भगवान कृष्ण का जन्म मथुरा में हुआ था। उनका बचपन गोकुल, वृंदावन, नंदगाव, बरसाना आदि जगहों पर बीता। अपने मामा कंस का वध करने के बाद उन्होंने अपने माता-पिता को कंस के कारागार से मुक्त कराया और फिर जनता के अनुरोध पर मथुरा का राजभार संभाला। जनता भी कंस जैसे क्रूर शासक से मुक्त होना चाहती थी।
कंस के मारे जाने के बाद कंस का ससुर जरासंध कृष्ण का कट्टर शत्रु बन गया। जरासंध मगध का अत्यंत क्रूर एवं साम्राज्यवादी प्रवृत्ति का शासक था। हरिवंश पुराण के अनुसार उसने काशी, कोशल, चेदि, मालवा, विदेह, अंग, वंग, कलिंग, पांडय, सौबिर, मद्र, कश्मीर और गांधार के राजाओं को परास्त कर सभी को अपने अधीन बना लिया था।
कृष्ण से बदला लेने के लिए जरासंध ने पूरे दल-बल के साथ शूरसेन जनपद (मथुरा) पर एक बार नहीं, कई बार चढ़ाई की, लेकिन हर बार वह असफल रहा। पुराणों के अनुसार जरासंध ने 18 बार मथुरा पर चढ़ाई की। 17 बार वह असफल रहा। अंतिम चढ़ाई में उसने एक विदेशी शक्तिशाली शासक कालयवन को भी मथुरा पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया। कालयवन के मारे जाने के बाद उस देश के शासक और उसके परिवार के लोग भी कृष्ण के दुश्मन बन गए।
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अंत में कृष्ण ने सभी यदुओं के साथ मिलकर मथुरा को छोड़कर जाने का फैसला किया। विनता के पुत्र गरूड़ की सलाह एवं ककुद्मी के आमंत्रण पर कृष्ण कुशस्थली आ गए। वर्तमान द्वारिका नगर कुशस्थली के रूप में पहले से ही विद्यमान थी। कृष्ण ने इसी उजाड़ हो चुकी नगरी को पुनः बसाया। कहना चाहिए कि भगवान कृष्ण ने अपने पूर्वजों की भूमि को फिर से रहने लायक बनाया था।
कृष्ण अपने 18 नए कुल-बंधुओं के साथ गुजरात के तट पर बसी कुशस्थली आ गए। यहीं पर उन्होंने भव्य नए द्वारिका नगर का निर्माण कराया और संपूर्ण नगर को चारों ओर से मजबूत दीवार से किलाबंद कर दिया।
भगवान कृष्ण ने यहां 36 वर्ष तक राज्य किया। यहां वे अपनी 8 पत्नियों के साथ सुखपूर्वक रहते थे। यहीं रहकर वे हस्तिनापुर की राजनीति में संलग्न रहे। यहीं से उन्होंने संपूर्ण महाभारत का संचालन किया।
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'ततस्ते यादवास्सर्वे रथानारुह्य शीघ्रगान, प्रभासं प्रययुस्सार्ध कृष्णरामादिमिर्द्विज। प्रभास समनुप्राप्ता कुकुरांधक वृष्णय: चक्रुस्तव महापानं वासुदेवेन नोदिता:, पिवतां तत्र चैतेषां संघर्षेण परस्परम्, अतिवादेन्धनोजज्ञे कलहाग्नि: क्षयावह:'।- विष्णु पुराण
धर्म के विरुद्ध आचरण करने के दुष्परिणामस्वरूप अंत में दुर्योधन आदि मारे गए और कौरव वंश का विनाश हो गया। महाभारत के युद्ध के पश्चात सांत्वना देने के उद्देश्य से भगवान श्रीकृष्ण गांधारी के पास गए। गांधारी अपने 100 पुत्रों की मृत्यु के शोक में अत्यंत व्याकुल थीं। भगवान श्रीकृष्ण को देखते ही गांधारी ने क्रोधित होकर उन्हें शाप दिया कि तुम्हारे कारण जिस प्रकार से मेरे 100 पुत्रों का नाश हुआ है, उसी प्रकार तुम्हारे वंश का भी आपस में एक-दूसरे को मारने के कारण नाश हो जाएगा। भगवान श्रीकृष्ण ने माता गांधारी के उस शाप को पूर्ण करने के लिए अपने कुल के यादवों की मति फेर दी। इसका यह मतलब नहीं कि उन्होंने यदुओं के वंश के नाश का शाप दिया था। सिर्फ कृष्ण वंश को शाप था।
महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। कृष्ण द्वारिका में ही रहते थे। पांडव भी युधिष्ठिर को राज्य सौंपकर जंगल चले गए थे। एक दिन अहंकार के वश में आकर कुछ यदुवंशी बालकों ने दुर्वासा ऋषि का अपमान कर दिया। गांधारी के बाद इस पर दुर्वासा ऋषि ने भी शाप दे दिया कि तुम्हारे वंश का नाश हो जाए।
