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कौन है देवताओं के द्वारपाल, जानिए...

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अनिरुद्ध जोशी

जिस तरह देवी और देवताओं के अस्त्र-शस्त्र, वाहन, शक्ति, गण, अनुचर, अवतार आदि होते हैं उसी तरह उनके निवास और उस निवास के द्वारपाल भी होते हैं। द्वारापल का अर्थ सभी जानते ही होंगे। द्वार का पहरेदार या रक्षक। हालांकि देवी या देवताओं को किसी भी पहरेदार या रक्षक की जरूरत नहीं होती लेकिन यह सिर्फ अपने भक्तों को कुछ कार्य देने वाली बात है। 
देवी और देवताओं के द्वारपाल कोई साधारण नहीं होते हैं, उनके जीवन की एक से एक कथाएं पुराणों में पढ़ने को मिलती है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि द्वारपाल को जब उनके पद से हटाया तो क्या हुआ। तो आओ जानते हैं कि किस देवता का कौन-सा द्वारपाल द्वारापल था।

विष्णु के द्वारपाल जय और विजय : यह भगवान विष्णु के द्वारपाल थे। इन्हें विष्णु का पार्षद भी कहा जाता है। इनकी कहानी भी बड़ी अजीब है। एक बार सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार भगवान विष्णु से मिलने गए तो इन द्वारपालों ने इन्हें अंदर जाने से रोक दिया। यह चारों ब्रह्मकुमार नाराज हो गए। उन्होंने इसे अपना अपमान समझा। 
 
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उनके इस प्रकार मना करने पर सनकादिक ऋषियों ने कहा, 'अरे मूर्खों! हम तो भगवान विष्णु के परम भक्त हैं। हमारी गति कहीं भी नहीं रुकती है। तुम हमें उनके दर्शनों से क्यों रोकते हो? तुम लोग तो भगवान की सेवा में रहते हो, तुम्हें तो उन्हीं के समान समदर्शी होना चाहिये। हमें भगवान विष्णु के दर्शन के लिये जाने दो।"
 
ऋषियों के इस प्रकार कहने पर भी जय और विजय उन्हें बैकुण्ठ के अन्दर जाने से रोकने लगे। जय और विजय के इस प्रकार रोकने पर सनकादिक ऋषियों ने क्रुद्ध होकर कहा, 'भगवान विष्णु के समीप रहने के बाद भी तुम लोगों में अहंकार आ गया है और अहंकारी का वास बैकुण्ठ में नहीं हो सकता। इसलिये हम तुम्हें शाप देते हैं कि तुम लोग 3 जन्मों तक पापयोनि में जाओ और असुर बनकर पाप का भल भुगतोगे।" उनके इस प्रकार शाप देने पर जय और विजय भयभीत होकर उनके चरणों में गिर पड़े और क्षमा मांगने लगे। मुनीवारों को भी शाप देने का पछतावा हुआ।
 
जब भगवान विष्णु को पता चला की जय और विजय को ऋषिकुमारों ने शाप दे दिया है तो उन्होंने ऋषिकुमारों से कहा, हे! मुनिवर यह मेरे पार्षद हैं। इन्होंने आपकी बात न मानकर मेरी ही अवज्ञा अज्ञानवश की है।...लेकिन हे मुनीवर यह जो कुछ भी हुआ है मेरी ही इच्छा से हुआ है अत: आप चिंता न करें। जब ये अनुसर बनकर आएंगे तो इनके उद्‍धार के बहाने मैं अपने भक्तों को संदेश देने आऊंगा।
 
उल्लेखनीय है कि जय और विजय अपने पहले जन्म में हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यपु बने। दूसरे में रावण और कुंभकरण बने और तीसरे में शिशुपाल एवं दन्तवक्र बने थे।

शिव के द्वारपाल नंदी : कैलाश पर्वत के क्षेत्र में उस काल में कोई भी देवी या देवता, दैत्य या दानव शिव के द्वारपाल की आज्ञा के बगैर अंदर नहीं जा सकता था। ये द्वारपाल संपूर्ण दिशाओं में तैनात थे।
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इन द्वारपालों के नाम हैं- हालांकि भगवान शंकर के मुख्य द्वारपाल नंदी ही थे, लेकिन इसके अलावा स्कंद, रिटी, वृषभ, भृंगी, गणेश, उमा-महेश्वर और महाकाल को भी उनके द्वारों का रक्षक माना जाता है। उल्लेखनीय है कि शिव के गण और द्वारपाल नंदी ने ही कामशास्त्र की रचना की थी। कामशास्त्र के आधार पर ही कामसूत्र लिखा गया था।
 
शिव पार्षद : जिस तरह जय और विजय विष्णु के पार्षद हैं ‍उसी तरह बाण, रावण, चंड, नंदी, भृंगी आदि ‍शिव के पार्षद हैं। यहां देखा गया है कि नंदी और भृंगी गण भी है, द्वारपाल भी है और पार्षद भी। भैरवनात को काशी और उज्जैन का द्वारपाल कह  जाता है।

भगवान राम के द्वारपाल : हनुमानजी भगवान श्रीराम के द्वारपाल ही नहीं सबकुछ हैं। उन्होंने राम के राज्याभिषेक के बाद इस भूमिका को भी निभाया था। हनुमानजी 11वें रुद्रावतार हैं। राम भक्त हनुमान को महाबली माना गया है जो अजर-अमर हैं। जो व्यक्ति निरंतर हनुमानजी का नाम जपता रहता है उसका कोई भी बाल बांका नहीं कर पाता है।
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राम द्वारे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे।।
 
