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'वर्ण व्यवस्था' को मानना चाहिए या नहीं?

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हिन्दू समाज पर वर्तमान में कलंक की तरह नजर आती है जातिवादी व्य‍वस्था। इसको पिछले 70 वर्षों में जितना बढ़ाया और चमकाया गया उतना गुलामी के काल में भी शायद नहीं किया गया होगा। हालांकि अंग्रेजों ने हिन्दुओं को बहुत से उपनाम से सुशोभित करके उनको और भी जातियों में बांटने का काम जरूर किया। आजकल तो इसे हवा देने वाले लोगों की संख्या भी पर्याप्त हो चली है। ऐसे में अब सवाल यह उठता है कि 'वर्ण व्यवस्था' को मानना चाहिए या नहीं?
उत्तर : नहीं। वर्णाश्रम (इसमें कोई आश्रम को नहीं समझता) को गलत ही माना जाएगा, क्योंकि किसी भी काल में हिन्दू अपने धर्मग्रंथ पढ़कर इस व्यवस्था के सच को कभी नहीं समझा, तो आगे भी इसकी कोई गारंटी नहीं। हर काल में इस व्यवस्था को आधार बनाकर राजनीति की जाती रही है और समाज को तोड़ा ही जाता रहा है। जो व्यक्ति इस व्यवस्था को मानता है वह हिन्दू धर्म का विरोधी है। जबकि ध्यान से देखा जाएगा तो प्रत्येक धर्म में अन्य रूप में यह व्यवस्था विद्यमान है। सभी धर्मों या समाज में पुरोहित, सैनिक, व्यापारी और सेवक आदि वर्ग होता है।

 
कभी किसी ने यह जांच नहीं की कि जिस मनुस्मृति में वर्णव्यवस्था का उल्लेख है वह कहां से छपी है? क्या वह असली है या कि क्या उसमें हेरफेर किया गया है? क्या वह गीता प्रेस गोरखपुर से छपी है या पश्चिम बंगाल, केरल या इलाहाबाद के किसी प्रकाशन समूह ने छापी है? दूसरी बात मनुस्मृति हिन्दुओं का धर्मग्रंथ नहीं है। धर्मग्रंथ तो मात्र वेद ही हैं। वेदों का सार उपनिषद और उपनिषदों का सार गीता है। कितने हिन्दू हैं जिन्होंने उपनिषद और गीता को पढ़ा और समझा है? इन्हें पढ़ने के लिए किसी उपनयन संस्कार की जरूरत नहीं है।

 
तीसरी बात व्यवस्था का धर्म से कोई संबंध नहीं। हम ऊपर पहले लिख आए हैं कि पुराण, रामायण और स्मृति ग्रंथ को हिन्दुओं का धर्मग्रंथ नहीं माना जाता जा सकता। गीता ही एकमात्र धर्मग्रंथ है, जो वेदों का सार है। 
 
वर्णाश्रम किसी काल में अपने सही रूप में था, लेकिन अब इसने जाति और समाज का रूप ले लिया है, जो कि अनुचित है। प्राचीनकाल में किसी भी जाति, समूह या समाज का व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या दास बन सकता था। पहले रंग, फिर कर्म पर आधारित यह व्यवस्था थी, लेकिन जाति में बदलने के बाद यह विकृत हो चली है।
 
उदाहरणत:, चार मंजिल के भवन में रहने वाले लोग ऊपर-नीचे आया-जाया करते थे। जो ऊपर रहता था वह नीचे आना चाहे तो आ जाता था और जो नीचे रहता था वह अपनी योग्यतानुसार ऊपर जाना चाहे, तो जा सकता था। लेकिन जबसे ऊपर और नीचे आने-जाने की सीढ़ियां टूट गई हैं, तब से ऊपर का व्यक्ति ऊपर और नीचे का नीचे ही रहकर विकृत मानसिकता का हो गया है।
 
दूसरा उदाहरण : बहुत से लोग यह कहते हैं कि शूद्रों को प्रभु का चरण (पैर) माना गया है। हाथों को छत्रिय की उपाधी दी गई, मस्तक को ब्राह्मण की और वैश्यों को जंघा और शरीर का अन्य अंग। यदि ऐसा माना गया है तो पैर शरीर में सबसे कर्मठ होते हैं। प्रभु के चरणों की ही सबसे पहले पूजा की जाती है। पैरों के बगैर इस देह की कोई गति नहीं, दुर्गती हो जाएगी। जिसे जो अंग बनना हो वह बन जाएं।
 
।।जन्मना जायते शूद्र:, संस्काराद् द्विज उच्यते। -मनुस्मृति
अर्थात मनुष्य शूद्र (छोटा) के रूप में उत्पन्न होता है तथा संस्कार से ही द्विज (दूसरा जन्म लेने वाला) बनता है। इस द्विज को कई लोग ब्राह्मण जाति का मानते हैं लेकिन कई ब्राह्मण द्विजधारी नहीं है।
 
