* चेतना विकासक्रम : जड़- प्राण- मन- बोध- अतिमन- ब्रह्मलीन
* हिन्दू धर्मानुसार भगवान का अर्थ ईश्वर, परमात्मा या परमेश्वर नहीं। भगवान का अर्थ सुपरमैन या सुपरपॉवर माना जा सकता है। इसे ही दार्शनिक नीत्शे ने महामानव और महर्षि अरविन्द ने अतिमानव कहा है। भगवान श्रीकृष्ण एक अतिमानव ही थे।
* एक मनुष्य भगवान या अतिमानव चेतना के विकास की प्रक्रिया से गुजरकर बनता है जिसका उल्लेख वेद और गीता में मिलता है। आत्मा चैतन्य होकर ही विकास करती है, जो आत्मा चैतन्य नहीं रहती है वह नीचे गिरती जाती है।
* सर्वप्रथम आत्मा ने खुद को जड़ में अभिव्यक्त किया। अभिव्यक्त अर्थात प्रकट किया। फिर विकास क्रम में ऊपर उठकर वह क्रमश: पौधे में फिर, जलचर या रेंगने वाले प्राणियों में, फिर पशु-पक्षियों में और फिर उसने मनुष्य के रूप में खुद को प्रकट किया।
* यदि आप मनुष्य हैं तो इसलिए कि आपने नीचे से ऊपर की यात्रा अपने प्रयास और पुण्यों के आधार की। आप आलसी, निराशावादी और बेहोश नहीं थे। लेकिन मनुष्य बनने के बाद कुछ ही लोग मनुष्य से आगे देवता और उससे भी आगे भगवान बन पाते हैं।
* वेद के अनुसार आत्मा नीचे गिरती है तो जड़, जड़ से प्राण, प्राण से मन, मन से विवेक, विवेक से आनंद या अति मन में सफर करती है। जो आत्मा अपने 'मन' में ही अटकी रह गई वह कभी विवेक मन या अति मन में पहुंचकर भगवान नहीं बन सकती।
* मन से मुक्त होकर स्थिर मन अर्थात विवेकी मन में रहना और फिर इस स्थिरता को बढ़ाते हुए अति मन में प्रवेश कर जाने से ही व्यक्ति के भीतर बुद्धत्व, निर्वाण, कैवल्य या मोक्ष घटित होता है।
* जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति में जो भी व्यक्ति एक समान रहता है वही विवेकी मन का अतिक्रमण कर जाता है। ऐेसा श्वास-प्रश्वास के आवागमन पर लगातार ध्यान देने से घटित होता है।
* भगवान बनना है तो निरंतर योग करते हुए ध्यान करने वाला योगी ही अपने मन के पार जाकर खुद को अति मन में स्थापित कर सकता है। मन के पार ही अपार शक्ति और सिद्धियां विचरण करती हैं।