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शादी के लिए क्या जरूरी है उम्र का फासला?

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अनिरुद्ध जोशी

अक्सर शादी के लिए लड़के और लड़कियों के बीच उम्र का फासला रखा जाता है। अधिकतर मामलों में लड़के की उम्र लड़की से बड़ी होती है। बहुत कम मामलों में लड़की की उम्र लड़के से ज्यादा होती है। हालांकि यह समझना भी जरूरी है कि क्यों लड़के और लड़की की उम्र में अंतर होता है?
 
*कुछ लोग तर्क देते हैं कि लड़का बड़ा होगा तो वह लड़की से ज्यादा समझदार होगा और वह सभी बातों में लड़की को सहयोग करेगा।
कुछ लोग ऐसा भी तर्क देते हैं कि लड़कियां अक्सर भावुक होती हैं। यदि लड़के की उम्र लड़की से ज्यादा है तो वह उसे भावनात्मक सहारा दे सकता है।
 
* कुछ लोग इसके लिये तर्क देते हैं कि पुरुषों में ढलती उम्र के लक्षण महिलाओं की तुलना में देर से नजर आते हैं, जबकि महिलाएं जल्दी उम्रदराज नजर आने लगती हैं,ऐसे में उनकी उम्र कम होना ठीक है। लेकिन इस तर्क का कोई खास बायोलॉजिकल आधार नहीं है। बहुत से पुरुष वक्त के पहले ही उम्रदराज दिखने लगते हैं। पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में प्रतिरोधक क्षमता ज्यादा होती है।
 
* कुछ लोगों के अनुसार उम्र में अंतर होने से संबंधों में संतुलन होता है क्योंकि उम्र के साथ व्‍यक्ति की सोच विकसित होने लगती है, वह चीजों को अच्‍छे से समझता है और किसी चीज में संतुलन सही तरीके से बना सकता है। 
 
* यदि दोनों की उम्र समान होगी तो लड़की लड़के को उस तरह का सम्मान नहीं देगी जैसा कि पति को मिलना चाहिये। ऐसे में दोनों के बीच अहम की लड़ाई शुरू हो जाएगी और लड़ाई- झगड़े अधिक होंगे उम्र का अंतर होने पर एक दूसरे का सम्मान और प्यार बना रहता है।
 
लेकिन इस बारे में हिन्दू धर्म क्या कहता हैं, आइये अगले पन्ने पर यह जानते हैं...

कानूनी रूप से विवाह हेतु लड़की की उम्र 18 वर्ष और लड़के की उम्र 21 वर्ष नियुक्त की गई है, जोकि अनुचित है। बायोलॉजिकल रूप से लड़का या लड़की दोनों ही 18 वर्ष की उम्र में विवाह योग्य हो जाते हैं। कानून और परंपरा का हिन्दू धर्म से कोई संबंध नहीं। स्थानीय परंपरा में तो लड़के और लड़कियों का विवाह बचपन में ही कर दिया जाता है और विवाह की परंपराएं भी अजीबोगरीब है। लेकिन इस तरह के रिवाजों का हिन्दू धर्म से कोई नाता नहीं।
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हिन्दू शास्त्रों में प्रमुख 16 संस्कारों में विवाह भी है। यदि वह संन्यास नहीं लेता है तो प्रत्येक व्यक्ति को विवाह करना जरूरी है। विवाह करने से बाद ही पितृऋण चुकाया जा सकता है। वि + वाह = विवाह अर्थात अत: इसका शाब्दिक अर्थ है- विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। विवाह को पाणिग्रहण कहा जाता है।
 
