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हिन्दू धर्म के ऐसे 10 त्योहार, जो जुड़े हैं प्रकृति से...

हमें फॉलो करें हिन्दू धर्म के ऐसे 10 त्योहार, जो जुड़े हैं प्रकृति से...
हिन्दू धर्म के अधिकतर त्योहार या पर्व खगोलीय घटना, प्राकृतिक बदलाव, मौसम-परिवर्तन, सौर मास, चंद्रमास और नक्षत्र मास के महत्वपूर्ण दिनों और पर्यावरण सुरक्षा से जुड़े हैं। मानव जीव प्रकृति और खगोलीय घटनाओं से संचालित होता रहता है इसलिए उसको प्रकृति के अनुसार किस तरह जीवन जीना चाहिए और प्रकृति के बुरे प्रभावों से किस तरह बचकर रहना चाहिए, यह अच्छी तरह से प्राचीन ऋषि- मुनि बता गए हैं।

 
वेदों में प्रकृति को ईश्वर का साक्षात रूप मानकर उसके हर रूप की वंदना की गई है। इसके अलावा आसमान के तारों और आकाश मंडल की स्तुति कर उनसे रोग और शोक को मिटाने की प्रार्थना की गई है। धरती और आकाश की प्रार्थना से हर तरह की सुख-समृद्धि पाई जा सकती है।
 
वर्ष में 6 ऋतुएं होती हैं- 1. शीत-शरद, 2. बसंत, 3. हेमंत, 4. ग्रीष्म, 5. वर्षा और 6. शिशिर। ऋतुओं ने हमारी परंपराओं को अनेक रूपों में प्रभावित किया है। बसंत, ग्रीष्म और वर्षा देवी ऋतु हैं तो शरद, हेमंत और शिशिर पितरों की ऋतु है।
 
वसंत से नववर्ष की शुरुआत होती है। वसंत ऋतु चैत्र और वैशाख माह अर्थात मार्च-अप्रैल में, ग्रीष्म ऋतु ज्येष्ठ और आषाढ़ माह अर्थात मई जून में, वर्षा ऋतु श्रावण और भाद्रपद अर्थात जुलाई से सितम्बर, शरद ऋतु अश्‍विन और कार्तिक माह अर्थात अक्टूबर से नवम्बर, हेमन्त ऋतु मार्गशीर्ष और पौष माह अर्थात दिसंबर से 15 जनवरी तक और शिशिर ऋतु माघ और फाल्गुन माह अर्थात 16 जनवरी से फरवरी अंत तक रहती है।
 
जिस तरह इन मौसम में प्रकृति में परिवर्तन होता है, उसी तरह हमारे शरीर और मन-मस्तिष्क में भी परिवर्तन होता है। और, जिस तरह प्रकृति के तत्व जैसे वृक्ष-पहाड़, पशु-पक्षी आदि सभी उस दौरान प्रकृति के नियमों का पालन करते हुए उससे होने वाली हानि से बचने का प्रयास करते हैं उसी तरह मानव को भी ऐसा करने की ऋषियों ने सलाह दी। उस दौरान ऋषियों ने ऐसे त्योहार और नियम बनाए जिनका कि पालन करने से व्यक्ति सुखमय जीवन व्यतीत कर सके।
 
हिन्दू धर्म में प्रकृति पूजा के महत्व को समझे बगैर कुछ बुद्धिजीवी इसको ईश्‍वर विरोधी या आदिम रूढ़ि कहकर इसकी आलोचना करते रहते हैं। आलोचना करना बहुत आसान है, क्योंकि जो जिंदगी में कुछ नहीं कर पाता वह आलोचक बन जाता है। खैर... आओ हम जानते हैं 10 प्राकृतिक त्योहारों के बारे में...
 
