प्राचीन काल से ही भारत में साधु और संतों के प्रति बहुत आदर और सम्मान रहा है। एक ओर जहां भारत में देवी, देवताओं और भगवानों के मंदिर बने तो दूसरी और सिद्ध ऋषि और मुनियों के समाधि स्थल भी बने।
उल्लेखनीय है भारत में प्राचीनकाल से ही सिद्ध संतों की बैठक समाधि दी जाती रही है। साधु और संतों का कभी दाह संस्कार नहीं होता। भारत में ऐसे हजारों संतों के आज भी समाधि स्थल मौजूद है जहां जाकर श्रद्धापूर्वक माथा टेकने से लोगों के दुख दर्द दूर होते रहे हैं।
भारत में शैव, शाक्त, नाथ और वैष्णवी संतधारा के आलावा अन्य ब्रह्मवादी संत समाज की धारा भी प्राचीनकाल से प्रवाहित होती रही है। यहां प्रस्तुत है मध्यकाल से कुछ पूर्व से अब तक हुए ऐसे संतों के समाधि स्थल के बारे में जानकारी जिन्हें चमत्कारिक माना जाता है और जहां जाकर हर तरह की समस्या से छुटकारा पाया जा सकता है।
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शंकराचार्य : आदिशंकराचार्य और गुरु गोरखनाथ ने इस देश की सिद्ध और संत परंपरा पर बहुत गहरा असर डाला है। आज भी भारत में साधु और संतों की जो भी परंपरा, संप्रदाय या अखाड़े विद्यमान हैं, वे सभी शंकराचार्य या गुरु गोरखनाथ की परंपरा से संबंधित ही रहे हैं। माना जाता है कि आदि गुरु शंकराचार्य का समाधि स्थल केदारनाथ के मंदिर के पीछे स्थित है। कहते हैं कि जब केदारनाथ में बाढ़ आई थी, तो एक शिला ने चमत्कारिक रूप से समाधि स्थल पर रुककर मंदिर की रक्षा की थी।
शंकराचार्य का जन्म केरल के मालाबार क्षेत्र के कालड़ी नामक स्थान पर नम्बूद्री ब्राह्मण के यहां वैशाख शुक्ल पंचमी को हुआ था। मात्र 32 वर्ष की उम्र में वे निर्वाण प्राप्त कर ब्रह्मलोक चले गए। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने भारतभर का भ्रमण कर हिन्दू समाज को एक सूत्र में पिरोने के लिए 4 मठों की स्थापना की। 4 मठों के शंकराचार्य ही हिन्दुओं के केंद्रीय आचार्य माने जाते हैं। इन्हीं के अधीन अन्य कई मठ हैं। 4 प्रमुख मठ निम्न हैं-
1. वेदांत ज्ञानमठ, श्रृंगेरी (दक्षिण भारत)।
2. गोवर्धन मठ, जगन्नाथपुरी (पूर्वी भारत)
3. शारदा (कालिका) मठ, द्वारका (पश्चिम भारत)
4. ज्योतिर्पीठ, बद्रिकाश्रम (उत्तर भारत)
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गोरखनाथ : गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। महायोगी गोरखनाथ मध्ययुग (11वीं शताब्दी अनुमानित) के एक सिद्ध एवं चमत्कारिक योगी थे। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। कुछ विद्वान मानते हैं कि उनका जन्म 845 ई. में हुआ था। गुरु और शिष्य दोनों ही को 84 सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखपुर में ही उनका समाधि स्थल है। यहां दुनियाभर के नाथ संप्रदाय और गोरखनाथजी के भक्त उनकी समाधि पर माथा टेकने आते हैं।
गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परंपरा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ संप्रदाय में माना जाता है। गोरखनाथ के हठयोग की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले सिद्ध योगियों में प्रमुख हैं- चौरंगीनाथ, गोपीनाथ, चुणकरनाथ, भर्तृहरि, जालन्ध्रीपाव आदि।
नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक गोरक्षनाथजी के बारे में लिखित उल्लेख हमारे पुराणों में भी मिलते हैं। विभिन्न पुराणों में इससे संबंधित कथाएं मिलती हैं। इसके साथ ही साथ बहुत-सी पारंपरिक कथाएं और किंवदंतियां भी समाज में प्रसारित हैं। उत्तरप्रदेश, उत्तरांचल, बंगाल, पश्चिमी भारत, सिन्ध तथा पंजाब में और भारत के बाहर नेपाल में भी ये कथाएं प्रचलित हैं। काबुल, गांधार, सिन्ध, बलोचिस्तान, कच्छ और अन्य देशों तथा प्रांतों में यहां तक कि मक्का-मदीना तक श्री गोरक्षनाथ ने दीक्षा दी थी और नाथ परंपरा को विस्तार दिया था।
गोरखनाथ की तपोभूमि और धाम : गोरखनाथजी ने नेपाल और भारत की सीमा पर प्रसिद्ध शक्तिपीठ देवीपातन में तपस्या की थी। उसी स्थल पर पाटेश्वरी शक्तिपीठ की स्थापना हुई। भारत के गोरखपुर में गोरखनाथ का एकमात्र प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर को यवनों और मुगलों ने कई बार ध्वस्त किया लेकिन इसका हर बार पुनर्निर्माण कराया गया। 9वीं शताब्दी में इसका जीर्णोद्धार किया गया था लेकिन इसे 13वीं सदी में फिर मुस्लिम आक्रांताओं ने ढहा दिया था।
