बहुविवाह सही है या गलत इसके पक्ष या विपक्ष में कई तर्क दिए जा सकते हैं, लेकिन जिंदगी तर्कों पर नहीं अनुभव और तथ्यों पर आधारित होती है। सवाल उठता है कि हिन्दू धर्म अनुसार क्या बहुविवाह सही है या गलत। यदि गलत है तो फिर श्रीकृष्ण ने आठ विवाह क्यों किए?
कालांतर में हुए कई राजाओं की दो या तीन पत्नियां होती थी। भगवान श्रीराम के पिता की तीन पत्नियां थी। ऐसे में यह माना जा सकता है कि हिन्दू समाज में बहुविवाह प्राचीन काल से ही प्रचलन में रहा है, लेकिन इस सबंध में शास्त्र क्या कहते हैं यह जानना भी जरूरी है। दरअसल, विवाह के सात वचन से ही बहुत कुछ स्पष्ट हो जाता है।
इस संबंध में सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि हिन्दू धर्म के दो हिस्से हैं पहले को श्रुति और दूसरे को स्मृति कहते हैं। श्रुति ग्रंथ ही धर्मग्रंथ है और स्मृति ग्रंथ समाज और इतिहास के ग्रंथ हैं। श्रुति में चारों वेद और उपनिषदों का स्थान है जबकि स्मृति ग्रंथों में स्मृतियां, पुराण, रामायण, महाभारत आदि का स्थान है। धर्म ग्रंथ तो सिर्फ वेद ही हैं अत: वेदों में जो लिखा है वही शास्त्र सम्मत और धर्मसम्मत माना गया है। वेदों से बाहर जो लिखा है वह सामाजिक मान्यता, परंपरा, रीति रिवाज, कानून और इतिहास की बाते हैं। हिन्दू धर्म की खूबी ही यही है कि उसका आधार इतिहास नहीं अपितु वैदिक सिद्धांत हैं।
वेदों में बहुविवाह का आरोप लगने वाले अक्सर ऋग्वेद के मंत्र ८.१९.३६ का सहारा लेते हैं। ऋग्वेद का यह मंत्र 'वधूनाम' तथा 'सतपति' शब्दों को समाहित करता है, परन्तु यहां ‘वधू’ से तात्पर्य दुल्हन से न हो कर सुख प्रदान करने के सामर्थ्य से है और 'सतपति' का अर्थ सज्जनों का पालक है जैसे 'भूपति' अर्थात पृथ्वी का पालक होता है। जिस सूक्त में यह मंत्र आया है उसके देवता अथवा मूल भाव से भी व्यक्त होता है कि यह परोपकार तथा दान (दान- स्तुति) से संबंधित है। मंत्र का अर्थ है कि ईश्वर सत्य और भलाई की रक्षा करने वालों को विविध सामर्थ्य प्रदान करता है।
रामायण में बहुविवाह का उल्लेख मिलता है। राजा दशरथ ने बहुविवाह किया इसका परिणाम क्या हुआ यह सभी जानते हैं। अत: बहुविवाह जीवन में सभी तरह के क्लेश उत्पन्न होते हैं। इस तरह के विवाह में कष्टों और विपत्तियों का सामना तो करना ही पड़ता है साथ ही परिवार में परस्पर प्रेम, सहानुभूति और सहयोग की भावना का भी पतन होता है। पत्नियों में प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, द्वैष की भावनाएं तो प्रबल रहती ही है साथ ही पति से प्रेम और अनुराग की भावना का प्रतिशत भी कम ही होता है।
भगवान श्रीराम को 'मर्यादा पुरुषोत्तम' या 'आदर्श पुरुष' इसीलिए कहा जाता है क्योंकि उन्होंने अपने जीवन में हर क्षेत्र में वेदों की बातों का अनुसरण किया। उन्होंने एक पत्नीव्रत के वैदिक आदर्श को पुनः स्थापित किया और यही अनुकरण उनके भाइयों ने भी किया। है।
महाभारत में तो बहुविवाह के कई प्रकरण मिल जाएंगे। बहुपत्नी के अलावा बहुपति के उदाहण भी पढ़े जा सकते हैं। दरअसल, महाभारत का काल वह काल था जबकि समाज में नैतिक मूल्यों का ह्रास हो रहा था। लोग वेदों को छोड़कर स्थानीय परंपरा और संस्कृति को ज्यादा महत्व देते थे।
महाभारत में भगवान श्रीकृष्ण के अलावा ऐसा कोई नजर नहीं आता जिसे 'आदर्श पुरुष' की श्रेणी में रखा जा सकते। हालांकि आपके मन में सवाल उठ सकते हैं कि वे कैसे आदर्श हो सकते हैं जबकि उन्होंने आठ महिलाओं से विवाह किया था? दरअसल, कालांतर में भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम को निशान बनाकर उनके चरित्र हनन किए जाने के पीछे गहरे कारण माने जाते रहे हैं। भक्ति काल में भी श्रीकृष्ण के चरित्र को ऐसा चित्रित किया गया जैसा की वे कभी अपनी जिंदगी में नहीं रहे। उन्हें हर जगह रासलीला करते बताया गया जबकि उनका संपूर्ण जीवन युद्ध, युद्ध और युद्ध में भी व्यतीत हो गया।
