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मंदिर में ईश्वर की पूजा क्यों नहीं होती?

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अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'

प्रश्न : क्या ईश्वर एक है या अनेक हैं? एक है तो क्या वह साकार है या निराकार है? यदि ऐसा है तो फिर देवी और देवता कौन हैं? फिर मंदिर में ईश्‍वर की प्रार्थना क्यों नहीं होती?
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उत्तर : ईश्वर एक है और वह निराकार है। 'एकम् ब्रह्म, द्वितीय नास्ते, नेह-नये नास्ते, नास्ते किंचन' अर्थात ईश्वर एक ही है, दूसरा नहीं है, नहीं है, नहीं है, जरा भी नहीं है।- ब्रह्म सूत्र 
 
ईश्वर के प्रतिनिधि देवी, देवता और भगवान हैं। देवताओं की मुख्‍य संख्‍या 33 बताई गई है, लेकिन उनके गण सैकड़ों हैं। ब्रह्मा, विष्णु, शिव, राम और कृष्ण आदि देवता नहीं हैं, ये सभी भगवान हैं। ईश्वर और भगवान शब्द का अर्थ अलग-अलग है। ईश्वर को परमेश्वर, ब्रह्म, परमात्मा और सच्चिदानंद कहा गया है।
 
ईश्वर की पूजा नहीं प्रार्थना की जाती है: वैसे सभी तरह की पूजा ईश्वर के निमित्त ही होती है।... मंदिर, देवालय, द्वारा और शिवालय ये सभी अलग-अलग होते हैं, लेकिन आजकल सभी को मंदिर माना जाता है। देवालय किसी देवता का, शिवालय शिव का और द्वारा ‍किसी गुरु का होता है। मंदिर तो परमेश्वर के प्रर्थना करने का स्थान है। मंदिर में जाकर भी निराकार ईश्वर के प्रति संध्या वंदन की जाती है। संध्या वंदन के समय किसी भी स्थान पर बैठक संध्या की जा सकती है। आठ प्रहर की संध्या में दो वक्त की संध्या महत्वपूर्ण होती है। वारों में रविवार और गुरुवार की संध्या का महत्व होता है। आगे क्लिक करें... संध्या वंदन में पूजा, आरती, प्रार्थना या करें ध्यान?
 
ईश्वर क्या है? : ईश्वर न तो भगवान है, न देवता, न दानव और न ही प्रकृति या उसकी अन्य कोई शक्ति। ‍ईश्वर एक ही है, अलग-अलग नहीं। ईश्वर अजन्मा है। जिन्होंने जन्म लिया है और जो मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं या फिर अजर-अमर हो गए हैं, वे सभी ईश्वर नहीं हैं। ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी ईश्वर नहीं है। ईश्वर या परब्रह्म को पुराणों में काल और सदाशिव के नाम से जाना गया है। 
 
उसकी कोई मूर्ति नहीं : 'न तस्य प्रतिमा अस्ति' अर्थात उसकी कोई मूर्ति (पिक्चर, फोटो, छवि, मूर्ति आदि) नहीं हो सकती। 'न सम्द्रसे तिस्थति रूपम् अस्य, न कक्सुसा पश्यति कस कनैनम' अर्थात उसे कोई देख नहीं सकता, उसको किसी की भी आंखों से देखा नहीं जा सकता। -छांदोग्य और श्वेताश्वेतारा उपनिषद। यजुर्वेद के 32वें अध्याय का 

हालांकि इसका एक अर्थ यह भी निकाला जाता है कि उसके जैसी किसी ओर की प्रतिमा नहीं। अर्थात उसकी प्रतिमा अद्वितिय है।

यजुर्वेद के 32वें अध्याय में कहा गया है कि "न तस्य प्रतिमा अस्ति यस्य नाम महाद्यश:। हिरण्यगर्भस इत्येष मा मा हिंसीदित्येषा यस्मान जात: इत्येष:।।'
अर्थात, जिस परमात्मा की हिरण्यगर्भ, मा मा और यस्मान जात आदि मंत्रों से महिमा की गई है उस परमात्मा (आत्मा) का कोई प्रतिमान नहीं।
 
निराकार है ईश्वर : 'जिसे कोई नेत्रों से भी नहीं देख सकता, परंतु जिसके द्वारा नेत्रों को दर्शन शक्ति प्राप्त होती है, तू उसे ही ईश्वर जान। नेत्रों द्वारा दिखाई देने वाले जिस तत्व की मनुष्य उपासना करते हैं, वह ईश्‍वर नहीं है। जिनके शब्द को कानों द्वारा कोई सुन नहीं सकता किंतु जिनसे इन कानों को सुनने की क्षमता प्राप्त होती है उसी को तू ईश्वर समझ। परंतु कानों द्वारा सुने जाने वाले जिस तत्व की उपासना की जाती है, वह ईश्वर नहीं है। जो प्राण के द्वारा प्रेरित नहीं होता किंतु जिससे प्राणशक्ति प्रेरणा प्राप्त करता है उसे तू ईश्‍वर जान। प्राणशक्ति से चेष्टावान हुए जिन तत्वों की उपासना की जाती है, वह ईश्वर नहीं है।' 4, 5, 6, 7, 8।- केनोपनिषद।

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