भारत के 84 सिद्धों की परंपरा में से एक थे गुरु गोरखनाथ जिनका नेपाल से घनिष्ठ संबंध रहा है। नेपाल नरेश महेन्द्रदेव उनके शिष्य हो गए थे। उस काल में नेपाल के एक समूचे क्षेत्र को 'गोरखा राज्य' इसलिए कहा जाता था कि गोरखनाथ वहां डेरा डाले हुए थे। वहीं की जनता आगे चलकर 'गोरखा जाति' की कहलाई। यहीं से गोरखनाथ के हजारों शिष्यों ने विश्वभर में घूम-घूमकर धूना स्थान निर्मित किए। इन्हीं शिष्यों से नाथों की अनेकानेक शाखाएं हो गईं।
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गोगादेव जाहर वीर : (950 ईस्वी) : चौहान वंश में जन्मे ये राजस्थान के प्रसिद्ध चमत्कारिक सिद्ध संत हैं। सिद्ध वीर गोगादेव का जन्मस्थान राजस्थान के चुरु जिले के दत्तखेड़ा में स्थित है।
मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिन्दू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए। पिता का नाम जेवर सिंह, माता का नाम बादलदे, पत्नी का नाम कमलदे था। आप नीली घोड़ी पर सवारी करते थे।
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झूलेलाल : (10वीं सदी) : सिन्ध प्रांत (पाकिस्तान)। सिन्ध प्रांत के हिन्दुओं की रक्षार्थ वरुण का अवतार। सिन्ध प्रांत में मरखशाह नामक एक क्रूर मुस्लिम राजा के अत्याचार और हिन्दू जनता को समाप्त करने के कुचक्र के चलते झूलेलाल का अवतार हुआ और उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता का पाठ पढ़ाया।
आज उनके समाधि स्थल को एक मजार में बदल दिया गया है, जहां पाकिस्तानी लोग माथा टेकने जाते हैं और उनकी सभी तरह की मुरादें पूरी होती हैं। चेटीचंड के दिन भगवान झूलेलालजी का जन्मदिवस मनाया जाता है, तब भारत से सिन्धी लोग जाते हैं पाकिस्तान। पाकिस्तान में झूलेलालजी को जिंदपीर, लालशाह कहते हैं जबकि सिन्धी भाषा बोलने वाले हिन्दू उनको झूलेलाल, पल्लेवारो, ज्योतिनवारो, अमरलाल, उदेरोलाल और घोड़ेवारो कहते हैं। उन्हीं पर एक प्रसिद्ध कव्वाली बनी है- 'अली शाहबाज कलंदर, दमादम मस्त कलंदर...।'
उन्हें वरुणदेव का अवतार इसलिए कहते हैं कि जब हिन्दुओं पर अत्याचार हो रहे थे, तब सिन्धु नदी के तट पर कुछ ब्राह्मणों के आह्वान से एक जलपति प्रकट हुआ और तभी नामवाणी हुई कि अवतार होगा एवं नसरपुर के ठाकुर भाई रतनराय के घर माता देवकी की कोख से उपजा बालक सभी की मनोकामना पूर्ण करेगा। नसरपुर के ठाकुर रतनराय के घर माता देवकी ने चैत्र शुक्ल 2 संवत 1007 को बालक को जन्म दिया। बालक का नाम उदयचंद रखा गया।
सिन्धु नदी के किनारे जिंदपीर पर जहां झूलेलालजी ब्रह्मलीन हुए थे, वहां आज भी प्रतिवर्ष 40 दिनों का मेला लगता है जिसे 'चालीहा' कहा जाता है। इसी चालीहे के दौरान प्रत्येक सिन्धी भाषी, चाहे वह जहां भी हो, यथासंभव अपनी धार्मिक मर्यादाओं का पालन करता है।
पाकिस्तान के ठट्टा शहर में जहां झूलेलालजी ने जन्म लिया था, विभाजन के बाद बिहार से गए याकूब भाई ने वहां कब्जा जमा लिया था, लेकिन जब उनको चमत्कारिक अनुभव हुआ तो उन्होंने झूलेलालजी की अखंड ज्योति को जला दिया। यह आज भी जल रही है।
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वीर तेजाजी महाराज : (29-1-1074 से 28-8-1103) : राजस्थान, मध्यप्रदेश और गुजरात के प्रसिद्ध सिद्धपुरुष। तेजाजी का जन्म राजस्थान के नागौर जिले में खरनाल गांव में हुआ। यहीं पर इनका समाधि स्थल है। ये राजस्थान के 6 चमत्कारिक सिद्धों में से एक हैं।
तेजाजी के पुजारी को घोड़ला एव चबूतरे को थान कहा जाता है। सेंदेरिया तेजाजी का मूल स्थान है। यहीं पर नाग ने इन्हें डस लिया था। ब्यावर में तेजा चौक में तेजाजी का एक प्राचीन थान है। नागौर का खरनाल भी तेजाजी का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रतिवर्ष भादवा सुदी दशमी को नागौर जिले के परबतसर गांव में तेजाजी की याद में 'तेजा पशु मेले' का आयोजन किया जाता है। वीर तेजाजी को 'काला और बाला' का देवता कहा जाता है।
तेजाजी महाराज सबसे बड़े गौरक्षक माने गए हैं। गायों की रक्षा के लिए इन्होंने अपने प्राणों की बलि तक दे दी। तेजाजी के वंशज मध्यभारत के खिलचीपुर से आकर मारवाड़ में बसे थे। पिता का नाम ताहड़ की जाट, माता का नाम राजकुंवर, पत्नी का नाम पेमलदे, घोड़ी का नाम लीलण था।
भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को तेजादशमी का पर्व मनाया जाता है। यह पर्व मुख्य तौर पर मध्यप्रदेश के मालवा, निमाड़, झाबुआ के अलावा राजस्थान में मनाया जाता है। तेजाजी के मंदिरों में सर्पदंश से पीड़ित सहित अन्य जहरीले कीड़ों की तांती (धागा) छोड़ा जाता है। इसके अलावा यहां मन्नत मांगने वालों का तांता लगा रहता है।
