Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

सिर्फ इन चार कारणों से हुआ महाभारत का युद्ध

Advertiesment
हमें फॉलो करें Mahabharata war

अनिरुद्ध जोशी

प्रत्येक के घर में महाभारत होना चाहिए। महाभारत को ‘पंचम वेद’ कहा गया है। यह ग्रंथ भारत देश के मन-प्राण में बसा हुआ है। यह भारत की राष्ट्रीय गाथा है। अपने आदर्श स्त्री-पुरुषों के चरित्रों से भारत के जन-जीवन को यह प्रभावित करता रहा है। इसमें सैकड़ों पात्रों, स्थानों, घटनाओं तथा विचित्रताओं व विडंबनाओं का वर्णन है।
महाभारत युद्ध के यूं तो कई कारण गिनाए जा सकते हैं लेकिन भलीभांति विचार करने के बाद यह सिद्ध हुआ कि ये चार कारण नहीं होते तो महाभारत युद्ध कभी होत ही नहीं। इससे पहले हमने भीष्म की भूलें आपको बताई थी। अब जानिए चार प्रमुख कारण...
 
अगले पन्ने पर पहला कारण...
 

निषादराज की शर्त : राजा शांतनु का विवाह गंगा से हुआ था। गंगा के गर्भ से महाराज शांतनु को 8 पुत्र हुए जिनमें से 7 को गंगा ने गंगा नदी में ले जाकर बहा दिया। वचन के बंधे होने के कारण शांतनु कुछ नहीं बोल पाए। जब गंगा का 8वां पुत्र हुआ और वह उसे भी नदी में बहाने के लिए ले जाने लगी तो राजा शांतनु से रहा नहीं गया और उन्होंने इस कार्य को करने से गंगा को रोक दिया। गंगा ने कहा, 'राजन्! आपने अपनी प्रतिज्ञा भंग कर दी है इसलिए अब मैं आपके पास नहीं रह सकती।' इतना कहकर गंगा वहां से अंतर्ध्यान हो गई। महाराजा शांतनु ने अपने उस पुत्र को पाला-पोसा और उसका नाम देवव्रत रखा। देवव्रत के किशोरावस्था में होने पर उसे हस्तिनापुर का युवराज घोषित कर दिया। यही देवव्रत आगे चलकर भीष्म कहलाए।
 
अस्यां जायेत य: पुत्र: स राजापृथिवीपते।
त्वमर्ध्वमभिषेक्तव्यो नान्य: कष्चन् पार्थिव॥56/100- महाभारत॥
 
webdunia
अब जब गंगा चली गई तो एक दिन शांतनु यमुना के तट पर घूम रहे थे कि उन्हें नदी में नाव चलाते हुए एक सुन्दर कन्या नजर आई। शांतनु उस कन्या पर मुग्ध हो गए। महाराजा ने उसके पास जाकर उससे पूछा, 'हे देवी तुम कौन हो?' उसने कहा, 'महाराजा मेरा नाम सत्यवती है और में निषाद कन्या हूं।'
 
महाराज उसके रूप-यौवन पर रीझकर उसके पिता दाषराज के पास पहुंचे और सत्यवती के साथ अपने विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर धीवर (दाषराज) ने कहा, 'राजन्! मुझे अपनी कन्या का विवाह आपके साथ करने में कोई आपत्ति नहीं है, किंतु मैं चाहता हूं कि मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र को ही आप अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाएं, तो ही यह विवाह संभव हो पाएगा।' निषाद के इन वचनों को सुनकर महाराज शांतनु चुपचाप हस्तिनापुर लौट आए और मन ही मन इस दुख से घुटने लगे।
 
महाराज की इस दशा को देखकर देवव्रत को चिंता हुई। जब उन्हें मंत्रियों द्वारा पिता की इस प्रकार की दशा होने का कारण पता चला तो वे निषाद के घर जा पहुंचे और उन्होंने निषाद से कहा, 'हे निषाद! आप सहर्ष अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह मेरे पिता शांतनु के साथ कर दें। मैं आपको वचन देता हूं कि आपकी पुत्री के गर्भ से जो बालक जन्म लेगा वही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। कालांतर में मेरी कोई संतान आपकी पुत्री के संतान का अधिकार छीन न पाए इस कारण से मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि मैं आजन्म अविवाहित रहूंगा।'
 
उनकी इस प्रतिज्ञा को सुनकर निषाद ने हाथ जोड़कर कहा, 'हे देवव्रत! आपकी यह प्रतिज्ञा अभूतपूर्व है।' इतना कहकर निषाद ने तत्काल अपनी पुत्री सत्यवती को देवव्रत तथा उनके मंत्रियों के साथ हस्तिनापुर भेज दिया।
 
अगले पन्ने पर दूसरा कारण...
 