पहली बात : हिन्दू दर्शन के मुताबिक आश्रम प्रणाली में विवाह की उम्र 25 वर्ष थी जिससे बेहतर स्वास्थ्य और कुपोषण की समस्या से छुटकारा मिलता था। ब्रह्मचर्य आश्रम में अपनी पढ़ाई पूर्ण करने के बाद ही व्यक्ति विवाह कर सकता था। आश्रम में पढ़ाई करने वाला व्यक्ति संस्कारवान होता है। आश्रम में लड़कियों और लड़कों दोनों के लिये शिक्षा की व्यवस्था थी। आश्रम में दाखिला लेने की अधिक से अधिक उम्र 7 से 8 वर्ष होती थी। आश्रम के अलावा लड़कियों के लिये घर या उसके आसपास ही कहीं शिक्षा की व्यवस्था होती थी। दरअसल, विवाह संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में 'त्रयोदश संस्कार' है। स्नातकोत्तर जीवन विवाह का समय होता है, अर्थात् विद्याध्ययन के पश्चात विवाह करके गृहस्थाश्रम में प्रवेश करना होता है। शिक्षा विज्ञान के अनुसार 25 साल की उम्र तक शरीर में वीर्य, विद्या, शक्ति और भक्ति का पर्याप्त संचय हो जाता है। इस संचय के आधार पर ही व्यक्ति गृहस्थ आश्रम की सभी छोटी-बड़ी जिम्मेदारियों को निभा पाने में सक्षम होता है।
 
श्रुति का वचन है- दो शरीर, दो मन और बुद्धि, दो ह्रदय, दो प्राण व दो आत्माओं का समन्वय करके अगाध प्रेम के व्रत को पालन करने वाले दंपति उमा-महेश्वर के प्रेमादर्श को धारण करते हैं, यही विवाह का स्वरुप है। हिन्दू संस्कृति में विवाह कभी ना टूटने वाला एक परम पवित्र धार्मिक संस्कार है, यज्ञ है। वर-वधू का जीवन सुखी बना रहे इसके लिए विवाह पूर्व लड़के और लड़की की कुंडली का मिलान कराया जाता है। 
 
दूसरी बात : उम्र में अंतर होने के मामले हिन्दू धर्म कोई खास हिदायत नहीं देता। लड़की की उम्र अधिक हो, समान हो या कि कम हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि दोनों की पढ़ाई अच्छे से संस्कारबद्ध हुई है तो दोनों में ही समझदारी होगी। यदि दोनों ही हिन्दू धर्म के बारे में नहीं जानते हैं और संस्कारवान नहीं है तो उनका विवाह मात्र एक समझौताभर ही रहेगा। यह समझौता कब तक कायम रहेगा यह नहीं कह सकते। 
 
हालांकि वेदों को छोड़कर अन्य धर्मशास्त्रों अनुसार लड़की का विवाह रजस्वला होने के पूर्व ही हो जाना चाहिये। बाल विवाह का प्रचलन इसी धारणा के आधार पर हुआ होगा। वेदानुसार ऐसे व्यक्ति जो सही उम्र से पहले ही संभोग जैसे संबंधों में लिप्त हो जाते हैं उन्हें बुढ़ापा भी जल्द ही आ जाता है। उनका मानसिक विकास भी पर्याप्त नहीं हो पाता। प्रत्येक राज्य में विवाह की उम्र और प्रथा अलग-अलग है, लेकिन उक्त सभी का वेदों से कोई संबंध नहीं।
 
वेदों में स्त्री को पुरुष की सहचरणी, अर्धांगिनी और मित्र माना गया है। इस आधार पर उम्र का अंतर संतुलित होना जरूरी है। जैविका रूप से पुरुष अपनी उम्र से 2 वर्ष कम समझदार होते हैं जबकि महिलायें अपनी उम्र से 2 वर्ष अधिक समझदार होती हैं। अत: उम्र में अंतर रखने की सलाह दी जाती है। पारंपरिक रूप से पुरुष को घर का मुखिया माना जाता है और इसलिए उसे आदर देना आवश्यक होता है। जोड़ी की सामजिक स्वीकृति के लिए यह आवश्यक भी है। अपवाह को छोड़ दे तो प्राचीन काल से ही लड़के की उम्र लड़की से बड़ी होने को सही माना जाता है। इसके पीछे कई तरह के कारण है।

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