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कबीर : (जन्म- सन् 1398 काशी। मृत्यु- सन् 1518 मगहर) : संत कबीर का जन्म काशी के एक जुलाहे के घर हुआ था। पिता का नाम नीरु और माता का नाम नीमा था। इनके 2 संतानें थीं- कमाल, कमाली। मगहर में 120 वर्ष की आयु में उन्होंने समाधि ले ली।
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बाबा रामदेव (1352-1385) : इन्हें द्वारिकाधीश का अवतार माना जाता है। इन्हें पीरों का पीर रामसा पीर कहा जाता है। सबसे ज्यादा चमत्कारिक और सिद्ध पुरुषों में इनकी गणना की जाती है। हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक बाबा रामदेव के समाधि स्थल रुणिचा में मेला लगता है, जहां भारत और पाकिस्तान से लाखों की तादाद में लोग आते हैं।
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गुरुनानक (1469-1539) : कार्तिक मास की पूर्णिमा के दिन 1469 को पंजाब के राएभोए के तलवंडी नामक स्थान में कल्याणचंद (मेहता कालू) नाम के एक किसान के घर में गुरु नानकजी का जन्म हुआ। उनकी माता का नाम तृप्ता था। तलवंडी को ही अब नानक के नाम पर ननकाना साहब कहा जाता है, जो कि अब पाकिस्तान में है। ये सिखों के प्रथम गुरु हैं। पाकिस्तान के नानका साहिब में उनका गुरुद्वारा है।
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जालंधर (जालिंदरनाथ) नाथ : एक समय की बात है कि हस्तिनापुर में ब्रिहद्रव नाम के राजा सोमयज्ञ कर रहे थे। अंतरिक्ष नारायण ने यज्ञ के भीतर प्रवेश किया। यज्ञ की समाप्ति के बाद एक तेजस्वी बालक की प्राप्ति हुई। यही बालक जालंधर कहलाया। उनके होने संबंधी दस्तावेजों के मुताबिक वे विक्रम संवत 1451 में राजस्थान में पधारे थे।
राजस्थान के जालौर के पास आथूणी दिस में उसका तपस्या स्थल है। यहां पर मारवाड़ के महाराजा मानसिंह ने एक मंदिर बनवाया है। जोधपुर में महाराजा मानसिंह पुस्तक प्रकाश संग्रहालय में अनेक हस्तलिखित ग्रंथ हैं जिसमें जालंधर का जीवन और उनके कनकाचल में पधारने का जिक्र है। चंद्रकूप सूरजकुंड कपाली नामक यह स्थान प्रसिद्ध है। जालंधर के 3 तपस्या स्थल हैं- गिरनार पर्वत, कनकाचल और रक्ताचल।
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दादू दयाल (जन्म 1544 ई.- मृत्यु 1603 ई.) : संत गरीबदास (1579-1636) दादू दयाल के पुत्र थे। ये गुजरात के प्रसिद्ध संत थे। इन्हें हिन्दी, गुजराती, राजस्थानी भाषा याद थी। दादू के संत रज्जब, प्रसिद्ध कवि सुंदर दास, जगन्नाथ सहित 152 शिष्य थे। दादू तुलसीदास के समकालीन थे। वे अहमदाबाद के एक धुनिया के पुत्र और मुगल सम्राट शाहजहां (1627-58) के समकालीन थे। पिता लोदीराम और माता बसीबाई थी।
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मलूक दास : (1574 से 1682) : चमत्कारिक संत बाबा मलूकदास का जन्म लाला सुंदरदास खत्री के घर वैशाख कृष्ण 5 संवत् 1631 में कड़ा जिला इलाहाबाद में हुआ। इनकी मृत्यु 108 वर्ष की अवस्था में संवत् 1739 में हुई। ये औरंगजेब के समय में थे।
इनकी गद्दियां कड़ा, जयपुर, गुजरात, मुलतान, पटना, नेपाल और काबुल तक में कायम हुईं। वृंदावन में वंशीवट क्षेत्र स्थित मलूक पीठ में संत मलूकदास की जाग्रत समाधि है। इन्हीं का यह प्रसिद्ध दोहा है- 'अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम। दास मलूका कहि गए, सबके दाता राम।'
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विट्ठलनाथ : (जन्म- 1515 वाराणसी, मृत्यु- 1585 गिरिराज) : वल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक और 'अष्टछाप' के संस्थापक और वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ का जन्म वाराणसी के निकट चरवाट नामक गांव में पौष कृष्ण पक्ष नवमी को 1515 ई. हुआ था।
विट्ठलनाथ ने अपने पिता के 4 शिष्यों कुंभनदास, सूरदास, परमानंद दास और कृष्णदास तथा अपने 4 शिष्यों चतुर्भुजदास, गोविंद स्वामी, छीतस्वामी और नंददास को मिलाकर 'अष्टछाप' की स्थापना की। श्रीनाथजी के मंदिर में सेवा-पूजा के समय इन्हीं 8 के पद गाए जाते थे। विट्ठलनाथ ने गिरिराज की एक गुफा में प्रवेश करके 1585 ई. में शरीर त्याग दिया।
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विट्ठलनाथ : (जन्म- 1515 वाराणसी, मृत्यु- 1585 गिरिराज) : वल्लभ संप्रदाय के प्रवर्तक और 'अष्टछाप' के संस्थापक और वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ का जन्म वाराणसी के निकट चरवाट नामक गांव में पौष कृष्ण पक्ष नवमी को 1515 ई. हुआ था।