हनुमानजी सभी युगों में विद्यमान है। चारो जुग प्रताप तुम्महारा, हे परसिद्ध जगत उजियारा।..हिन्दू धर्म के सबसे जाग्रत और सर्वशक्तिशाली देवताओं में एकमत्र हनुमानजी की कृपा जिस पर बरसरना शुरू होती है उसका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। दस दिशाओं और चारों युग में उनका प्रताप है। जो कोई भी व्यक्ति उनसे जुड़ा समझों उसका संकट कटा। प्रतिदिन हनुमान चालीसा पढ़ना चाहिए। मार्गशीर्ष मास के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन व्रत करने से और इसी दिन हनुमान-पाठ, जप, अनुष्ठान आदि प्रारंभ करने से त्वरित फल प्राप्त होता है। 
 
हनुमानजी इस कलियुग में सबसे ज्यादा जाग्रत और साक्षात हैं। कलियुग में हनुमानजी की भक्ति ही लोगों को दुख और संकट से बचाने में सक्षम हैं। बहुत से लोग किसी बाबा, गुरु, अन्य देवी-देवता, ज्योतिष और तांत्रिकों के चक्कर में भटकते रहते हैं, क्योंकि वे हनुमानजी की भक्ति-शक्ति को नहीं पहचानते। ऐसे भटके हुए लोगों का राम ही भला करे। हनुमानजी की भक्ति और हनुमान चालीसा पढ़ने से व्यक्ति खुद को इन 10 तरह की बाधाओं से बचा लेता है।

वराह पुराण के अनुसार दिग्पालों की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है- जब ब्रह्मा सृष्टि करने के विचार में चिंतनरत थे, उस समय उनके कान से 10 कन्याएं उत्पन्न हुईं जिनमें मुख्य 6 और 4 गौण थीं।
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1. पूर्वा: जो पूर्व दिशा कहलाई।
2. आग्नेयी: जो आग्नेय दिशा कहलाई।
3. दक्षिणा: जो दक्षिण दिशा कहलाई।
4. नैऋती: जो नैऋत्य दिशा कहलाई।
5. पश्चिमा: जो पश्चिम दिशा कहलाई।
6. वायवी: जो वायव्य दिशा कहलाई।
7. उत्तर: जो उत्तर दिशा कहलाई।
8. ऐशानी: जो ईशान दिशा कहलाई।
9. उर्ध्व: जो उर्ध्व दिशा कहलाई।
10. अधस्‌: जो अधस्‌ दिशा कहलाई।
 
उन कन्याओं ने ब्रह्मा को नमन कर उनसे रहने का स्थान और उपयुक्त पतियों की याचना की। ब्रह्मा ने कहा- 'तुम लोगों की जिस ओर जाने की इच्छा हो, जा सकती हो। शीघ्र ही तुम लोगों को तदनुरूप पति भी दूंगा।'
 
इसके अनुसार उन कन्याओं ने 1-1 दिशा की ओर प्रस्थान किया। इसके पश्चात ब्रह्मा ने 8 दिग्पालों की सृष्टि की और अपनी कन्याओं को बुलाकर प्रत्येक लोकपाल को 1-1 कन्या प्रदान कर दी। इसके बाद वे सभी लोकपाल उन कन्याओं के साथ अपनी-अपनी दिशाओं में चले गए। इन दिग्पालों के नाम पुराणों में दिशाओं के क्रम से निम्नांकित है-
 
लोकपाल दिग्पालों
* पूर्व के इंद्र
* दक्षिण-पूर्व के अग्नि
* दक्षिण के यम
* दक्षिण-पश्चिम के सूर्य
* पश्चिम के वरुण
* पश्चिमोत्तर के वायु
* उत्तर के कुबेर
* उत्तर-पूर्व के सोम।
 
शेष 2 दिशाओं अर्थात उर्ध्व या आकाश की ओर वे स्वयं चले गए और नीचे की ओर उन्होंने शेष या अनंत को प्रतिष्ठित किया। उर्ध्व दिशा के देवता ब्रह्मा हैं। अधो दिशा के देवता हैं शेषनाग जिन्हें अनंत भी कहते हैं।
 
ईशान दिशा : पूर्व और उत्तर दिशाएं जहां पर मिलती हैं उस स्थान को ईशान दिशा कहते हैं। इस दिशा के स्वामी ग्रह बृहस्पति और केतु माने गए हैं।
पूर्व दिशा : जब सूर्य उत्तरायण होता है तो वह ईशान से ही निकलता है, पूर्व से नहीं। इस दिशा के देवता इंद्र और स्वामी सूर्य हैं। पूर्व दिशा पितृस्थान का द्योतक है।
आग्नेय दिशा : दक्षिण और पूर्व के मध्य की दिशा को आग्नेय दिशा कहते हैं। इस दिशा के अधिपति हैं अग्निदेव। शुक्र ग्रह इस दिशा के स्वामी हैं।
दक्षिण दिशा : दक्षिण दिशा के अधिपति देवता हैं भगवान यमराज।
नैऋत्य दिशा : दक्षिण और पश्चिम दिशा के मध्य के स्थान को नैऋत्य कहा गया है। यह दिशा नैऋत देव के आधिपत्य में है। इस दिशा के स्वामी राहु और केतु हैं।
पश्चिम दिशा : पश्चिम दिशा के देवता, वरुण देवता हैं और शनि ग्रह इस दिशा के स्वामी हैं।
वायव्य दिशा : उत्तर और पश्चिम दिशा के मध्य में वायव्य दिशा का स्थान है। इस दिशा के देव वायुदेव हैं और इस दिशा में वायु तत्व की प्रधानता रहती है।
उत्तर दिशा : उत्तर दिशा के अधिपति हैं रावण के भाई कुबेर। कुबेर को धन का देवता भी कहा जाता है। बुध ग्रह उत्तर दिशा के स्वामी हैं। उत्तर दिशा को मातृ स्थान भी कहा गया है।

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