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नवसंवत्सर : मार्च का माह प्राचीनकाल से ही नए वर्ष की शुरुआत का माह माना जाता रहा है। जब से ईसाई धर्म की उत्पत्ति हुई उन्होंने इस प्राकृतिक और खगोलीय नववर्ष को बदल दिया और संपूर्ण दुनिया पर अपना अवैज्ञानिक कैलेंडर लाद दिया। नवसंवत्सर के बाद तो कैलेंडरों की भरमार हो गई। भारतीय खगोलविदों को हाशिए पर धकेल दिया गया। 
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चैत्र मासे जगद्ब्रह्म समग्रे प्रथमेऽनि
शुक्ल पक्षे समग्रे तु सदा सूर्योदये सति। -ब्रह्मपुराण
 
चैत्र माह की प्रतिपदा को ही नववर्ष की शुरुआत होती है, जो कि पूर्णत: वैज्ञानिक है। यह शुरुआत किसी प्रॉफेट के जन्मदिन, मरणदिन या अन्य दिन से नहीं होती है। यह शुरुआत सूर्य के गति बदलने से होती है। 21 मार्च एक ऐसा दिन है जबकि धरती सूर्य का 1 चक्कर पूर्ण कर लेती है। प्राचीन अरब, रोम और यूनान के लोग भी इस चैत्र माह को नववर्ष मानते थे। 
 
नवसंवत्सर को हर राज्यों में अलग-अलग नामों से जाता जाता है। महाराष्ट्र में इसे 'गुड़ी पड़वा' कहा जाता है। चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा वसंत ऋतु में आती है। वसंत ऋतु में वृक्ष, लता फूलों से लदकर आल्हादित होते हैं जिसे मधुमास भी कहते हैं। इस नवसंवत्सर के आरंभकर्ता महाराज विक्रमादित्य थे जिन्होंने खगोलविदों की सलाह पर विक्रम संवत शुरू किया।
 
आंध्रप्रदेश में युगदि या उगादि तिथि कहकर इस सत्य की उद्घोषणा की जाती है। सिंधु प्रांत में इस नवसंवत्सर को 'चेटी चंडो' चैत्र का चंद्र नाम से पुकारा जाता है जिसे सिंधी हर्षोल्लास से मनाते हैं। कश्मीर में यह पर्व 'नौरोज' के नाम से मनाया जाता है। इस दिन सूर्य, नीम की पत्तियां, अर्घ्य, पूरनपोळी, श्रीखंड और ध्वजा पूजन का विशेष महत्व होता है।
 
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संक्रांति दिवस : सूर्य के एक राशि से दूसरी राशि में जाने को ही संक्रांति कहते हैं। एक संक्रांति से दूसरी संक्रांति की अवधि ही सौर मास है। वैसे तो सूर्य संक्रांति 12 हैं, लेकिन इनमें से 4 संक्रांति ही महत्वपूर्ण हैं जिनमें मेष, तुला, कर्क और मकर संक्रांति हैं।
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मकर संक्रांति : सूर्य जब मकर राशि में जाता है तो उत्तरायन गति करने लगता है। उत्तरायन अर्थात उस समय धरती का उत्तरी गोलार्ध सूर्य की ओर मुड़ जाता है तो उत्तर ही से सूर्य निकलने लगता है। पूर्व की जगह वह उत्तर से निकलकर गति करता है। इसे सोम्यायन भी कहते हैं। 6 माह सूर्य उत्तरायन रहता है और 6 माह दक्षिणायन। उत्तरायन को देवताओं का दिवस माना जाता है और दक्षिणायन को पितरों आदि का दिवस। मकर संक्रांति से अच्छे-अच्छे पकवान खाने के दिन शुरू हो जाते हैं। इस दिन खिचड़ी का भोग लगाया जाता है। गुड़-तिल, रेवड़ी, गजक का प्रसाद बांटा जाता है। मकर संक्रांति के शुभ मुहूर्त में स्नान, दान व पुण्य का विशेष मह‍त्व है। साथ ही इस दिन पतंग उड़ाई जाती है, तो इसे पतंगोत्सव भी कहते हैं।
 
