेकिन 6ठी शताब्दी में फारसियों के प्रभाव के चलते इसे 'शतरंग' कहा जाने लगा। यह खेल ईरानियों के माध्यम से यूरोप में पहुंचा तो इसे चेस (Chess) कहा जाने लगा।
6ठी शताब्दी में यह खेल महाराज अन्नुश्रिवण के समय (531-579 ईस्वी) भारत से ईरान में लोकप्रिय हुआ, तब इसे ‘चतुरआंग’, ‘चतरांग’ और फिर कालांतर में अरबी भाषा में ‘शतरंज’ कहा जाने लगा।
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पतंग का आविष्कार : यह सोचने वाली बात है कि जिस देश में सर्वप्रथम विमानों का आविष्कार हुआ, वहां क्या पतंग, ग्लाइडर आदि का आविष्कार नहीं हुआ होगा?
तुलसीदासजी ने वाल्मीकि रामायण के आधार पर रामचरित मानस में भगवान श्रीराम के बाल्यकाल का वर्णन करते हुए कहा है कि भगवान श्रीराम ने भी पतंग उड़ाई थी। तमिल की तन्दनानरामायण में भी इस घटना का जिक्र किया गया है। अब सवाल यह उठता है कि पतंग का आविष्कार किसने किया?
तन्दनानरामायण के अनुसार मकर संक्रांति ही वह पावन दिन था, जब भगवान श्रीराम और हनुमानजी की मित्रता हुई। मकर संक्राति के दिन राम ने जब पतंग उड़ाई तो पतंग इन्द्रलोक में पहुंच गई थी।
पतंग को देखकर इन्द्र के पुत्र जयंत की पत्नी ने भगवान राम को देखने की इच्छा के कारण पतंग की डोर तोड़कर पतंग अपने पास रख ली थी। भगवान राम ने हनुमानजी से पतंग ढूंढकर लाने के लिए कहा। हनुमानजी इन्द्रलोक पहुंच गए। जयंत की पत्नी ने कहा कि जब तक वह राम को देखेगी नहीं, पतंग वापस नहीं देगी। हनुमानजी संदेश लेकर राम के पास पहुंच गए। भगवान राम ने कहा कि वनवास के दौरान जयंत की पत्नी को वे दर्शन देंगे। हनुमानजी राम का संदेश लेकर जयंत की पत्नी के पास पहुंचे। राम का आश्वासन पाकर जयंत की पत्नी ने पतंग वापस कर दी।
कुछ इतिहासकार मानते हैं कि बौद्धकाल में पतंग का प्रचलन चीन में हुआ और चीन के लोग भी पतंगबाजी करने लगे। मुगलकाल में पतंगबाजी का शौक परवान चढ़ गया था जिसके चलते यह प्रचारित किया गया कि सबसे पहली पतंग हकीम जालीनूस ने बनाई थी। कुछ हकीम लुकमान का भी नाम लेते हैं। लगभग 1,000 वर्ष पूर्व हुए संत नाम्बे के गीतों में पतंगों का जिक्र दर्ज है।
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अस्त्र और शस्त्र : राम-रावण युद्ध केवल धनुष-बाण और गदा-भाला जैसे अस्त्रों तक सीमित नहीं था। युद्ध के दौरान राम सेना पर सद्धासुर ने ऐसा विकट अस्त्र छोड़ा जिससे सुवेल पर्वत की चोटी को सागर में गिराते हुए सीधे दक्षिण भारत के गिरि को भी समुद्र में गिरा दिया था। सद्धासुर का अंत करने के लिए बिजली के आविष्कारक मुनि अगस्त्य ने सद्धासुर के ऊपर ब्रह्मास्त्र छुड़वाया था जिससे सद्धासुर और अनेक सैनिक तो मारे ही गए, लंका के शिव मंदिर भी विस्फोट के साथ ढहकर समुद्र में गिर गए थे।
जब रावण अपने अंत समय से पहले वेधशाला में दिव्य-रथ के निर्माण में लीन था तब अग्निवेश ने अग्नि गोले छोड़कर वेधशाला और उसके पूरे क्षेत्र को नष्ट करने की कोशिश की थी। इस विश्वयुद्ध में छोटे-मोटे अस्त्रों की तो कोई गिनती ही नहीं थी। ये अस्त्र भी विकट मारक क्षमता के थे।
लंका के द्वार पर ‘दारू पंच अस्त्र' स्थापित थे। इनका आविष्कार शुक्राचार्य भार्गव ने किया था जिसे ‘रुद्र कीर्तिमुख' का नाम भी दिया गया था। इस यंत्र की विशेषता थी कि जो गतिविधि शत्रु करता था उसका पूरा चित्र इस यंत्र पर उभर आता था और इसके मुख से अग्नि गोला निकलता और शत्रु का संहार करता। यह कीर्तिमुख संभवत: यंत्र मानव था।
