अग्निवायुरविभ्यस्तु त्र्यं ब्रह्म सनातनम।
दुदोह यज्ञसिध्यर्थमृगयु: समलक्षणम्॥ -मनु (1/13)
जिस परमात्मा ने आदि सृष्टि में मनुष्यों को उत्पन्न कर अग्नि आदि चारों ऋषियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराए उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और (तु अर्थात) अंगिरा से ऋग, यजु, साम और अथर्ववेद का ग्रहण किया।
अंगिरा ऋषि कौन थे?
ब्रह्मा के मानस पुत्रों में से एक ब्रह्म ऋषि अंगिरा को वेदों के रचयिता चार ऋषियों में शामिल किया जाता है। माना जाता है कि अंगिरा से ही भृगु, अत्रि आदि ऋषियों ने ज्ञान प्राप्त किया। ऋग्वेद के अनुसार, ऋषि अंगिरा ने सर्वप्रथम अग्नि उत्पन्न की थी। अंगिरा ने धर्म और राज्य व्यवस्था पर बहुत काम किया। इनकी पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री स्मृति (मतांतर से श्रद्धा) थीं जिनसे इनके वंश का विस्तार हुआ। अग्निदेव ने ही बृहस्पति के रूप में जन्म लिया था। बृहस्पति अंगिरा के पुत्र थे और वे देवताओं के गुरु के रूप में प्रसिद्ध हुए थे। उतथ्य तथा महर्षि संवर्त भी अंगिरा के पुत्र हैं। इन्होंने वेदों की ऋचाओं के साथ ही अपने नाम से अंगिरा स्मृति की रचना की।
अंगिरा ऋषि की तपस्या और उपासना इतनी तीव्र थी कि इनका तेज और प्रभाव अग्नि की अपेक्षा बहुत अधिक था। जल में रहकर तपस्या कर अग्निदेव ने जब देखा कि अंगिरा के तपोबल के सामने मेरी तपस्या और प्रतिष्ठा तुच्छ हो रही है तो वे दु:खी हो अंगिरा के पास गए और कहने लगे- 'आप प्रथम अग्नि हैं, मैं आपके तेज की तुलना में अपेक्षाकृत न्यून होने से द्वितीय अग्नि हूं। मेरा तेज आपके सामने फीका पड़ गया है, अब मुझे कोई अग्नि नहीं कहेगा।' तब महर्षि अंगिरा ने सम्मानपूर्वक उन्हें देवताओं को हवि पहुंचाने का कार्य सौंपा। साथ ही पुत्र रूप में अग्नि का वरण किया।
कहीं-कहीं ऐसी कथा भी आती है कि अंगिरा अग्नि के पुत्र हैं। यह बात कल्पभेद से ही बन सकती है। इनकी पत्नी दक्ष प्रजापति की पुत्री स्मृति थीं जिनसे अनेक पुत्र और कन्याएं उत्पन्न हुई। शिवपुराण में ऐसी कथा आती है कि युग-युग में भगवान् शिव व्यासावतार ग्रहण करते हैं; उनमें वाराहकल्प में वेदों के विभाजक, पुराणों के प्रदर्शक और ज्ञानमार्ग के उपदेष्टा अंगिरा भी व्यास थे। वाराहकल्प के नवें द्वापर में महादेव ने ऋषभ नाम से अवतार ग्रहण किया था। उस समय उनके पुत्ररूप में महर्षि अंगिरा थे। एक बार भगवान् श्रीकृष्ण ने व्याघ्रपाद ऋषि के आश्रम पर महर्षि अंगिरा से पाशुपतयोग की प्राप्ति के लिए बड़ी दुष्कर तपस्या की थी।
अंगिरा-स्मृति : अंगिरा-स्मृति में सुन्दर उपदेश तथा धर्माचरण की शिक्षा व्याप्त है। अंगिरा स्मृति के अनुसार बिना कुशा के धर्मानुष्ठान, बिना जल स्पर्श के दान, संकल्प; बिना माला के संख्याहीन जाप, ये सब निष्फल होते हैं।