भगवान श्रीकृष्ण ने भी उत्तरायन का महत्व बताते हुए गीता में कहा है कि उत्तरायन के 6 मास के शुभ काल में, जब सूर्य देव उत्तरायन होते हैं और पृथ्वी प्रकाशमय रहती है, तो इस प्रकाश में शरीर का परित्याग करने से व्यक्ति का पुनर्जन्म नहीं होता, ऐसे लोग ब्रह्म को प्राप्त हैं। इसके विपरीत सूर्य के दक्षिणायण होने पर पृथ्वी अंधकारमय होती है और इस अंधकार में शरीर त्याग करने पर पुनः जन्म लेना पड़ता है। यही कारण था कि भीष्म पितामह ने शरीर तब तक नहीं त्यागा था, जब तक कि सूर्य उत्तरायन नहीं हो गया। 14 जनवरी के बाद सूर्य उत्तरायन हो जाता है।
 
मेष संक्रांति : सूर्य जब मेष राशि में संक्रमण करता है तो उसे मेष संक्रांति कहते हैं। मीन राशि से मेष राशि में सूर्य का प्रवेश होता है। खगोलशास्त्र के अनुसार सूर्य उत्तरायन की आधी यात्रा पूर्ण कर लेते हैं। चंद्रमास अनुसार यह बैसाख माह की शुरुआत का दिन भी होता है, तो इस दिन पंजाब में बैसाख पर्व मनाया जाता है। बैसाखी के समय आकाश में विशाखा नक्षत्र होता है। विशाखा युवा पूर्णिमा में होने के कारण इस माह को बैसाखी कहते हैं। इस प्रकार वैशाख मास के प्रथम दिन को बैसाखी कहा गया और पर्व के रूप में स्वीकार किया गया। 
 
भारतभर में बैसाखी का पर्व सभी जगह मनाया जाता है। इसे दूसरे नाम से 'खेती का पर्व' भी कहा जाता है। कृषक इसे बड़े आनंद और उत्साह के साथ मनाते हुए खुशियों का इजहार करते हैं। पंजाब की भूमि से जब रबी की फसल पककर तैयार हो जाती है, तब यह पर्व मनाया जाता है। 
 
तुला संक्रांति : सूर्य का तुला राशि में प्रवेश तुला संक्रांति कहलाता है। यह प्रवेश अक्टूबर माह के मध्य में होता है। तुला संक्रांति का कर्नाटक में खास महत्व है। इसे ‘तुला संक्रमण’ कहा जाता है। इस दिन ‘तीर्थोद्भव’ के नाम से कावेरी के तट पर मेला लगता है, जहां स्नान और दान-पुण्‍य किया जाता है। इस तुला माह में गणेश चतुर्थी की भी शुरुआत होती है। कार्तिक स्नान प्रारंभ हो जाता है।
 
कर्क संक्रांति : मकर संक्रांति से लेकर कर्क संक्रांति के बीच के 6 मास के समयांतराल को उत्तरायन कहते हैं। कर्क संक्रांति से लेकर मकर संक्रांति के बीच के 6 मास के काल को दक्षिणायन कहते हैं। इसे याम्यायनं भी कहते हैं। सूर्य इस दिन मिथुन राशि से निकलकर कर्क राशि में प्रवेश करते हैं। दक्षिणायन के दौरान वर्षा, शरद और हेमंत- ये 3 ऋतुएं होती हैं। दक्षिणायन के समय रातें लंबी हो जाती हैं और दिन छोटे होने लगते हैं। दक्षिणायन में सूर्य दक्षिण की ओर झुकाव के साथ गति करता है। कर्क संक्राति जुलाई के मध्य में होती है। 
 
धार्मिक मान्यता के अनुसार दक्षिणायन का काल देवताओं की रात्रि है। कर्क संक्रांति से जप, तप, व्रत और उपवासों के पर्व शुरू हो जाते हैं। दक्षिणायन में विवाह, मुंडन, उपनयन आदि विशेष शुभ कार्य निषेध माने जाते हैं।
 