दूसरी बात यह कि महाभारत में प्रक्षेपण (जोड़ तोड़ आदि) को रोकने की कोई कारगर विधि नहीं है, जैसी की वेदों में पाई जाती है। फिर भी बारीकी से विश्लेषण या शोध द्वारा महाभारत के और श्रीकृष्ण के जीवन के सत्य का जाना जा सकता है। पहली बात की भगवान श्रीकृष्ण की 16 हजार पटरानियां नहीं थी, और उन्होंने जीन आठ स्त्रियों से विवाह किया था उसके पीछे के सच को जानना भी जरूरी है कि उन्होंने किन परिस्थितियों में किया था। इस संबंध में हम पूर्व में लिख चुके हैं। राधा की सम्पूर्ण कथा ही कपोल-कल्पित है जो सिर्फ ब्रम्हवैवर्त पुराण में ही पाई जाती है जोकि भविष्य पुराण की ही भांति एक और अप्रामाणिक पोथी है। महाभारत में कहीं पर भी इन सब का उल्लेख नहीं है।
सच यह है कि भगवान श्रीकृष्ण ने पिता बनने से पूर्व 12 वर्ष पर्यंत पूर्ण ब्रह्मचर्य और कठोर तप किया था। उन्होंने सांदिपनी ऋषि के आश्रम में रहकर शिक्षा गृहण की थी। यह भी माना जाता है कि उन्होंने नेमिनाथ के सानिध्य में कठोर तप भी किया था। श्रीकृष्ण को पूर्णावतर माना जाता है क्योंकि उन्होंने सभी कलाओं में महारत हासिल कर राष्ट्र और धर्म निर्माण में ही अपना संपूर्ण जीवन आहूत कर दिया था। इस दौरान उनके मुख से निकली 'गीता' एक ऐसा पवित्र ग्रंथ है जो उनके आदर्श चरित्र होने का प्रमाण और वेदों का सार है। खैर, अब आइये हम बताते हैं कि वेद बहुविवाह का कैसे खंडन करते हैं।
प्रमाण देने से पहले यह जान लें कि समग्र वेदों में एक भी मंत्र ऐसा नहीं है, जिसमें एक से अधिक पत्नी या पति के समर्थन किया गया है। अपितु वेदों के कुछ मंत्रों में बहुविवाह के दुष्परिणामों का वर्णन मिलता है।
*ऋग्वेद के मंत्र १०.१०५.८ के अनुसार एक से अधिक पत्नियों की मौजूदगी से अनेक सांसारिक आपदाओं का जन्म होता है। *ऋग्वेद १०.१०१.११ कहता है:– दो पत्नियों वाला व्यक्ति उसी प्रकार दोनों तरफ से दबाया हुआ विलाप करता है, जैसे रथ हांकते समय उस के अरों से दोनों ओर जकड़ा हुआ घोड़ा हिनहिनाता है।
*ऋग्वेद १०.१०१.११ के अनुसार दो पत्नियां जीवन को निरुदेश्य बना देती हैं।
*इसी तरह अथर्ववेद ३.१८.२ में प्रार्थना है कि 'कोई भी स्त्री सह–पत्नी के भय का कभी सामना न करे।
*अथर्ववेद मंत्र ७.३६.१ के अनुसार पति–पत्नी परस्पर कामना करते हैं– .मुझ को ह्रदय में स्थान दो, जिस से हम दोनों का मन भी सदा साथ रहे।'
*अथर्ववेद ७.३८.४ में पत्नी की यह हार्दिक अभिलाषा व्यक्त की गई है कि 'तुम केवल मेरे हो अन्य स्त्रियों की चर्चा भी न करो।'
*अथर्ववेद के एक अन्य मंत्र ३.३०.२ तथा १४.२.६४ में पति और पत्नी को परस्पर समर्पित तथा एकनिष्ठ रहने की हिदायत दी गई है।
*ऋग्वेद के तीनों मंत्र १.१२४.७, ४.३.२ तथा १०.७१.४ वर्णित करते हैं:– .जाया पत्य उशासी सुवासा' अर्थात विद्या विद्वानों के पास उसी प्रकार आती है जैसे एक समर्पित हर्षदायिनी पत्नी सिर्फ अपने पति को ही प्राप्त होती है।' 'जाया' तथा ‘पत्य’ क्रमशः पत्नी तथा पति का अर्थ रखते हैं।
*ऋग्वेद मंत्र संख्या १.३.३ में परमात्मा को पवित्र और उच्च आचरण वाली समर्पित पत्नी की उपमा दी गई है, जिसमें एक पत्नीत्व का आदर्श भी अन्तर्निहित है।
*ऋग्वेद मंत्र संख्या १०.१४९.४ में भगवन और भक्त के मध्य प्रेम की तुलना समार्पित पत्नी और पति के प्रेम से करता है।
*ऋग्वेद मंत्र संख्या १०.८५.२० में वधू के लिए निर्देश है कि वह अपने पति के लिए सुख की वृद्धि करे।
*ऋग्वेद मंत्र संख्या १०.८५.२३ में पत्नी और पति को सदैव आत्म-संयम के पालन की शिक्षा दी गई है।
विवाह से संबंधित सभी मंत्र द्विवचन सूचक शब्द दंपत्ति को संबोधित करते हैं, जो एक ही पत्नी और एक ही पति के रिश्ते को व्यक्त करता है। जिस के कुछ उदाहरण ऋग्वेद १०.८५.२४, १०.८५.४२ तथा १०.८५.४७ में मिल जाएंगे। अथर्ववेद के लगभग सम्पूर्ण १४वें कांड में विवाह विषयक वर्णन में इसका उपयोग हुआ है। प्रायः मंत्रों में जीवन पर्यंत एकनिष्ठ रहने के संबंध में प्रार्थना की गई है।
साभार : अखंड ज्योति और अन्य ग्रंथ