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विश्‍वामित्र जयंती : विश्‍वामित्र का मेनका से संबंध, जानिए 6 किस्से

हमें फॉलो करें विश्‍वामित्र जयंती : विश्‍वामित्र का मेनका से संबंध, जानिए 6 किस्से

अनिरुद्ध जोशी

, मंगलवार, 29 अक्टूबर 2019 (16:16 IST)
विश्वामित्र वैदिक काल के विख्यात ऋषि थे। सभी ने उनका नाम सुना ही होगा। आओ जानते हैं उनके 6 खास किस्से।
 
 
1.विश्‍वामित्र का परिचय : प्रजापति के पुत्र कुश, कुश के पुत्र कुशनाभ और कुशनाभ के पुत्र राजा गाधि थे। विश्वामित्रजी उन्हीं गाधि के पुत्र थे। च्यवन के वंशज ऋचीक ने कुशिक पुत्र गाधि की पुत्री से विवाह किया जिससे जमदग्नि पैदा हुए। उनके पुत्र परशुराम हुए।
 
 
ऋग्वेद के तृतीय मंडल में 30वें, 33वें तथा 53वें सूक्त में महर्षि विश्वामित्र का वर्णन मिलता है। वहां से ज्ञान होता है कि ये कुशिक गोत्रोत्पन्न कौशिक थे। कहते हैं कि ये कौशिक लोग सारे संसार का रहस्य जानते थे। हालांकि खुद विश्वामित्र तो कश्यप वंशी थे इसलिए कौशिक या कुशिक भी कश्यप वंशी हुए। कुशिक तो विश्वामित्र के दादा थे। कहते हैं कि कौशिक ऋषि कुरुक्षेत्र के निवासी थे।

 
2.विश्‍वामित्र और ऋषि वशिष्ठ : विश्वामित्र के ही काल में ऋषि वशिष्ठ थे जिसने उनकी अड़ी चलती रहती थी, अड़ी अर्थात प्रतिद्वंद्विता। ऋषि होने के पूर्व विश्वामित्र राजा थे और ऋषि वशिष्ठ से कामधेनु गाय को हड़पने के लिए उन्होंने युद्ध किया था, लेकिन वे हार गए। बाद में उन्होंने तपस्या करने अपनी शक्ति को बड़ाया और फिर वशिष्ठ से हर मोर्चे पर मुकाबला किया।

 
दाशराज्ञ के युद्ध में एक ओर जहां सुदास की ओर से सलाहकार ऋषि वशिष्ठ थे तो दूसरी ओर संवरण के सलाहकार ऋषि विश्वामित्र थे। कहते हैं कि शुरू में विश्‍वामित्र सुदास के पुरोहित थे पर बाद में सुदास ने विश्‍वामित्र को हटाकर वशिष्‍ठ को नियुक्त कर लिया था। बदला लेने की भावना से विश्वामित्र ने दस राजाओं के एक कबिलाई संघ का गठन किया और फिर हुआ दशराज्ञ का युद्ध। इस युद्ध में इंद्र और वशिष्ट की संयुक्त सेना के हाथों विश्‍वामित्र की सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा था। उल्लेखनीय है कि राजा दशरथ के राजगुरु बनने के लिए भी दोनों में होड़ थी।

 
3.विश्‍वामित्र और मेनका : महान तपस्वी ऋषि विश्वामित्र ने नए स्वर्ग के निर्माण के लिए जब तपस्या शुरू की तो उनके तप से देवराज इन्द्र ने घबराकर उनकी तपस्या भंग करने के लिए मेनका को भेजा। मेनका ने अपने रूप और सौंदर्य से तपस्या में लीन विश्वामित्र का तप भंग कर दिया। विश्वामित्र सब कुछ छोड़कर मेनका के ही प्रेम में डूब गए। उन्होंने मेनका के साथ सहवास किया। ऋषि विश्वामित्र का तप अब टूट तो चुका था लेकिन फिर भी मेनका वापस इन्द्रलोक नहीं लौटी। क्योंकि ऐसा करने पर ऋषि फिर से तपस्या आरंभ कर सकते थे। ऐसे में मेनका से विश्वामित्र ने विवाह कर लिया और मेनका से विश्वामित्र को एक सुन्दर कन्या प्राप्त हुई जिसका नाम शकुंतला रखा गया। जब मेनका विश्‍वामित्र को छोड़कर स्वर्ग चली गई तो शकुंतला का लालन-पालन और शिक्षा-दीक्षा ऋषि कण्व ने किया था। बाद में शकुंतला ने सम्राट दुष्यंत से प्रेम विवाह हुआ, जिनसे उन्हें पुत्र की प्राप्ति हुई। यही पुत्र राजा भरत थे। पुरुवंश के राजा दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत की गणना 'महाभारत' में वर्णित 16 सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है।
 