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सूर्य की आराधना का पर्व छठ पूजा : छठ पूजा अथवा छठ पर्व कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाता है। इस दिन सूर्य को सामूहिक रूप से अर्घ्य दिया जाता है। सूर्य आराधना के इस पर्व को पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। लोक परंपरा के अनुसार सूर्यदेव और छठी मइया का संबंध भाई-बहन का है। लोक मातृका षष्ठी की पहली पूजा सूर्य ने ही की थी। षष्ठी देवी को स्कंद की पत्नी 'देवसेना' के नाम से पूजा जाता है। स्कंद को कार्तिकेय भी कहा जाता है, जो भगवान शिव के पुत्र हैं।
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छठ पर्व की परंपरा में बहुत ही गहरा विज्ञान छिपा हुआ है। षष्ठी तिथि (छठ) एक विशेष खगोलीय अवसर है। उस समय सूर्य की पराबैंगनी किरणें पृथ्वी की सतह पर सामान्य से अधिक मात्रा में एकत्र हो जाती हैं। उसके संभावित कुप्रभावों से मानव की यथासंभव रक्षा करने का सामर्थ्‍य इस परंपरा में है। छठ पर्व के पालन से सूर्य (तारा) प्रकाश (पराबैंगनी किरण) के हानिकारक प्रभाव से जीवों की रक्षा संभव है।
 
अगले पन्ने पर चौथा पर्व...
 

बसंत पंचमी : जब फूलों पर बहार आ जाती है, खेतों में सरसों का सोना चमकने लगता है, जौ और गेहूं की बालियां खिलने लगती हैं, आमों के पेड़ों पर बौर आ जाते हैं और हर तरफ तितलियां मंडराने लगती हैं, तब वसंत पंचमी का त्योहार आता है। इसे ऋषि पंचमी भी कहते हैं। वसंत ऋतु में मानव तो क्या, पशु-पक्षी तक उल्लास भरने लगते हैं।

बसंत पंचमी के बारें में जानिए विस्तार से.. प्रेम का इजहार करने का दिन 
 
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यूं तो माघ का पूरा मास ही उत्साह देने वाला होता है, पर वसंत पंचमी का पर्व कुछ खास महत्व रखता है। यह भारतीय लोगों के लिए खास है। वेलेंटाइन डे की तरह यह प्रेम-इजहार का विशेष दिन है। इस दिन ज्ञान की देवी मां सरस्वती का जन्मदिवस भी मनाया जाता है।
 
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गंगा दशहरा : भारतीय धार्मिक पुराणों के अनुसार गंगा दशहरा के दिन गंगा स्नान का विशेष महत्व है। इस दिन स्वर्ग से गंगा का धरती पर अवतरण हुआ था इसलिए यह महापुण्यकारी पर्व माना जाता है।

गंगा दशहरा के दिन सभी गंगा मंदिरों में भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है, वहीं इस दिन मोक्षदायिनी गंगा का पूजन-अर्चन भी किया जाता है। इस दिन दान-पुण्य और ध्यान-स्नान करने से 10 तरह के पापों का नाश हो जाता है इसीलिए इसे गंगा दशहरा कहते हैं।
 
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धुलेंडी और होली : होली-धुलेंडी का त्योहार भी मौसम परिवर्तन की सूचना देता है। पौराणिक शास्त्रों में फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से लेकर होलिका दहन तक की अवधि को होलाष्टक कहा गया है। होलाष्टक के दिन होलिका दहन के लिए 2 डंडे स्थापित किए जाते हैं जिनमें से एक को होलिका तथा दूसरे को प्रहलाद माना जाता है। होलिका दहन के लिए पेड़ों से टूटकर गिरी हुईं लकड़‍ियां उपयोग में ली जाती हैं तथा हर दिन इस ढेर में कुछ-कुछ लकड़‍ियां डाली जाती हैं। इन दिनों शुभ कार्य करने पर अपशकुन होता है। 
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शरद ऋतु की समाप्ति और बसंत ऋतु के आगमन का यह काल पर्यावरण और शरीर में बैक्टीरिया की वृद्धि को बढ़ा देता है। लेकिन जब होलिका जलाई जाती है तो उससे करीब 145 डिग्री फारेनहाइट तक का तापमान बढ़ता है। परंपरा के अनुसार जब लोग जलती होलिका की परिक्रमा करते हैं तो होलिका से निकलता ताप शरीर और आसपास के पर्यावरण में मौजूद बैक्टीरिया को नष्ट कर देता है और इस प्रकार यह शरीर तथा पर्यावरण को स्वच्छ करता है।
 