मनुस्मृति का वचन है- 'विप्राणं ज्ञानतो ज्येष्ठम् क्षत्रियाणं तु वीर्यत:।' अर्थात ब्राह्मण की प्रतिष्ठा ज्ञान से है तथा क्षत्रिय की बल वीर्य से। जावालि का पुत्र सत्यकाम जाबालि अज्ञात वर्ण होते हुए भी सत्यवक्ता होने के कारण ब्रह्म-विद्या का अधिकारी समझा गया।
 
यदि इतिहास का अच्छे से अध्ययन किया जाएगा तो पता चलेगा कि प्राचीन वैदिक काल में कोई भी व्यक्ति जो किसी भी जाति या समाज का हो वह ब्राह्मण बनने के लिए स्वतंत्र था और आज भी यह स्वतंत्र है। वर्तमान की जातियों के इतिहास को खंगालने जाएंगे तो कई उच्च जातियां आज निचली जातियों में‍ गिनी जाती है और कई निचली जातियों की गणना उच्च जातियों में की जाती है। वर्तमान में जिस तरह की जातियां है यदि उसी तरह के जातिवादी बनकर सोचे तो शिव, काली, भैरव, मातंगी, वनदेवी, हनुमान, दस महाविद्या आदि कई देवी और देवता तो दलित ही माने जाएंगे!

दरअसल, प्राचीनकाल में देव (सुर), दैत्य (असुर), रक्ष (राक्षस), यक्ष, दानव, नाग, किन्नर, गंधर्व, भल्ल, वराह, किरात, वानर, कूर्म, कमठ, कोल, यातुधान, पिशाच, बेताल, चारण, विद्याधर आदि जातियां हुआ करती थीं। देव और असुरों के झगड़े के चलते धरती के अधिकतर मानव समूह दो भागों में बंट गए। पहले बृहस्पति और शुक्राचार्य की लड़ाई चली, फिर गुरु वशिष्ठ और विश्‍वामित्र की लड़ाई चली। इन लड़ाइयों के चलते समाज दो भागों में बंटता गया। आर्य उसे कहते थे जो वेदों को मानता था और जो वेदों को नहीं मानता था उसे अनार्य मान लिया जाता था फिर वह किसी भी जाति समाज या संप्रदाय का हो। आर्य किसी प्रकार की जाति नहीं थीं बल्कि एक विशेष विचारधारा को मानने वालों का समूह था। आर्य का अर्थ होता है श्रेष्ठ।

आज के शब्दों का इस्तेमाल करें तो ये लोग दलित थे- ऋषि कवास इलूसू, ऋषि वत्स, ऋषि काकसिवत, महर्षि वेद व्यास, महर्षि महिदास अत्रैय, महर्षि वाल्मीकि, हनुमानजी के गुरु मातंग ऋषि आदि ऐसे महान वेदज्ञ हुए हैं जिन्हें आज की जातिवादी व्यवस्था दलित वर्ग का मान सकती है। ऐसे हजारों नाम गिनाएं जा सकते हैं जो सभी आज के दृष्टिकोण से दलित थे। वेद को रचने वाले, स्मृतियों को लिखने वाले और पुराणों को गढ़ने वाले सभी क्या और कौन थे? यह जानना का कोई प्रायास नहीं करता। जो अंग्रेज पढ़ा कर गए और जो वामपंथियों ने पढ़ा दिया वही सत्य है।

ऋग्वैदिक ऋषियों के नाम के आगे वर्तमान में लिखे जाने वाले पंडित, चतुर्वेदी, त्रिपाठी, सिंह, राव, गुप्ता, नंबूदरी जैसे जातिसूचक शब्द नहीं होते थे। ऋग्वेद की ऋचाओें में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों के है।

हिंदुओ को विभाजित रखने के उद्देश्य से ब्रिटिश राज में उनके कर्मचारियों द्वारा हिंदुओ को तकरीबन 2,378 जातियों में विभाजित कर दिया गया। इतना ही नहीं 1891 की जनगणना में केवल मोची (चमार) की ही लगभग 1156 उपजातियों को रिकार्ड किया गया। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि आज तक कितनी जातियां-उपजातियां बनाई जा चुकी होगी। इससे पहले अकबर और औरंगजेब के काल में हिन्दुओं का क्षेत्र और कार्य अनुसार हजारों पद और नाम दिए गए ‍जो बाद में जाति बन गए। उस काल में ब्राह्मणों की हजारों जातियों का निर्माण किया जो आज भी प्रचलन में है। गुलामी के इस काल की दास्तां कोई नहीं उजागर करता है। 

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