पाण्डु को किन्दम ऋषि का शाप : सत्यवती के गर्भ से महाराज शांतनु को चित्रांगद और विचित्रवीर्य नाम के 2 पुत्र हुए। चित्रांगद की युद्ध में मृत्यु हो गई तब विचित्रवीर्य को सिंहासन मिला। उसकी दो पत्नियां अम्बालिका और अम्बिका थीं। लेकिन विचित्रवीर्य को दोनों से कोई संतानें नहीं हुईं और वह भी चल बसा। 
 
webdunia
ऐसे में सत्यवती ने विचित्रवीर्य की विधवा अम्बालिका और अम्बिका को 'नियोग प्रथा' द्वारा संतान उत्पन्न करने का सोचती है। भीष्म की अनुमति लेकर सत्यवती अपने पुत्र वेदव्यास द्वारा अम्बिका और अम्बालिका के गर्भ से यथाक्रम धृतराष्ट्र और पाण्डु नाम के पुत्रों को उत्पन्न करवाती है।
 
सत्यवती के पुत्र वेदव्यास माता की आज्ञा मानकर बोले, 'माता! आप उन दोनों रानियों से कह दीजिए कि वे मेरे सामने से निर्वस्त्र होकर गुजरें जिससे कि उनको गर्भ धारण होगा।' सबसे पहले बड़ी रानी अम्बिका और फिर छोटी रानी अम्बालिका गई, पर अम्बिका ने उनके तेज से डरकर अपने नेत्र बंद कर लिए जबकि अम्बालिका वेदव्यास को देखकर भय से पीली पड़ गई। वेदव्यास  लौटकर माता से बोले, 'माता अम्बिका को बड़ा तेजस्वी पुत्र होगा किंतु नेत्र बंद करने के दोष के कारण वह अंधा होगा जबकि अम्बालिका के गर्भ से पाण्डु रोग से ग्रसित पुत्र पैदा होगा।' यह जानकर के माता सत्यवती ने बड़ी रानी अम्बिका को पुनः वेदव्यास के पास जाने का आदेश दिया। इस बार बड़ी रानी ने स्वयं न जाकर अपनी दासी को वेदव्यास के पास भेज दिया। दासी बिना किसी संकोच के वेदव्यास के सामने से गुजरी। इस बार वेदव्यास ने माता सत्यवती के पास आकर कहा, 'माते! इस दासी के गर्भ से वेद-वेदांत में पारंगत अत्यंत नीतिवान पुत्र उत्पन्न होगा।' इतना कहकर वेदव्यास तपस्या करने चले गए।
 
अब सिंहासन के लिए तीन पुत्र थे। पहले धृतराष्‍ट्र जो अंधे थे। दूसरे पाण्डु जो रोगग्रस्थ थे और तीसरे दासीपुत्र विदुर जो सभी तरह से स्वस्थ और ज्ञानी थे। तीनों ही ऋषि वेदव्यास की संतान थी। जब धृतराष्ट्र को गांधारी से कोई पुत्र नहीं हुआ तो यही वेद व्यास फिर से काम आए। हालांकि सिंहासन का ले देकर उत्तराधिकारी पाण्डु को ही बनाया गया।
 
पांडु को शाप : महाभारत के आदिपर्व के अनुसार एक दिन राजा पांडु आखेट के लिए निकलते हैं। जंगल में दूर से देखने पर उनको एक हिरण दिखाई देता है। वे उसे एक तीर से मार देते हैं। वह हिरण किन्दम ऋषि निकलते हैं जो अपनी पत्नी के साथ मैथुनरत थे। वे ऋषि मरते वक्त पांडु को शाप देते हैं कि तुम भी मेरी तरह मरोगे, जब तुम मैथुनरत रहोगे। इस शाप के भय से पांडु अपना अपनी दोनों पत्नियों कुंति और माद्री से कोई संबंध नहीं बना पाते हैं और अंत में वे राज्य अपने भाई धृतराष्ट्र को सौंपकर अपनी पत्नियों कुंती और माद्री के साथ जंगल चले जाते हैं। यदि यह शाप नहीं होता तो पांडु के पुत्र होते और उनको ही राजसिंहासन का अधिकार स्वत: ही मिल जाता है तब सभी उनके ही अधिन होते।
 
जंगल में वे संन्यासियों का जीवन जीने लगते हैं, लेकिन पांडु इस बात से दुखी रहते हैं कि उनकी कोई संतान नहीं है और वे कुंती को समझाने का प्रयत्न करते हैं कि उसे किसी ऋषि के साथ समागम करके संतान उत्पन्न करनी चाहिए। 
 
लाख समझाने के बाद तब कुंति मंत्र शक्ति के बल पर एक-एक कर 3 देवताओं का आह्वान कर 3 पुत्रों को जन्म देती है। धर्मराज से युधिष्टिर, इंद्र से अर्जुन, पवनदेव से भीम को जन्म देती है वहीं इसी मंत्र शक्ति के बल पर माद्री ने भी अश्विन कुमारों का आह्वान कर नकुल और सहदेव को जन्म दिया। इसका मतलब यह कि पांडु पुत्र असल में पांडु पुत्र नहीं थे। उसी तरह कुंति अपनी कुंवारी अवस्था में सूर्यदेव का आह्‍वान कर कर्ण को जन्म देती है इस तरह कुंति के 4 और माद्री के 2 पुत्र मिलाकर कुल 6 पु‍त्र होते हैं।
 