विट्ठलनाथ ने अपने पिता के 4 शिष्यों कुंभनदास, सूरदास, परमानंद दास और कृष्णदास तथा अपने 4 शिष्यों चतुर्भुजदास, गोविंद स्वामी, छीतस्वामी और नंददास को मिलाकर 'अष्टछाप' की स्थापना की। श्रीनाथजी के मंदिर में सेवा-पूजा के समय इन्हीं 8 के पद गाए जाते थे। विट्ठलनाथ ने गिरिराज की एक गुफा में प्रवेश करके 1585 ई. में शरीर त्याग दिया।
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संत तुकाराम (1577-1650) : महाराष्ट्र के प्रमुख संतों और भक्ति आंदोलन के कवियों में एक तुकाराम का जन्म महाराष्ट्र राज्य के पुणे जिले के अंतर्गत 'देहू' नामक ग्राम में शक संवत् 1520 को अर्थात सन् 1598 में हुआ था। इनके पिता का नाम 'बोल्होबा' और माता का नाम 'कनकाई' था।
तुकाराम ने फाल्गुन माह की कृष्ण द्वादशी शाक संवत 1571 को देह विसर्जन किया। इनके जन्म के समय पर मतभेद हैं। कुछ विद्वान इनका जन्म समय 1577, 1602, 1607, 1608, 1618 एवं 1639 में और 1650 में उनका देहांत होने को मानते हैं। ज्यादातर विद्वान 1577 में उनका जन्म और 1650 में उनकी मृत्यु होने की बात करते हैं।
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समर्थ रामदास (1608-1681) : समर्थ रामदास का जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले के जांब नामक स्थान पर शके 1530 में हुआ। इनका नाम ‘नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी’ था।
उनके पिता का नाम सूर्याजी पंत और माता का नाम राणुबाई था। वे राम और हनुमान के भक्त और वीर शिवाजी के गुरु थे। उन्होंने शक संवत 1603 में 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली।
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संत सिंगाजी महाराज (1631-1721) : संत सिंगाजी का जन्म विक्रम संवत 1576 में मिती वैशाख सुदी ग्यारस को पुष्य नक्षत्र में प्रात: 8 बजे मध्यप्रदेश के बड़वानी जिले के खजूरी ग्राम में हुआ। पिता का नाम भीमाजी गवली और माता का नाम गवराबाई था। सिंगाजी का जसोदाबाई के साथ विवाह हुआ था। इनके 4 पुत्र कालू, भोलू, सदू और दीप थे।
सिंगाजी के जन्म और समाधिस्थ होने के बारे में विद्वान मतैक्य नहीं हैं। डॉ. कृष्णदास हंस ने उनका जन्म विक्रम संवत् 1574 बताया है। पंडित रामनारायण उपाध्याय ने वि.सं. 1576 की वैशाख शुक्ल एकादशी (बुधवार) बताया है। इसी प्रकार समाधिस्थ होने की तिथि डॉ. हंस के अनुसार श्रावण शुक्ल नवमी विक्रम सवंत् 1664 और पं. उपाध्याय के अनुसार विस 1616 श्रावण बदी नवमी निश्चित की जाती है।
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महामति प्राणनाथ (1618-1694) : महामति प्राणनाथ के समय में औरंगजेब का शासन था जिसके अत्याचार के चलते लाखों हिन्दू अपना नाम छोड़कर मुस्लिम नाम रख रहे थे। उस काल में सिर्फ मुसलमान बन चुके लोग ही सुरक्षित थे। ऐसे समय में महामति प्राणनाथ ने हिन्दू-मुस्लिम एकता, प्रेम और शांति का संदेश दिया। उनका नाम मेहर ठाकुर था। पिता का नाम केशव ठाकुर था। उनके गुरु देवचंद्रजी थे। गुरु की आज्ञा से वे 4 वर्ष अरब देश में रहे।
प्राणनाथ मूलतः गुजरात के निवासी थे। उन्हें गुजराती, सिन्धी, अरबी, कच्छी, उर्दू तथा हिन्दी आती थी। शिष्यों ने उनमें परमेश्वर का दर्शन कर उन्हें प्राणनाथ की उपाधि दी। महामति प्राणनाथजी ने बुंदेलखंड की रक्षा के लिए महाराजा छत्रसाल को वरदानी तलवार सौंपी थी तथा बीड़ा उठाकर संकल्प कराया था कि जिससे महाराज छत्रसाल पूरे बुंदेलखंड की रक्षा कर सके और बुंदेलखंड को जीत सके।
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शिर्डी के सांईं बाबा : सांईं बाबा का समाधि स्थल विश्वभर में प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। शिर्डी अहमदनगर जिले के कोपरगांव तालुका में है। गोदावरी नदी पार करने के पश्चात मार्ग सीधा शिर्डी को जाता है। 8 मील चलने पर जब आप नीमगांव पहुंचेंगे तो वहां से शिर्डी दृष्टिगोचर होने लगती है। श्री सांईंनाथ ने शिर्डी में अवतीर्ण होकर उसे पावन बनाया।
बाबा की एकमात्र प्रामाणिक जीवनकथा 'श्री सांईं सत्चरित' है जिसे श्री अन्ना साहेब दाभोलकर ने सन् 1914 में लिपिबद्ध किया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि सन् 1835 में महाराष्ट्र के परभणी जिले के पाथरी गांव में सांईं बाबा का जन्म भुसारी परिवार में हुआ था। (सत्य सांईं बाबा ने बाबा का जन्म 27 सितंबर 1830 को पाथरी गांव में बताया है।)