 
4.विश्‍वामित्र और त्रिशंकु : मेनका के जाने के बाद विश्‍वामित्र पुन: कठोर तपस्या में लगे और सिद्ध हो गए। इक्क्षवाकु वंश के राजा त्रिशंकु एक बार सशरीर ही स्वर्ग जाने की इच्छा लेकर अपने गुरु ऋषि वशिष्ठ के पास गए लेकिन वशिष्ठ के मना करने पर वे उनको भला-बुरा कहने लगे। वशिष्ठजी के पुत्रों ने रुष्ट होकर त्रिशंकु को चांडाल हो जाने का शाप दे दिया। तब त्रिशंकु विश्‍वामित्र के पास गए। विश्‍वामित्र ने कहा ‍कि मेरी शरण में आए व्यक्ति की मैं अवश्य ही मदद करता हूं। तब विश्‍वामित्र उन्हें स्वर्ग भेजने के लिए यज्ञ की तैयारी करने लगे।
 
यज्ञ की समाप्ति पर विश्वामित्र ने सब देवताओं का नाम ले-लेकर उनसे अपने यज्ञ भाग को ग्रहण करने के लिए आह्वान किया किंतु कोई भी देवता अपना भाग लेने नहीं आया। इस पर क्रुद्ध होकर विश्वामित्र ने अर्घ्य हाथ में लेकर कहा कि हे त्रिशंकु! मैं तुझे अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग भेजता हूं। इतना कहकर विश्वामित्र ने जल छिड़का और राजा त्रिशंकु शरीर सहित आकाश में चढ़ते हुए स्वर्ग जा पहुंचे। त्रिशंकु को स्वर्ग में आया देख इन्द्र ने क्रोध से कहा कि रे मूर्ख! तुझे तेरे गुरु ने शाप दिया है इसलिए तू स्वर्ग में रहने योग्य नहीं है। इन्द्र के ऐसा कहते ही त्रिशंकु सिर के बल पृथ्वी पर गिरने लगे और विश्वामित्र से अपनी रक्षा की प्रार्थना करने लगे। विश्वामित्र ने उन्हें वहीं ठहरने का आदेश दिया और वे अधर में ही सिर के बल लटक गए।

 
तब विश्वामित्र ने उसी स्थान पर अपनी तपस्या के बल से स्वर्ग की सृष्टि कर दी और नए तारे तथा दक्षिण दिशा में सप्तर्षि मंडल बना दिए। इसके बाद उन्होंने नए इन्द्र की सृष्टि करने का विचार किया जिससे इन्द्र सहित सभी देवता भयभीत होकर विश्वामित्र से अनुनय-विनय करने लगे। वे बोले कि हमने त्रिशंकु को केवल इसलिए लौटा दिया था कि वे गुरु के शाप के कारण स्वर्ग में नहीं रह सकते थे। इन्द्र की बात सुनकर विश्वामित्रजी बोले कि ठीक है और यह स्वर्ग मंडल हमेशा रहेगा और त्रिशंकु सदा इस नक्षत्र मंडल में अमर होकर राज्य करेगा। इस मंडल का कोई इन्द्र नहीं होगा। इससे संतुष्ट होकर इन्द्रादि देवता अपने-अपने स्थानों को वापस चले गए।

 
5.विश्‍वामित्र की तोपस्थली : वैसे तो उनकी तपोस्थली और भी जगह है लेकिन माना जाता है कि हरिद्वार में आज जहां शांतिकुंज है, उसी स्थान पर विश्वामित्र ने घोर तपस्या करके इंद्र से रुष्ट होकर एक अलग ही स्वर्गलोक की रचना कर दी थी। रामायण काल में राम और लक्ष्मण के गुरु महर्षि विश्वामित्र का आश्रम बक्सर (बिहार) में स्थित था। इस स्थान को गंगा-सरयू संगम के निकट बताया गया है। विश्वामित्र के आश्रम को 'सिद्धाश्रम' भी कहा जाता था।
 
 
6.गायत्री मंत्र की रचना : मान्यता अनुसार विश्वामित्र ने इस देश को ऋचा बनाने की विद्या दी और गायत्री मंत्र की रचना की, जो भारत के हृदय में और जिह्ना पर हजारों सालों से आज तक अनवरत निवास कर रहा है।

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