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लुप्त 10 भारतीय परम्पराएं और संस्कृति

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अनिरुद्ध जोशी

भारतीय संस्कृति और परंपराएं अब पहले जैसी नहीं रही। कम से कम 25 हजार वर्षों या ज्ञात रूप से 5 हजार वर्षों में बहुत कुछ बदला है। 7वीं सदी में जब अरब और तुर्क आक्रांतानों के अपनी संस्कृति और परम्पराओं को लादा तब भारी परिवर्तन हुआ। आओ जानते हैं ऐसी 10 परंपराएं जो लुप्त हो गई है या बदल गई है।
 
1. पहनावा : धोती-कुर्ता, पायजाना, लुंगी-लहंगा, घाघरा, बंडी, अचकन, वक्षबंधनी, ओढ़नी, उत्तरीय-अंगोछा, पगड़ी-साफा-टोपी, खड़ाऊ, मोजड़ी, सूती या खादी के कपड़े आदि पहनना तो अब लुप्त ही हो गया है। ग्रामीण इलाकों में भी अब लुप्त होने के कगार पर ही है।
 
2. भोजन : अब परंपरागत भोजन में से कुछ तो लुप्त ही हो गए हैं और कुछ में बदलाव हो चला है। पारंपरिक भोजन या लोक व्यंजन अब तीज-त्योहारों पर ही बनते हैं। जैसे मालपुआ, कलाकंद, कन्द, मूल, जो या चने का सत्तू, खिचड़ा आदि। कई भारतीय सब्जियां लुप्त हो चली है। पहले 56 तरह के पकवान होते थे। मिठाईयों में भी बहुत बदलावा हो गया है। बहुत से भारतीय व्यंजन बदलकर अब विदेशी हो गए हैं।
 
3. मिट्टी के बर्तन या पत्तों पर भोजन : प्राचीन भारतीय समय में तांबा, पितल, चांदी, सोना सभी के बर्तन हुआ करते थे फिर भी लोग मिट्टी के बर्तन, खाखरे के पत्ते या केले के पत्ते पर भोजन करते थे। अब यह परंपरा भी गांवों में ही बची है। इनमें खाने के कई लाभ हैं जिनका आयुर्वेद में वर्णन मिलता है। तांबे के लौटे में पानी पीने की यह परंपरा भी लुप्त हो चली है। कांच के गिलास या स्टील के गिलास में पानी पीने का प्रचलन है।
 
4. नीम की दातून करना : पहले नीम या कीकर की छाल या डंडी तोड़कर उससे दांत साफ किए जाते थे। कभी-कभी 4 बूंद सरसों के तेल में नमक मिलाकर भी दांत साफ किए जाते थे। इसके कई फायदे थे।
 
5. सुरमा लगाना : सुरमा दो तरह का होता है- एक सफेद और दूसरा काला। कभी-कभी सुरमा लगाने से जहां आंखों के सभी रोग दूर हो जाते हैं। अब सुरमा की जगह नकली काजल लगाया जाता है। इसी तरह महिलाओं द्वारा बालों में वैणी लगाना भी लगभग लुप्त ही हो चला है। 
 
6. तुलसी और पंचामृत का सेवन : पहले हर घरों में प्रतिदिन तुलसी और पंचामृत का सेवन किया जाता था। इसीलिए प्राचीनकालीन घरों के आंगन में तुलसी का पौधा होता था। अब ना तो आंगन रहे और ना ही इनके सेवन का प्रचलन। इसके सेवन से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता में बढ़ोतरी होती है, बीमारियां दूर भागती हैं और शारीरिक द्रव्यों का संतुलन बना रहता है। 
 
7. लोक नृत्य-गान, लोक संगीत : अब लोक नृत्य या लोक गान बस राज्य के उत्सव के दौरान ही देखने को मिलते हैं। लोक संगीत या शास्त्रीय संगीत भी बहुत कुछ मुगल और पश्‍चिमी प्रभाव से बदल गया है और कुछ तो लुप्त ही हो चला है। लोकसंगीत में बारा मासा, फाग, चैती, कजरी, विरहा, झोड़ा, छपेली, थड़िया, नाटी, लोहड़ी, बाउल गीत के पारंपरिक लोककलाकार लुप्त हो रहे हैं।
 
8. लोकभाषा, लोककला और लोक खेल : लोकभाषा भी अब बदल गई है और कुछ तो लगभग लुप्त होने वाली है। इसी तरह लोककला और लोकखेल भी लुप्त हो चले हैं। पिठ्ठू, सतोलिया, गुलिडण्डा, चार-भर, शेर-बकरी आदि खेल हमारी खेल परंपरा से बाहर हो गए।
 
9. संयुक्त परिवार : अपने से बड़ों के पैर छूना, बड़ों के सामने जोर से न बोलना, महिलाओं का सम्मान करना, संयुक्त परिवार में रहना, दादी-नानी का कहानी सुनाना, माताओं द्वारा बच्चों को लोरी गाकर सुलाना, हाथ जोड़कर अभिवादन करना, मटकी का पानी, बिना स्नान किये रसोई में न जाना, पहली रोटी गाय की अंतिम रोटी कुत्ते की नीयत होना, सुबह पृथ्वी पर पांव रखने से पहले पृथ्वी को नमन करना, पहले बड़े बुजुर्गो और बच्चों को भोजन कराना। तिलक लगाना, अतिथि के विदाई के समय भी तिलक करना आदि कई सामाजिक व्यवहार लुप्त हो गए है।
 
10. 16 संस्कार : अब लोग विवाह और अंतिम संस्कार ही करते हैं और वह भी विधिवत नहीं। 16 संस्कारों में से अधिकांश तो पहले ही गायब थे, बचे-खुचे भी औपचारिकता के तौर पर ही जीवित है। गोद भराई की रस्म या सौहर गाने का रिवाज शहरों में कहीं दिखाई नहीं देता। हमारे सोलह संस्कार- गर्भाधान, पुंसवन, जातकर्म, सीमन्तोन्नयन, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकर्म (बच्चे के बाल पहली बार काटना),कर्णछेदन, विद्यारंभ, केशान्त,  यज्ञोंपवीत, वेदारम्भ, समावर्तन, विवाह और अंत्येष्टि।
 

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