इसके पश्चात 1854 में वे शिर्डी में ग्रामवासियों को एक नीम के पेड़ के नीचे बैठे दिखाई दिए। अनुमान है कि सन् 1835 से लेकर 1846 तक पूरे 12 वर्ष तक बाबा अपने पहले गुरु रोशनशाह फकीर के घर रहे। 1846 से 1854 तक बाबा बैंकुशा के आश्रम में रहे।
सन् 1854 में वे पहली बार नीम के वृक्ष के तले बैठे हुए दिखाई दिए। कुछ समय बाद बाबा शिर्डी छोड़कर किसी अज्ञात जगह पर चले गए और 4 वर्ष बाद 1858 में लौटकर चांद पाटिल के संबंधी की शादी में बारात के साथ फिर शिर्डी आए। इस बार वे खंडोबा के मंदिर के सामने ठहरे थे। इसके बाद के 60 वर्षों 1858 से 1918 तक बाबा शिर्डी में अपनी लीलाओं को करते रहे और अंत तक यहीं रहे।
सांईं बाबा ने अपनी जिंदगी में समाज को दो अहम संदेश दिए हैं- 'सबका मालिक एक' और 'श्रद्धा और सबूरी'। सांईं बाबा के इर्द-गिर्द के तमाम चमत्कारों से परे केवल उनके संदेशों पर ही गौर करें तो पाएंगे कि बाबा के कार्य और संदेश जनकल्याणकारी साबित हुए हैं।
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गजानन महाराज : गजानन महाराज की समाधि महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले के शेगांव में स्थित है। बाबाश्री की जागृत समाधि को सितंबर 2010 में 100 वर्ष पूर्ण हो गए। समाधि स्थल पर प्रतिदिन लगभग 25 से 30 हजार लोग दर्शन करने आते हैं। शेगांव के गजानन महाराज नाथ संप्रदाय के बहुत ही पहुंचे हुए दिगंबर संत थे। गजानन महाराज के चित्र में उन्हें चिलम पीते हुए दिखाया जाता है। महाराज नियमित चिलम पीया करते थे, लेकिन उन्हें चिलम पीने की लत नहीं थी। माना जाता है कि वे अपने बनारस के भक्तों को खुश करने के लिए चिलम पीया करते थे।
गजानन महाराज का जन्म कब हुआ, उनके माता-पिता कौन थे, इस बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं। पहली बार गजानन महाराज को शेगांव में 23 फरवरी 1878 में बनकट लाला और दामोदर नमक दो व्यक्तियों ने देखा। एक श्वेत वर्ण सुंदर बालक झूठी पत्तल में से चावल खाते हुए 'गं गं गणात बूते' का उच्चारण कर रहा था। 'गं गं गणात बूते' का उच्चारण करने के कारण ही उनका नाम 'गजानन' पड़ा।
चमत्कार : गजानन महाराज चमत्कारी महापुरुष थे। उनके कई चमत्कारों को भक्तों ने प्रत्यक्ष देखा है। एक बार महाराज आंगन कोट में भ्रमण कर रहे थे। तेज गर्मी के कारण उन्हें प्यास लगी। उन्होंने वहां से गुजर रहे भास्कर पाटिल से पानी मांगा, लेकिन उसने पानी देने से मना कर दिया। तभी महाराज को वहां कुआं दिखा, जो 12 वर्षों से सूखा पड़ा था। महाराज कुएं के पास जाकर बैठ गए और ईश्वर का जाप करने लगे। जाप के तप से कुआं पानी से भर गया। इस तरह बहुत से चमत्कार उनके भक्तों के बीच प्रसिद्ध है।
समाधि स्थल : समाधि के करीब 1 माह पूर्व उन्होंने पंढरपुर में श्री विट्ठल के समक्ष समाधि लेने का निर्णय लिया। उन्होंने सभी को समझाया और समाधि का दिन नियुक्त किया। गजानन महाराज ने अपनी समाधि का स्थान व समय अपने सभी भक्तों को बताया और उन्हें उपस्थित रहने को कहा। वह गणेश चतुर्थी का दिन था। उस पूरे दिन महाराज बहुत प्रसन्न थे और उन्होंने अपने भक्तों से बातें की और उन्हें समझाया कि वे सादा उनके साथ रहेंगे और अंत में बाळा भाऊ को अपने करीब बैठने के लिए कहा और 'जय गजानन' कहते हुए अंतिम सांस ली।
मान्यता के अनुसार 8 सितंबर 1910 को प्रात: 8 बजे उन्होंने शेगांव में समाधि ले ली। माना जाता है कि बाळा भाऊ की मृत्यु के उपरांत नंदुरगांव के नारायण के स्वप्न में महाराज ने दर्शन दिए और मठ की सेवा करने का आदेश दिया।
जहां बाबा ने समाधि ली थी वहां आज एक विशाल मंदिर है। यह मंदिर काफी विशाल परिसर में बना है तथा महाराज की समाधि के दर्शन करने के लिए लंबी कतार लगती है। मंदिर परिसर में गजानन महाराज की प्रतिमा के अलावा समाधि स्थान, पादुका, महाराज का चिमटा, औजार, चिलम पीने का स्थान (जो आज भी गर्म रहता है) और प्राचीन हनुमान प्रतिमा मौजूद है। मंदिर में व्यवस्था काफी अच्छी रखी गई है। बहुत से सेवक अनुशासनबद्ध तरीके से मंदिर की व्यवस्था को बनाए रखने में जुटे दिखाई देते हैं।
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मेहर बाबा : सूफी, वेदांत और रहस्यवादी दर्शन से प्रभावित मेहर बाबा एक रहस्यवादी सिद्ध पुरुष थे। कई वर्षों तक वे मौन साधना में रहे। 25 फरवरी 1894 में मेहर बाबा का जन्म पूना में हुआ। 31 जनवरी 1969 को मेहराबाद में उन्होंने देह छोड़ दी। उनका मूल नाम मेरवान एस. ईरानी था।