होली के मौके पर लोग अपने घरों की भी साफ-सफाई करते हैं जिससे धूल-गर्द, मच्छरों और अन्य कीटाणुओं का सफाया हो जाता है। एक साफ-सुथरा घर आमतौर पर उसमें रहने वालों को सुखद अहसास देने के साथ ही सकारात्मक ऊर्जा भी प्रवाहित करता है। 
 
होली का त्योहार साल में ऐसे समय पर आता है, जब मौसम में बदलाव के कारण लोग उनींदे और आलसी से होते हैं। ठंडे मौसम के गर्म रुख अख्तियार करने के कारण शरीर में कुछ थकान और सुस्ती महसूस करना प्राकृतिक है। शरीर की इस सुस्ती को दूर भगाने के लिए ही लोग फाग के इस मौसम में उत्सव मनाकर इस मौसम की सुस्तता दूर करते हैं।
 
अगले पन्ने पर सातवां पर्व...
 

आंवला नवमी पूजा : महिलाओं द्वारा यह नवमी पुत्ररत्न की प्राप्ति के लिए मनाई जाती है। कार्तिक मास की शुक्ल पक्ष की नवमी को महिलाएं आंवले के पेड़ की विधि-विधान से पूजा-अर्चना कर अपनी समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए प्रार्थना करती हैं। आंवला नवमी को अक्षय नवमी के रूप में भी जाना जाता है।
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इस दिन द्वापर युग का प्रारंभ हुआ था। कहा जाता है कि आंवला भगवान विष्णु का पसंदीदा फल है। पौराणिक मान्यता के अनुसार कार्तिक शुक्ल पक्ष की नवमी से लेकर पूर्णिमा तक भगवान विष्णु आंवले के पेड़ पर निवास करते हैं इसलिए इसकी पूजा करने का विशेष महत्व होता है।

आंवले के पेड़ की पूजा कर 108 बार परिक्रमा करने से मनोकामनाएं पूरी होती हैं। पूजा-अर्चना के बाद खीर-पूड़ी, सब्जी और मिष्ठान्न आदि का भोग लगाया जाता है। 
 
अगले पन्ने पर आठवां पर्व...
 

वट सावित्री : वट सावित्री व्रत पति की लंबी आयु, सौभाग्य, संतान की प्राप्ति की कामना पूर्ति के लिए किया जाता है। वट को 'बरगद' भी कहते हैं। इस वृक्ष में सकारात्मक शक्ति और ऊर्जा का भरपूर संचार रहता है। इसके सान्निध्य में रहकर जो भी मनोकामना की जाती है वह पूर्ण हो जाती है। हिन्दू धर्म में वृक्षों को ईश्‍वर का प्रतिनिधि माना गया है। वटवृक्ष दीर्घायु और अमरत्व के बोध का प्रतीक भी है। माता पार्वती ने अपने हाथों से 4 वट लगाए थे। उज्जैन में सिद्धवट, प्रयाग में अक्षयवट, मथुरा में वंशीवट, गया में गयावट। नासिक में भी एक वट है जिसे पंचवट के नाम से जाना जाता है।
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स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार यह पर्व ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा और कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है। इस दिन वट वृक्ष की 7 परिक्रमा लगाकर उसकी पूजा-अर्चना की जाती है। इसे वट सावित्री इसलिए कहा जाता है, क्योंकि सावित्री के पति सत्यवान वट ने नीचे ही चक्कर खाकर गिर पड़े तो और अंत में यमराज उनको लेने आए तो सावित्री ने उन्हें पहचान लिया और कहा कि आप मेरे सत्यवान के प्राण न लें। इसी वटवृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने पतिव्रत धर्म से मृत पति को पुन: जीवित कराया था, तभी से यह व्रत ‘वट सावित्री व्रत’ के नाम से जाना जाता है। हालांकि वट पूजा का प्रचलन इस घटना से पूर्व भी था।
 
अगले पन्ने पर नौवां पर्व...
 