शंबूक ने ‘सूर्यहास खड्ग' का अपनी वेधशाला में आविष्कार किया था। इस खड़्ग में सौर ऊर्जा के संग्रहण की क्षमता थी। जैसे ही इनका प्रयोग शत्रु दल पर किया जाता तो वे सूर्यहास खड्ग से चिपक जाते। यह खड्ग शत्रु का रक्त खींच लेता और चुंबक नियंत्रण शक्ति से धारक के पास वापस आ जाता। लक्ष्मण ने खड्ग को हासिल करने के लिए ही शंबूक का वध किया था।
राम ने वैष्णव चाप पर आग्नेयास्त्र और प्रक्षेपास्त्र चलाए थे, जो भंयकर विस्फोट के साथ शत्रुओं का नाश करते थे। राम को अग्निवेश ने एक विशिष्ट कांच दिया था, जो संभवत: दूरबीन था। इसी दूरबीन से राम ने लंका के द्वार पर लगे ‘दारूपंच अस्त्र' को देखा और प्रक्षेपास्त्र छोड़कर नष्ट कर दिया था।
कुंभकर्ण अपनी पत्नी वज्रज्वाला के साथ अपनी प्रयोगशाला में तरह-तरह के अस्त्र-शस्त्र और यंत्र बनाने में ही लगे रहते थे जिसके चलते उनको खाने-पीने की सुध ही नहीं रहती थी। कुंभकर्ण की यंत्र मानव कला को ‘ग्रेट इंडियन' पुस्तक में ‘विजार्ड आर्ट' का दर्जा दिया गया है। इस कला में रावण की पत्नी धान्यमालिनी भी पारंगत थी। रावण ने जब युद्ध का पटाक्षेप करने के लिए निर्णायक लड़ाई लड़ी तो धान्यमालिनी ने राम की सेना पर मकर मुख, आशी विष मुख, वाराह मुख जैसे विध्वंसकारी अस्त्रों का प्रयोग किया था। अंत में राम ने रावण से छुटकारा पाने के लिए ब्रह्मा का दिया हुआ ब्रह्मास्त्र छोड़ा जिससे रावण वीरगति को प्राप्त हुआ।
राम और रावण की सेनाओं के पास भुशुंडियां (बंदूकें) थीं। कुछ सैनिकों के पास स्वचालित भुशुंडियां भी थीं। अगस्त्य ने राम के हितार्थ शंकर से ‘अजगव धनुष' मांगा था। इस धनुष की व्याख्या करते हुए श्री शाही ‘लंकेश्वर' में लिखते हैं- ‘चाप' अभी बंदूक के घोड़े (ट्रिगर) के लिए उपयोग में लाया जाता है। चाप ट्रिगर का ही पर्यायवाची होकर अजगव धनुष है। पिनाक धनुष में ये सब अनेक पहियों वाली गाड़ी पर रखे रहते थे। तब चाप चढ़ाने अथवा घोड़ा (ट्रिगर) दबाने से भंयकर विस्फोट करते हुए शत्रुओं का विनाश करते थे।
उपरोक्त विवरणों से पता चलता है कि रामायण काल में भी आधुनिक अस्त्र-शस्त्रों की तरह ही भयानक अस्त्र, शस्त्र और यंत्र हुआ करते थे।
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यंत्र और दूरभाष : लंका में दूरसंचार यंत्रों का भी निर्माण होता था जिसे आजकल 'दूरभाष' या 'टेलीफोन' कहते हैं। दूरभाष की तरह उस युग में ‘दूर नियंत्रण यंत्र' था जिसे ‘मधुमक्खी' कहा जाता था। जब इससे वार्ता की जाती थी तो वार्ता से पूर्व इससे भिन्न-भिन्न प्रकार की ध्वनि प्रकट होती थी। संभवत: इसी ध्वनि प्रस्फुटन के कारण इस यंत्र का नामकरण 'मधुमक्खी' किया गया होगा। ये यंत्र राजपरिवार के लोगों के पास रहते थे।
विभीषण को लंका से निष्काषित कर दिया था, तब वह लंका से प्रयाण करते समय मधुमक्खी और दर्पण यंत्रों के अलावा अपने 4 विश्वसनीय मंत्री अनल, पनस, संपाती और प्रभाती को भी राम की शरण में ले गया था। राम की हित-पूर्ति के लिए रावण के विरुद्ध इन यंत्रों का उपयोग भी किया।
लंका के 10,000 सैनिकों के पास ‘त्रिशूल' नाम के यंत्र थे, जो दूर-दूर तक संदेश का आदान-प्रदान करते थे। संभवत: ये त्रिशूल वायरलैस ही होंगे। इसके अलावा दर्पण यंत्र भी था, जो अंधकार में प्रकाश का आभास प्रकट करता था। लड़ाकू विमानों को नष्ट करने के लिए रावण के पास भस्मलोचन जैसा वैज्ञानिक था जिसने एक विशाल ‘दर्पण यंत्र' का निर्माण किया था। इससे प्रकाश पुंज वायुयान पर छोड़ने से यान आकाश में ही नष्ट हो जाते थे। लंका से निष्कासित किए जाते वक्त विभीषण भी अपने साथ कुछ दर्पण यंत्र ले आया था। इन्हीं ‘दर्पण यंत्रों' में सुधार कर अग्निवेश ने इन यंत्रों को चौखटों पर कसा और इन यंत्रों से लंका के यानों की ओर प्रकाश पुंज फेंका जिससे लंका की यान शक्ति नष्ट होती चली गई।