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दादाजी धूनी वाले : दादाजी धूनी वाले का समाधि स्थल मध्यप्रदेश के खंडवा शहर में स्थित है। दादाजी का नाम स्वामी केशवानंदजी महाराज था और वे परिव्राजक थे अर्थात भ्रमणशील थे। देश-विदेश में दादाजी के असंख्य भक्त हैं।
दादाजी के नाम पर भारत और विदेशों में 27 धाम मौजूद हैं। इन स्थानों पर दादाजी के समय से अब तक निरंतर धूनी जल रही है। सन् 1930 में दादाजी ने खंडवा शहर में समाधि ली। यह समाधि रेलवे स्टेशन से 3 किमी की दूरी पर है।
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शीलनाथ बाबा : शीलनाथ बाबा का समाधि स्थल ऋषिकेश में है, लेकिन उन्होंने उनके जीवन का महत्वपूर्ण समय मध्यप्रदेश के देवास शहर में बिताया। देवास में हैं श्रीगुरु योगेंद्र शीलनाथ बाबा का अखंड धूना और ज्योत। आज भी रखी है उनकी खड़ाऊ और पलंग। 100 वर्ष से ज्यादा बीत गए, लेकिन आज भी शयन कक्ष के नीचे बना तलघर और बावड़ी में स्थित वह गुफा वैसी की वैसी है।
इंदौर और उज्जैन में उनकी तपोभूमि पर लोग आज भी आते हैं और शांति का अनुभव करते हैं। कहते हैं कि जो भी पवित्र होकर बाबा के यहां आकर ससम्मान झुका है, समझो उसकी नैया पार हो गई। देवास के मल्हार क्षेत्र में बाबा की धूनी एक तपोभूमि है, जहां बाबा के धूने के अलावा उनके अधिकतर शिष्यों के समाधि स्थल भी हैं।
शीलनाथ बाबा जयपुर के क्षत्रिय घराने से थे। 1839 में दीक्षा प्राप्ति के बाद बाबा ने उत्तराखंड के जंगलों में कठिन तप किया। इसके बाद उन्होंने देश-देशांतरों के निर्जन स्थानों पर भ्रमण किया। पाकिस्तान, अफगानिस्तान, रूस, चीन, तिब्बत और कैलाश मानसरोवर होते हुए वे पुन: भारत पधारे। इस दौरान उनके साथ अनेक घटनाएं घटीं।
काबुल की पहाड़ी पर जब वे धूना रमाए बैठे थे तब अफगानियों ने उन पर हमला कर दिया था, लेकिन उनके धूने से उठने मात्र पर अनेक अफगानी उलट-पुलट होकर एक-दूसरे की तलवार से घायल हो गए। तब बाबा उठकर काबुल के जंगलों में चले गए और वहां धूना रमाया। काबुलवासी उनके इस चमत्कार से भयभीत हो गए और उन्होंने उनसे क्षमा-याचना की। इस तरह के बाबा के कई किस्से हैं।
1900 में वे उज्जैन क्षेत्र में पधारे, जहां उन्होंने भर्तृहरी की गुफा में ध्यान रमाया। उज्जैन के बाद कुछ दिन इंदौर में रहे तथा पुन: उज्जैन में आ गए। उज्जैन से ही उनकी प्रसिद्धि पूरे मालव राज्य में फैल गई थी। उस समय मालवा प्रांत के सरसूबा मि. ऑनेस्ट सपत्नीक बाबा के शिष्य बन गए थे। जब देवास में पांती-2 के श्रीमंत महाराज सरकार, केसीएसआई राजसिंहासन पर विराजमान थे। वे भी उज्जैन में बाबा के सत्संग में जाया करते थे।
एक बार उज्जैन के सिंहस्थ में गुर्जरों ने सभी संतों को कंबल बांटे। चूंकि बाबा नागा अवस्था में रहते थे, बावजूद इसके उन्हें भी कंबल बांटने की गलती गुर्जर कर बैठे। बाबा ने भी कंबल को चिमटे से पकड़कर अपने जलते धूने में डाल दिया। गुर्जरों ने इसे अपना अपमान समझा। तब बाबा ने धूने में चिमटा घुमाया और राख में से कंबल निकालकर गुर्जरों के हाथ में थमा दिया।
जब वे तराना में धूनी रमाए थे, उस समय देवास की पांती-1 के जज साहेब बलवंतराव बापूजी बिड़वई उन्हें देवास ले आए, जहां रानीबाग में उनके धूने की व्यवस्था कर दी। तब मल्हारराव भी उनके दर्शन के लिए आया करते थे। बाद में मल्हारराव ने मल्हार क्षेत्र में उनके धूने और आसन की पक्की व्यवस्था कर उनसे यहां रहने का आग्रह किया।
यहां बाबा 1901 से 1921 तक रहे। तत्पश्चात अंतरप्रेरणा से ऋषिकेश में जाकर वहां चैत्र कृष्ण 14 गुरुवार संवत 1977 और सन् 1921 ई. के दिन 5.55 के समय ब्रह्मलीन हो उन्होंने समाधि ले ली। कहते हैं कि यहीं पर उनके गुरु की भी समाधि थी।
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रामकृष्ण परमहंस : विवेकानंद के गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस एक सिद्ध पुरुष थे। हिन्दू धर्म में परमहंस की पदवी उसे ही दी जाती है, जो सच में ही सभी प्रकार की सिद्धियों से युक्त सिद्ध हो जाता है। उनका पूरा जीवन कठोर साधना और तपस्या में ही बीता।
रामकृष्ण ने पंचनामी, बाउल, सहजिया, सिख, ईसाई, इस्लाम आदि सभी मतों के अनुसार साधना की। बंगाल के हुगली जिले में स्थित कामारपुकुर नामक गांव में रामकृष्ण का जन्म 20 फरवरी 1836 ईस्वी को हुआ। 16 अगस्त 1886 को महाप्रयाण हो गया।