तुलसी विवाह और पूजा : भारत में तुलसी का महत्वपूर्ण स्थान है। देवता जब जागते हैं तो सबसे पहली प्रार्थना हरिवल्लभा तुलसी की ही सुनते हैं इसीलिए तुलसी विवाह को देव जागरण के पवित्र मुहूर्त के स्वागत का सुंदर उपक्रम माना जाता है। 
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तुलसी के 3 प्रकार होते हैं- कृष्ण तुलसी, सफेद तुलसी तथा राम तुलसी। इनमें कृष्ण तुलसी सर्वप्रिय मानी जाती है। तुलसी में खड़ी मंजरियां उगती हैं। इन मंजरियों में छोटे-छोटे फूल होते हैं। मंजरियों और फूलों से जपमाला के मनके बनते हैं। देव और दानवों द्वारा किए गए समुद्र मंथन के समय जो अमृत धरती पर छलका, उसी से तुलसी की उत्पत्ति हुई। ब्रह्मदेव ने उसे भगवान विष्णु को सौंपा। 
 
तुलसी का प्रतिदिन दर्शन करना पापनाशक समझा जाता है तथा पूजन करना मोक्षदायक। देवपूजा और श्राद्धकर्म में तुलसी आवश्यक है। तुलसी पत्र से पूजा करने से व्रत, यज्ञ, जप, होम, हवन करने का पुण्य प्राप्त होता है। कार्तिक मास में विष्णु भगवान का तुलसीदल से पूजन करने का माहात्म्य अवर्णनीय है। तुलसी विवाह से कन्यादान के बराबर पुण्य मिलता है साथ ही घर में श्री, संपदा, वैभव-मंगल विराजते हैं।
 
प्रतिवर्ष देवप्रबोधिनी एकादशी के दिन तुलसी विवाह विशुद्ध मांगलिक और आध्यात्मिक प्रसंग है। तुलसी की एक पत्ती सत्यभामा के कोटि-कोटि रत्नों से भरे हुए स्वर्ण पात्रों से भारी पड़ती है। तुलसी की एक पत्ती ही भगवान के समकक्ष बैठने की सामर्थ्य रखती है। तुलसी विवाह सचमुच भगवान के दरबार में एक लोक-निवेदन है। तुलसी विवाह का अर्थ है- विश्वव्यापी सत्ता से वृक्ष चेतना की करुण पुकार। यह विवाह एक ऐसी अरण्य-प्रार्थना है जिसमें धरती के लिए सुख-समृद्धि, भरपूर वर्षा और उन्नत फसल के साथ लोक-मंगल की पवित्र अभीप्सा छिपी हुई है। 
 
अगले पन्ने पर दसवां पर्व...
 

शीतलाष्टमी : माता शीतला का पर्व किसी न किसी रूप में देश के हर कोने में होता है। कोई माघ शुक्ल की षष्ठी को, कोई वैशाख कृष्ण पक्ष की अष्टमी को तो कोई चैत्र कृष्ण पक्ष की अष्टमी को मनाते हैं। शीतला माता हर तरह के तापों का नाश करती हैं और अपने भक्तों के तन-मन को शीतल करती हैं। विशेषकर चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को शीतला सप्तमी-अष्टमी का पर्व मनाया जाता है।
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इस पर्व को 'बसोरा' भी कहते हैं। बसोरा का अर्थ है बासी भोजन। इस दिन घर में ताजा भोजन नहीं बनाया जाता। एक दिन पहले ही भोजन बनाकर रख देते हैं, फिर दूसरे दिन प्रात:काल महिलाओं द्वारा शीतला माता का पूजन करने के बाद घर के सभी व्यक्ति बासी भोजन खाते हैं।
 
हिन्दू व्रतों में केवल शीतलाष्टमी का व्रत ही ऐसा है जिसमें बासी भोजन किया जाता है। इसका विस्तृत उल्लेख पुराणों में मिलता है। शीतला माता का मंदिर वटवृक्ष के समीप ही होता है। शीतला माता के पूजन के बाद वट का पूजन भी किया जाता है।

यहां मात्र 10 की ही जानकारी दी गई है जबकि इसके अलावा और भी कई पर्व है।- धर्म डेस्क
 

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