एक अन्य प्रकार का भी दर्पण यंत्र था जिसे ग्रंथों में ‘त्रिकाल दृष्टा' कहा गया है, लेकिन यह यंत्र त्रिकालदृष्टा नहीं बल्कि दूरदर्शन जैसा कोई यंत्र था। लंका में यांत्रिक सेतु, यांत्रिक कपाट और ऐसे चबूतरे भी थे, जो बटन दबाने से ऊपर-नीचे होते थे। ये चबूतरे संभवत: लिफ्ट थे।
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निर्माण कार्य : रामायण काल में भवन, पूल और अन्य निर्माण कार्यों का भी जिक्र मिलता है। इससे पता चलता है कि उस काल में भव्य रूप से निर्माण कार्य किए जाते थे और उस काल की वास्तु एवं स्थापत्य कला आज के काल से कई गुना आगे थी।
गीता प्रेस गोरखपुर से छपी पुस्तक 'श्रीमद्वाल्मीकीय रामायण-कथा-सुख-सागर' में वर्णन है कि राम ने सेतु के नामकरण के अवसर पर उसका नाम ‘नल सेतु’ रखा। इसका यह कारण था कि लंका तक पहुंचने के लिए निर्मित पुल का निर्माण विश्वकर्मा के पुत्र नल द्वारा बताई गई तकनीक से संपन्न हुआ था। महाभारत में भी राम के नल सेतु का जिक्र आया है।
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रथ और पहिए का आविष्कार : वाल्मीकि रामायण में एक प्रसंग है कि देवासुर संग्राम में राजा दशरथ ने भाग लिया था। वे जिस रथ पर सवार थे उस रथ की सारथी उनकी पत्नी कैकेयी थीं। रामायण के अनुसार उसी समय किसी शत्रु ने युद्धास्त्र चलाकर दशरथ को घायल कर दिया और वे वहीं मरणासन्न हो गए थे। यदि कैकेयी उनके रथ को रणभूमि से दूर ले जाकर उनका उपचार नहीं करतीं तो दशरथ की मृत्यु निश्चित थी। दशरथ ने होश में आकर कैकेयी से कोई भी दो वर मांगने का आग्रह किया था। कैकेयी ने कहा था कि समय आने पर मांग लूंगी और उन्होंने बाद में राम के लिए 14 वर्ष का वनवास और भरत के लिए सिंहासन मांग लिया था।
यदि कैकेयी उनके रथ को रणभूमि से दूर ले जाकर उनका उपचार नहीं करतीं तो दशरथ की मृत्यु निश्चित थी। दशरथ ने होश में आकर कैकेयी से कोई भी दो वर मांगने का आग्रह किया था। कैकयी ने कहा था कि समय आने पर मांग लूंगी और उन्होंने बाद में राम के लिए 14 वर्ष का वनवास और भरत के लिए सिंहासन मांग लिया था।
दुनिया की सबसे प्राचीन पुस्तक ऋग्वेद में भी रथ का उल्लेख मिलता है, चक्र का उल्लेख मिलता है, विमानों का उल्लेख मिलता है। राम के काल में रथ थे, चक्र थे, धनुष-बाण थे, पुष्पक विमान थे, गेहूं पीसने की घट्टी, घड़ा, लौटा, बर्तन, हस्त पंखे, माला, मूर्ति, आभूषण, वस्त्र, जूते, चप्पल आदि थे।
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अन्य आविष्कार : उस काल में इंद्र की सभा में नृत्य और संगीत का आयोजन होता था इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एक ओर जहां नृत्यु कला का आविष्कार हो चुका था वहीं संगीत के लिए कई तरह के वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल होता था।
चूंकि राक्षस, असुर द्वारा मदिरा और सुरों द्वारा सुरापान का वर्णन मिलता है इससे यह भी माना जा सकता है कि उस काल में इस पदार्थ का प्रचलन था।
संदर्भ ग्रंथ सूची:-
1.वाल्मीकि रामायण।
2.रामकथा उत्पत्ति और विकास: डॉ. फादर कामिल बुल्के।
3.लंकेश्वर (उपन्यास): मदनमोहन शर्मा ‘शाही'।
4.हिन्दी प्रबंध काव्य में रावण: डॉ. सुरेशचंद्र निर्मल।
5.रावण-इतिहास: अशोक कुमार आर्य।
6. प्रमाण तो मिलते हैं: डॉ. ओमकारनाथ श्रीवास्तव (लेख) 27 मई 1973।
7. महर्षि भारद्वाज तपस्वी के भेष में एयरोनॉटिकल साइंटिस्ट (लेख) विचार मीमांसा 31. अक्टूबर 2007।
8. विजार्ड आर्ट।
9.चैरियट्स गॉड्स: ऐरिक फॉन डानिकेन।
10.क्या सचमुच देवता धरती पर उतरे थे डॉ. खड्ग सिंह वल्दिया (लेख) धर्मयुग 27 मई 1973।