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स्वामी प्रभुपादजी : इंटरनेशनल सोसायटी फॉर कृष्णा कांशसनेस अर्थात इस्कॉन के संस्थापक श्रीकृष्णकृपाश्रीमूर्ति श्री अभयचरणारविंद भक्ति वेदांत स्वामी प्रभुपादजी के कारण ही पूरे विश्व में 'हरे रामा, हरे कृष्णा' का पवित्र नाम गूंज उठा।
अथक प्रयासों के बाद 70 साल की उम्र में न्यूयॉर्क में कृष्ण भवनामृत संघ की स्थापना की। न्यूयॉर्क से शुरू हुई कृष्ण भक्ति की निर्मल धारा जल्द ही विश्व के कोने-कोने में बहने लगी। 1 सितंबर 1896 को कोलकाता में जन्म और 14 नवंबर 1977 को वृंदावन में 81 वर्ष की उम्र में उन्होंने देह छोड़ दी।
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महर्षि अरविंद : 5 से 21 वर्ष की आयु तक अरविंद की शिक्षा-दीक्षा विदेश में हुई। 21 वर्ष की उम्र के बाद वे स्वदेश लौटे तो आजादी के आंदोलन में क्रांतिकारी विचारधारा के कारण जेल भेज दिए गए। वहां उन्हें कृष्णानुभूति हुई जिसने उनके जीवन को बदल डाला और वे 'अतिमान' होने की बात करने लगे।
वेद और पुराण पर आधारित महर्षि अरविंद के 'विकासवादी सिद्धांत' की उनके काल में पूरे यूरोप में धूम रही थी। 15 अगस्त 1872 को कोलकाता में उनका जन्म हुआ और 5 दिसंबर 1950 को पांडिचेरी में देह त्याग दी।
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लाहिड़ी महाशय : परमहंस योगानंद के गुरु स्वामी युत्तेश्वर गिरी लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे। श्यामाचरण लाहिड़ी का जन्म 30 सितंबर 1828 को पश्चिम बंगाल के कृष्णनगर के घुरणी गांव में हुआ था। योग में पारंगत पिता गौरमोहन लाहिड़ी जमींदार थे। मां मुक्तेश्वरी शिवभक्त थीं। काशी में उनकी शिक्षा हुई। विवाह के बाद नौकरी की। 23 साल की उम्र में इन्होंने सेना की इंजीनियरिंग शाखा के पब्लिक वर्क्स विभाग में गाजीपुर में क्लर्क की नौकरी कर ली।
23 नबंबर 1868 को इनका तबादला हेड क्लर्क के पद पर रानीखेत (अल्मोड़ा) के लिए हो गया। प्राकृतिक छटा से भरपूर पर्वतीय क्षेत्र उनके लिए वरदान साबित हुआ। एक दिन श्यामाचरण निर्जन पहाडी रास्ते से गुजर रहे थे तभी अचानक किसी ने उनका नाम लेकर पुकारा। श्यामाचरण ने देखा एक संन्यासी पहाड़ी पर खड़े थे। वे नीचे की ओर आए और कहा- डरो नहीं, मैंने ही तुम्हारे अधिकारी के मन में गुप्त रूप से तुम्हें रानीखेत तबादले का विचार डाला था। उसी रात श्यामाचरण को द्रोणागिरि की पहाड़ी पर स्थित एक गुफा में बुलाकर दीक्षा दी। दीक्षा देने वाला कोई और नहीं, कई जन्मों से श्यामाचरण के गुरु महाअवतार बाबाजी थे। श्यामाचरण लाहिड़ी ने 1864 में काशी के गरूड़ेश्वर में मकान खरीद लिया फिर यही स्थान क्रिया योगियों की तीर्थस्थली बन गई। योगानंद को पश्चिम में योग के प्रचार प्रसार के लिए उन्होंने ही चुना।
कहते हैं कि शिर्डी सांईं बाबा के गुरु भी लाहिड़ी बाबा थे। लाहिड़ी बाबा से संबंधित पुस्तक 'पुराण पुरुष योगीराज श्री श्यामाचरण लाहिड़ी' में इसका उल्लेख मिलता है। इस पुस्तक को लाहिड़ीजी के सुपौत्र सत्यचरण लाहिड़ी ने अपने दादाजी की हस्तलिखित डायरियों के आधार पर डॉ. अशोक कुमार चट्टोपाध्याय से बांग्ला भाषा में लिखवाया था। बांग्ला से मूल अनुवाद छविनाथ मिश्र ने किया था।
परमहंस योगानंद का जन्म 5 जनवरी 1893 को गोरखपुर (उत्तरप्रदेश) में हुआ। आपका जन्म नाम मुकुन्दलाल घोष था। उनकी उत्कृष्ट आध्यात्मिक कृति 'योगी कथामृत' की लाखों प्रतियां बिकीं और इसने सबसे ज्यदा बिकने वाली आध्यात्मिक आत्मकथा का रिकॉर्ड कायम किया है। योगानंद के पिता भगवती चरण घोष बंगाल नागपुर रेलवे में उपाध्यक्ष के समकक्ष पद पर कार्यरत थे। योगानंद अपने माता-पिता की चौथी संतान थे। उनके माता-पिता महान क्रियायोगी लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे। 7 मार्च 1952 को उनका लॉस एंजिल्स निधन हो गया।
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पं. श्रीराम शर्मा 'आचार्य' : शांतिकुंज, हरिद्वार के संस्थापक पं. श्रीराम शर्मा 'आचार्य' ने हिन्दुओं में जात-पात को मिटाने के लिए गायत्री आंदोलन की शुरुआत की। सभी जातियों के लोगों को बताया कि ब्राह्मणत्व प्राप्त कैसे किया जाए। जहां गायत्री के उपासक विश्वामित्र ने कठोर तप किया था उसी जगह उन्होंने अखंड दीपक जलाकर हरिद्वार में शांतिकुंज की स्थापना की। गायत्री मंत्र के महत्व को पूरी दुनिया में प्रचारित किया। आपने वेद और उपनिषदों का सरलतम हिन्दी में श्रेष्ठ अनुवाद किया।