उनके शाप के प्रभाव से कृष्ण के सभी यदुवंशी भयभीत हो गए। इस भय के चलते ही एक दिन कृष्ण की आज्ञा से वे सभी एक यदु पर्व पर सोमनाथ के पास स्थित प्रभास क्षेत्र में आ गए। पर्व के हर्ष में उन्होंने अति नशीली मदिरा पी ली और मतवाले होकर एक-दूसरे को मारने लगे। इस तरह भगवान श्रीकृष्ण को छोड़कर कुछ ही जीवित बचे रह गए।
एक कथा अनुसार संयाग से साम्ब के पेट से निकले मूसल को जब भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञा से रगड़ा गया था तो उसके चूर्ण को इसी तीर्थ के तट पर फेंका गया था जिससे उत्पन्न हुई झाड़ियों को यादवों ने एक-दूसरे को मारना शुरू किया था। ऋषियों के श्राप से उत्पन्न हुई इन्हीं झाड़ियों ने तीक्ष्ण अस्त्र-शस्त्रों का काम किया ओर सारे प्रमुख यदुवंशियों का यहां विनाश हुआ। महाभारत के मौसल पर्व में इस युद्ध का रोमांचकारी विवरण है। सारे यादव प्रमुख इस गृहयुद्ध में मारे गए।
बचे लोगों ने कृष्ण के कहने के अनुसार द्वारका छोड़ दी और हस्तिनापुर की शरण ली। यादवों और उनके भौज्य गणराज्यों का अंत होते ही कृष्ण की बसाई द्वारका सागर में डूब गई। आज भी आधुनिक द्वारका से रेल से ओखा और वहां से जलयान द्वारा 'बेट द्वारका' पहुंचते हैं। तब द्वीप के पहले, यदि सागर शांत हो तो, तल में डूबी कृष्ण की द्वारका देखी जा सकती है।
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भगवान कृष्ण इसी प्रभाव क्षेत्र में अपने कुल का नाश देखकर बहुत व्यथित हुए। वे वहीं रहने लगे। उनसे मिलने कभी-कभार युधिष्ठिर आते थे। एक दिन वे इसी प्रभाव क्षेत्र के वन में एक पीपल के वृक्ष के नीचे योगनिद्रा में लेटे थे, तभी 'जरा' नामक एक बहेलिए ने भूलवश उन्हें हिरण समझकर विषयुक्त बाण चला दिया, जो उनके पैर के तलुवे में जाकर लगा और भगवान श्रीकृष्ण ने इसी को बहाना बनाकर देह त्याग दी। महाभारत युद्ध के ठीक 36 वर्ष बाद उन्होंने अपनी देह इसी क्षेत्र में त्याग दी थी। महाभारत का युद्ध हुआ था जब वे लगभग 56 वर्ष के थे। उनका जन्म 3112 ईसा पूर्व हुआ था। इस मान से 3020 ईसा पूर्व उन्होंने 92 वर्ष की उम्र में देह त्याग दी थी।
यह प्रभाष क्षेत्र हिन्दुओं का सबसे पवित्र तीर्थस्थल है। यह उसी तरह है जिस तरह कि मुसलमानों के लिए मदीना, बौद्धों के लिए कुशीनगर और ईसाइयों के लिए बेथलहम है।
प्रभास क्षेत्र काठियावाड़ के समुद्र तट पर स्थित बीराबल बंदरगाह की वर्तमान बस्ती का प्राचीन नाम है। यह एक प्रमुख तीर्थ स्थान है। महाभारत के अनुसार यह सरस्वती-समुद्र संगम पर स्थित प्रसिद्ध तीर्थ था- 'समुद्रं पश्चिमं गत्वा सरस्वत्यब्धि संगमम्'। (1)
यह विशिष्ट स्थल या देहोत्सर्ग तीर्थ नगर के पूर्व में हिरण्या, सरस्वती तथा कपिला के संगम पर बताया जाता है। इसे प्राची त्रिवेणी भी कहते हैं। इसे भालका तीर्थ भी कहते हैं।
पांच वर्ष की असहनीय पीड़ा के बाद उस भील को अहसास हो गया कि उसने किसी आम आदमी को नहीं मारा बल्कि मानव की देह धारण करके पृथ्वी पर आए साक्षात भगवान की देह अपने तीर से छीन ली है। वापस उसी स्थान पर जाकर 'गोविंद गोविंद’ कहते हुए उस बहेलिए ने समुद्र में समाकर अपने प्राण त्याग दिए। जिस स्थान पर जरा ने श्रीकृष्ण को तीर मारा, उसे आज 'भालका' तीर्थ कहा जाता है। वहां बने मंदिर में वृक्ष के नीचे लेटे हुए कृष्ण की आदमकद प्रतिमा है। उसके समीप ही हाथ जोड़े जरा खड़ा हुआ है।