ज्योतिष की एक मान्यता अनुसार प्रथम भाव से खानदानी दोष देह पीड़ा, द्वितीय भाव आकाश देवी, तृतीय भाव अग्नि दोष, चतुर्थ भाव प्रेत दोष, पंचम भाव देवी-देवताओं का दोष, छठा भाव ग्रह दोष, सातवां भाव लक्ष्मी दोष, आठवां भाव नाग दोष, नवम भाव धर्म स्थान दोष, दशम भाव पितर दोष, लाभ भाव ग्रह दशा दोष, व्यय भाव पिछले जन्म का ब्रह्म दोष होता है। कहते हैं कि कोई ग्रह किसी भाव में पीड़ित हो, सूर्य दो ग्रहों द्वारा पीड़ित हो तो जिस घर में होगा वही दोष माना जाता है। यहां देव दोष के 5 कारणों को जानते हैं और इसे बचने के उपाय भी पढ़िए।
पहले जान लें देव ऋण के बारे में : देव दोष और देव ऋण दोनों में फर्क है। चार ऋण होते हैं- देव ऋण, ऋषि ऋण, पितृ ऋण और ब्रह्मा ऋण। माना जाता है कि देव ऋण भगवान विष्णु का है। यह ऋण उत्तम चरित्र रखते हुए दान और यज्ञ करने से चुकता होता है। जो लोग धर्म का अपमान करते हैं या धर्म के बारे में भ्रम फैलाते या वेदों के विरुद्ध कार्य करते हैं, उनके ऊपर यह ऋण दुष्प्रभाव डालने वाला सिद्ध होता है।
देव दोष के 5 कारण : ज्योतिष अनुसार देव दोष पिछले पूर्वजों, बुजुर्गों से चला आ रहा होता है, जिसका संबंध देवताओं से होता है।
1. कहते हैं कि किसी जातक ने या उसके परिवार ने या उसके पूर्व सदस्यों ने अपने पुर्वजों, गुरु, पुरोहित, कुलदेवी या देवताओं आदि को मानना छोड़ दिया होगा तो यह दोष प्रारंभ हो जाता है।
2.यह भी हो सकता है कि वे ये सभी मानते हों लेकिन उन्होंने या उनके पूर्वजों ने कभी पीपल का वृक्ष काट दिया होगा या किसी देव स्थान को तोड़ दिया होगा तो भी देव दोष प्रारंभ हो जाता है।
3.कई बार ऐसा भी होता है कि जातक या उसके परिवार ने किसी संत, साधु या किसी अन्य विचारधारा के प्रभाव में आकर देवी, देवता और कुल धर्म को मानना छोड़ दिया हो या वह नास्तिक बन गया हो।
4.माना जाता है कि किसी देवी या देवता से मनौती, मन्नत मांगने पर वह पूरी हो जाती है और उसके एवज में जातक वादा पूरा नहीं करता है तो भी देव दोष उत्पन्न होता है। ऐसा भी हो सकता कि जातक ने पूर्वज ने मन्नत मांगी हो और किए गए वादा को पूरा नहीं किया हो। प्रायः हर व्यक्ति मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए किसी तीर्थ अथवा देवस्थान में जाकर मनौती मांगता है कि हमारी अमुक कामना की पूर्ति के उपरांत हम आपको पूजा, भेंट, दर्शनादि करेंगे। ऐसा नहीं करने पर यह दोष उत्पन्न हो जाता है।
5.यह भी हो सकता है कि किसी जातके पूर्वजों ने अपना धर्म बदल लिया हो और वह किसी अन्य को मानने लगा हो तो उसके इस कर्म का फल उसकी संतानों को भुगतना होता है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने स्वधर्म और कुलधर्म के बारे में विस्तार से वर्णित किया है। ज्योतिष के अनुसार इसका संबंध बृहस्पति तथा सूर्य से होता है। बृहस्पति नीच, सूर्य भी नीच या दोनों बुरे ग्रहों के फेर में हो तो भी यह माना जाता है कि जातक के कुल खानदान का धर्म बदला गया होगा।
इस दोष का असर : इस दोष का असर सर्वप्रथम संतान पर पड़ता है। संतान नहीं होती, होती है तो पीड़ा देने वाली निकलती है। जीवन कभी भी सुखपूर्वक नहीं व्यतीत होता है। हमेशा कुछ न कुछ कष्ट लगा ही रहता है। रोग और शोक चलता ही रहता है। इसका दूसरा असर नौकरी और कारोबार पर भी पड़ता है जिसमें कभी भी स्थायित्व नहीं रहता है।
उपाय : इस दोष से मुक्ति का उपाय यही है कि फिर से कुल देवी-देवता और कुल धर्म का पालन प्रारंभ कर दें। उत्तरमुखी मकान में रहें और कहीं पर भी एक पीपल का वृक्ष लगाकर उसकी सेवा करें। घर में गीता पाठ का आयोजन करें।