20 सितंबर 1911 को आगरा जिले के आंवलखेड़ा गांव में आपका जन्म हुआ। 'अखण्ड ज्योति' नामक पत्रिका का पहला अंक 1938 की वसंत पंचमी पर प्रकाशित किया गया। 80 वर्ष की उम्र में उन्होंने शांतिकुंज में ही देह छोड़ दी। उनकी पत्नी भगवतीदेवी शर्मा ने उसने कार्य में बराबरी से साथ दिया। शांतिकुंज, ब्रह्मवर्चस, गायत्री तपोभूमि, अखण्ड ज्योति संस्थान एवं युगतीर्थ आंवलखेड़ा जैसी अनेक संस्थाओं द्वारा युग निर्माण योजना का कार्य आज भी जारी है।
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देवहरा बाबा : देवहरा बाबा का जन्म कब हुआ, यह कोई नहीं जानता। कहते हैं कि 250 वर्ष की उम्र में उन्होंने हाल ही में देह छोड़ दी। इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक वकील ने दावा किया था कि उसके परिवार की 7 पीढिय़ों ने देवहरा बाबा को देखा है। उनके अनुसार देवहरा बाबा ने अपनी देह त्यागने के 5 साल पहले ही मृत्यु का समय बता दिया था। ऐसे ही कई और सुनी-सुनाई बाते हैं, जो बाबा देवहरा के बारे में कही जाती हैं।
बाबा के कई वीडियो भी ऑनलाइन उपलब्ध हैं जिनमें बाबा अपनी मचान पर चढ़ते हुए, भक्तों को आशीर्वाद देते हुए और प्रवचन देते हुए दिखाई देते हैं। बाबा मथुरा में यमुना के किनारे रहा करते थे। यमुना किनारे लकड़ियों की बनी एक मचान उनका स्थायी बैठक स्थान था। विभिन्न स्रोतों से पता चलता है कि बाबा देवरहा 19 मई 1990 में चल बसे। बाबा इसी मचान पर बैठकर ध्यान, योग किया करते थे। भक्तों को दर्शन और उनसे संवाद भी यहीं से होता था। कहा जाता है कि जिस भक्त के सिर पर बाबा ने मचान से अपने पैर रख दिए, उसके वारे-न्यारे हो जाते थे। बाबा पर लिखी कुछ किताबों और लेखों में दावा किया गया है कि बाबा ने जीवनभर अन्न नहीं खाया। वे यमुना का पानी पीते थे अथवा दूध, शहद और श्रीफल के रस का सेवन करते थे। बाबा के दर्शन करने के लिए कई साधु और संत आते रहे थे।
बाबा के भक्तों में न केवल आम नागरिक थे बल्कि दिग्गज राजनीतिक हस्तियां भी थीं। इनमें से प्रमुख हैं- पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, पूर्व गृहमंत्री बूटा सिंह, मौजूदा कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और देश के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद। ये कई बार बाबा का आशीर्वाद लेने के लिए उनके पास जाते थे।
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नीम करौली बाबा : नीम करौली बाबा का समाधि स्थल नैनीताल के पास पंतनगर में है। नीम करौली बाबा के भक्तों में एप्पल के मालिक स्टीव जॉब्स, फेसबुक के मालिक मार्क जुकरबर्क और हॉलीवुड एक्ट्रेस जुलिया रॉबर्ट्स का नाम लिया जाता है।
नीम करौली बाबा का वास्तविक नाम लक्ष्मीनारायण शर्मा था। उत्तरप्रदेश के अकबरपुर गांव में उनका जन्म 1900 के आसपास हुआ था। उन्होंने अपने पार्थिव शरीर का त्याग 11 सितंबर 1973 को वृंदावन में किया था। बताया जाता है कि बाबा के आश्रम में सबसे ज्यादा अमेरिकी ही आते हैं। आश्रम पहाड़ी इलाके में देवदार के पेड़ों के बीच है। यहां 5 देवी-देवताओं के मंदिर हैं। इनमें हनुमानजी का भी एक मंदिर है। बाबा नीम करौली हनुमानजी के परम भक्त थे और उन्होंने देशभर में हनुमानजी के कई मंदिर बनवाए थे।
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ओशो रजनीश : ओशो रजनीश को जीवन संबंधी उनके विवादास्पद विचारों, सेक्स और धर्म की आलोचना करने के कारण अमेरिका की रोनाल्ड रीगन सरकार ने देश निकाला दे दिया था। उनके शिष्यों का मानना है कि अमेरिका में उन्हें जहर दिया गया था। वे जीवनभर पाखंड के खिलाफ लगातार लड़ते रहे। दुनिया के तमाम धर्मों व राजनीति तथा विचारकों, मनोवैज्ञानिकों आदि पर उनके प्रवचन बेहद सारगर्भित और गंभीर माने जाते हैं।
उन्होंने ध्यान की कई विधियां विकसित की हैं जिसमें 'सक्रिय ध्यान' की विश्वभर में धूम है। दुनियाभर में हैरी पॉटर्स के बाद उनकी पुस्तकों की बिक्री का नंबर आता है, जो दुनिया की लगभग सभी भाषाओं में प्रकाशित होती हैं। दुनियाभर में उनके अनेक आश्रमों को अब मेडिटेशन रिजॉर्ट कहा जाता है। 11 दिसंबर 1931 को उनका जन्म मध्यप्रदेश के कुचवाड़ा में हुआ। 21 मार्च को उन्हें संबोधि घटित हुई। 19 जनवरी 1990 को पूना में उन्होंने देह छोड़ दी। पुणे में उनका समाधि स्थल है, जहां देश विदेश से लाखों लोग दर्शन करने के लिए आते हैं।