एक दिन वर्षा ऋतु का समय था और पांडु और माद्री वन में विहार कर रहे थे। उस समय पांडु अपने काम-वेग पर नियंत्रण न रख सके और माद्री के साथ सहवास करने को उतावले हो गए और तब ऋषि का श्राप महाराज पांडु की मृत्यु के रूप में फलित हुआ। माद्री पांडु की मृत्यु बर्दाश्त नहीं कर सकी और उनके साथ सती हो गई। यह देखकर पुत्रों के पालन-पोषण का भार अब कुंती पर आ गया था। उसने अपने मायके जाने के बजाय हस्तिनापुर का रुख किया।
 
हस्तिनापुर में रहने वाले ऋषि-मुनि सभी पांडवों को राजा पांडु का पुत्र मानते थे इसीलिए उन्होंने मिलकर पांडवों को राजमहल छोड़ दिया। कुंती के कहने पर सभी ने पांडवों को पांडु का पुत्र मान लिया और उनका स्वागत किया। राजमहल में कुंती का सामना गांधारी से हुआ। दोनों में अपने अपने पुत्रों को अधिकार दिलाने होड़ शुरू हुई।
 
अगले पन्ने पर तीसरा कारण...
 
webdunia
3.द्यूत क्रीड़ा : चलों मान भी लें कि उपरोक्त बताए गया सब कुछ हो गया था तब भी महाभारत के यद्धु को होने से रोका जा सकता था यदि द्यूत क्रीड़ा का आयोजन नहीं होता। राजभवन में कौरवों और पांडवों के बीच द्यूत क्रीड़ा यानि चौसर खेलने को अनुमित देना भीष्म की सबसे बड़ी भूल थी। वो चाहते तो ये क्रीड़ा रोक सकते थे लेकिन चौसर के इस खेल ने सब कुछ चौपट कर दिया। यह महाभारत युद्ध का टर्निंग पाइंट था। भीष्म के इजाजत देने के बाद युधिष्ठिर ने द्रौपदी को दांव पर लगाकर दूसरी सबसे बड़ी भूल की थी जिसके कारण महाभारत का युद्ध होना और भी पुख्ता हो गया। युधिष्ठि ने अपने भाइयों और पत्नी तक को जुए में दांव पर लगाकर अनजाने ही युद्ध और विनाश के बीज बोए थे।
 
दुर्योधन और शकुनि राजा धृतराष्ट्र के पास गये और उनसे चौसर के खेल का आयोजन रखने का आग्रह किया। धृतराष्ट्र ने कहा कि वो विदुर की सलाह के पश्चात इसका निर्णय करेंगे लेकिन दुर्योधन को बिना पूछे इस खेल का आयोजन करने के लिए अपने पिता को बाध्य किया। अंत में धृतराष्ट्र को उनकी बात माननी पड़ी और उसें चौसर के खेल के आयोजन की घोषणा करवाई। विदुर को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने  धृतराष्ट्र को बताया कि इस खेल से हमारे कुल का नाश हो जाएगा लेकिन पुत्र प्रेम में धृतराष्ट्र कुछ नही बोले। भीष्म पितामह भी चुप रहे। धृतराष्ट्र ने विदुर को युधिष्ठिर को खेल का न्योता देने को भेजा।
 
अगले पन्ने पर चौथा कारण...
 

4.दुर्योधन द्वारा श्रीकृष्ण का प्रस्ताव अमान्य करना : अंत में युद्ध को टालने के सभी प्रयास विफल होने के बाद भगवान श्रीकृष्ण हस्तिनापुर में पांडवों को पांच गांव देने का प्रस्ताव लेकर जाते हैं जिसे दुर्योधन यह कहकर अस्विकार कर देता है कि युद्ध किए बगैर में सुई की एक नोंक भी नहीं दूंगा।
webdunia
पांड्वो का शांतिदूत बनाकर श्रीकृष्ण हस्तिनापुर भेजा। उन्होंने विदुर के यहां रुककर संजय को ये कहकर भेजा कि यदि वो उनको केवल पांच गांव ही देदे तो वे संतोष करके संधि कर लेंगे। उधर दुर्योधन ने अपने पिता को संधि प्रस्ताव स्वीकार करने से रोकते हुए कहा, 'पिताश्री आप पांड्वों की चाल समझे नहीं, वो हमारी विशाल सेना से डर गए हैं इसलिए केवल पांच गांव मांग रहे हैं अब हम युद्ध से पीछे नही हटेंगे। धृतराष्ट्र ने समझाया, 'पुत्र यदि केवल पांच गांव देने से युद्ध टलता है तो इससे बेहतर क्या हो सकता है इसलिए अपनी हठ छोड़कर पांड्वों से संधि कर लो ताकि ये विनाश टल जाए। दुर्योधन अब गुस्से में आकर बोला 'पिताश्री मैं एक तिनके की भी भूमि उन पांड्वों को नहीं दूंगा और अब फैसला केवल रणभूमि में ही होगा।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi