'There is only one God, not the second, not at all, not at all, not in the least bit'
हिन्दू आम तौर पर एकेश्वरवादी नहीं होते। वह ईश्वर को छोड़कर देवी, देवता, नाग, झाड़, पितर और गुरुओं की पूजा करते रहते हैं, जबकि वेद स्पष्ट तौर पर इसके खिलाफ हैं। वेद की कई ऋचाओं में एकेश्वरवाद की घोषणा की गई है। वेद के अंतिम भाग को वेदांत और उपनिषद् कहा जाता है। वेद, उपनिषद, पुराण, भगवद गीता आदि सभी में 'ब्रह्म' के बारे में उल्लेख मिल जाएगा।
जिन्होंने वेद पढ़े हैं वे जानते हैं कि प्रकृति, सांसारिक वस्तुएं, मानव और स्वयं को पूजना कितना बड़ा पाप है। पापी हैं वे लोग जो खुद को पूजवाते हैं। ऐसे संत, ऐसे गुरु और ऐसे व्यक्तियों से दूर रहना ही धर्म सम्मत आचरण है। यहां प्रस्तुत है कुछ श्लोक जिससे इस बात का पता चले कि हिन्दू धर्म एकेश्वरवादी धर्म है।
ईश्वर न तो भगवान है, न देवता, न दानव और न ही प्रकृति या उसकी अन्य कोई शक्ति। ईश्वर एक ही है अलग-अलग नहीं। ईश्वर अजन्मा है। जिन्होंने जन्म लिया है और जो मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं या फिर अजर-अमर हो गए हैं वे सभी ईश्वर नहीं हैं। ब्रह्मा, विष्णु और शिव भी ईश्वर नहीं है।
उपनिषद् अनुसार :
एकम अद्वितीयम अर्थात वह सिर्फ एक ही है बगैर किसी दूसरे के। एकम् एवाद्वितियम अर्थात वह केवल एक ही है। नाकस्या कस्किज जनिता न काधिप अर्थात उसका न कोई मां-बाप है न ही भगवान।
न तस्य प्रतिमा अस्ति अर्थात उसकी कोई मूर्ति (पिक्चर, फोटो, छवि, मूर्ति आदि) नहीं हो सकती। न सम्द्रसे तिस्थति रूपम् अस्य, न कक्सुसा पश्यति कस कनैनम अर्थात उसे कोई देख नहीं सकता, उसको किसी की भी आंखों से देखा नहीं जा सकता।- छांदोग्य और श्वेताश्वेतारा उपनिषद।
'उस ब्रह्म से प्रकट यह संपूर्ण विश्व है जो उसी प्राण रूप में गतिमान है। उद्यत वज्र के समान विकराल शक्ति ब्रह्म को जो मानते हैं, अमरत्व को प्राप्त होते हैं। इसी ब्रह्म के भय से अग्नि व सूर्य तपते हैं और इसी ब्रह्म के भय से इंद्र, वायु और यमराज अपने-अपने कामों में लगे रहते हैं। शरीर के नष्ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।'।। 2-8- 1।।-तैत्तिरीयोपनिषद
''जिसे कोई नेत्रों से भी नहीं देख सकता, परंतु जिसके द्वारा नेत्रों को दर्शन शक्ति प्राप्त होती है, तू उसे ही ईश्वर जान। नेत्रों द्वारा दिखाई देने वाले जिस तत्व की मनुष्य उपासना करते हैं वह ईश्वर नहीं है। जिनके शब्द को कानों के द्वारा कोई सुन नहीं सकता, किंतु जिनसे इन कानों को सुनने की क्षमता प्राप्त होती है उसी को तू ईश्वर समझ। परंतु कानों द्वारा सुने जाने वाले जिस तत्व की उपासना की जाती है, वह ईश्वर नहीं है। जो प्राण के द्वारा प्रेरित नहीं होता किंतु जिससे प्राण शक्ति प्रेरणा प्राप्त करता है उसे तू ईश्वर जान। प्राणशक्ति से चेष्ठावान हुए जिन तत्वों की उपासना की जाती है, वह ईश्वर नहीं है।।।4,5,6,7,8।।-केनोपनिषद।
भगवद गीता अनुसार :
.....जो सांसारिक इच्छाओं के अधिन हैं उन्होंने अपने लिए ईश्वर के अतिरिक्त झूठे उपास्य बना लिए है। वह जो मुझे जानते हैं कि मैं ही हूं, जो अजन्मा हूं, मैं ही हूं जिसकी कोई शुरुआत नहीं, और सारे जहां का मालिक हूं।- भगवद गीता
भगवान कृष्ण भी कहते हैं- 'जो परमात्मा को अजन्मा और अनादि तथा लोकों का महान ईश्वर, तत्व से जानते हैं वे ही मनुष्यों में ज्ञानवान है। वे सब पापों से मुक्त हो जाते हैं। परमात्मा अनादि और अजन्मा है, परंतु मनुष्य, इतर जीव-जंतु तथा जड़ जगत क्या है? वे सब के सब न अजन्मा है न अनादि। परमात्मा, बुद्धि, तत्वज्ञान, विवेक, क्षमा, सत्य, दम, सुख, दुख, उत्पत्ति और अभाव, भय और अभय, अहिंसा, समता, संतोष, तप, दान, कीर्ति, अपकीर्ति ऐसे ही प्राणियों की नाना प्रकार की भावनाएं परमात्मा से ही होती है।-भ. गीता-10-3,4,5।
व्याख्या : अर्थात भगवान कृष्ण कहते हैं कि जो मनुष्य उस परमात्मा को अजन्मा और अनादि अर्थात जिसने कभी जन्म नहीं लिया और न ही जिसका कोई प्रारम्भ है तो अंत भी नहीं, तब वह निराकार है ऐसा जानने वाले तत्वज्ञ मनुष्य ही ज्ञानवान है। ऐसा जानने या मानने से ही सब पापों से मुक्ति मिल जाती है। परंतु मनुष्य, जीव-जंतु और दिखाई देने वाला यह समस्त जड़-जगत ईश्वर नहीं है, लेकिन यह सब ईश्वर के प्रभाव से ही जन्मते और मर जाते हैं। इनमें जो भी बुद्धि, भावनाएं, इच्छाएं और संवेदनाएं होती है वह सब ईश्वर की इच्छा से ही होती है।
वेद के अनुसार :
यजुर्वेद में ईश्वर के बारे में लिखा है। न तस्य प्रतिमा अस्ति अर्थात उसकी कोई छवि नहीं हो सकती। इसी श्लोक में आगे लिखा है- वही है जिसे किसी ने पैदा नहीं किया, और वही पूजा के लायक है। वह शरीर-विहीन है और शुद्ध है।- यजुर्वेद, अध्याय 32-40, श्लोक 3-8-9।
अन्धात्मा प्रविशन्ति ये अस्संभुती मुपस्ते अर्थात वे अन्धकार में हैं और पापी हैं, जो प्राकृतिक वस्तुओं को पूजते हैं जैसे प्राकृतिक वस्तुएं-सूरज, चांद, जमीन, पेड़, जानवर आदि। आगे लिखा है- वे और भी ज्यादा गुनाहगार हैं और अन्धकार में हैं जिन्होंने सांसारिक वस्तुओं को पूजा जैसे टेबल, मेज, तराशा हुआ पत्थर आदि। देव महा ओसी अर्थात ईश्वर सबसे बड़ा, महान है।- अथर्ववेद, भाग- 20, अध्याय-58 श्लोक-3...
एकम् सत् विप्र बहुधा वदन्ति अर्थात विप्र लोग मुझे कई नाम से बुलाते हैं।- ऋग्वेद
मा चिदंयाद्वी शंसता अर्थात किसी की भी पूजा मत करो सिवाह उसके, वही सत्य है और उसकी पूजा एकांत में करो। वही महान है जिसे सृष्टिकर्ता का गौरव प्राप्त है। या एका इत्तामुश्तुही अर्थात उसी की पूजा करो, क्योंकि उस जैसा कोई नहीं और वह अकेला है।- ऋग्वेद
एकम् ब्रह्म, द्वितीय नास्ते, नेह-नये नास्ते, नास्ते किंचन अर्थात ईश्वर एक ही है, दूसरा नहीं हैं, नहीं है, नहीं है, जरा भी नहीं है।- ब्रह्म सूत्र