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डॉ. मंजुश्री भंडारी
गर्भावस्था नारी जीवन की एक अत्यंत महत्वपूर्ण व संवेदनशील घटना व अद्वितीय अनुभव है। इस दौरान महिला अनेक शारीरिक व मानसिक परिवर्तनों के दौर से गुजरती है। परंतु ये परिवर्तन सभी के लिए एक समान नहीं होते। कोई लक्षण या स्थिति किसी महिला में अत्यंत कष्ट का कारण बन सकती है तो दूसरी महिला को उसमें कोई कष्ट नहीं होता, अतः गर्भावस्था को सुरक्षित व नॉर्मल बनाए रखने के लिए जरूरी है कि गर्भावस्था से जुड़े शरीर में होने वाले आंतरिक परिवर्तनों व गर्भ में पल रहे शिशु के विकास पर सतत निगरानी रखी जाए ताकि किसी भी गड़बड़ी या विकार को उसकी शुरुआत में ही पकड़कर उसका उचित निदान व उपचार किया जा सके। इसलिए गर्भावस्था के प्रारंभ से ही नियमित डॉक्टरी जाँच कराएँ व डॉक्टर जिन जाँचों या परीक्षणों की सलाह दें, उन्हें बिना चूके कराएँ। गर्भावस्था के दौरान समय-समय पर की जानेवाली विभिन्न सीरोलॉजिकल (रक्त के नमूनों) व मूत्र की जाँचों से शरीर में होने वाले रासायनिक व भौतिक परिवर्तनों का पता लगाया जाता है, वहीं सोनोग्राफी द्वारा गर्भस्थ शिशु के विकास व उसकी स्थिति की जाँच की जाती है।
गर्भवती महिला की रक्त व मूत्र संबंधी जाँचें
* हीमोग्राम * ब्लड शुगर * सीरम बिलिरुबिन * सीरम क्रिएटिनीन * ब्लड यूरिया * एचआईवी, एचबीएसएजी स्क्रीनिंग * वीडीआरएल ह ब्लड ग्रुप
ऊपर दी गई सभी जाँचें न केवल बेहद जरूरी हैं, बल्कि उनका अपना विशेष महत्व भी है। हीमोग्राम से व केवल एनीमिया (खून की कमी) का पता चलता है बल्कि अन्य अज्ञात इन्फेक्शंस को भी पकड़ा जा सकता है। एनीमिया का प्रारंभिक अवस्था में पता लगने से उसका समय पर उपचार कर संभावित खतरों को टाला जा सकता है। ब्लड शुगर, सीरम बिलिरुबिन, ब्लड यूरिया व सीरम क्रिएटिनीन वे जाँचें हैं जो एक छतरी के समान कार्य करती हैं एवं आपके शरीर की लगभग संपूर्ण कार्यप्रणाली पर गर्भावस्था से पड़ने वाले प्रभावों की जानकारी प्रदान करती है। एचआईवी, एचबीएसएजी, वीडीआरएल आदि जाँचें माता व शिशु दोनों के लिए घातक एड्स, 'बी' हेपेटाइटिस व यौन रोगों के निदान की दृष्टि से आवश्यक है।
इस प्रकार से आधारभूत या बेसिक जाँचें आपकी प्रसूति विशेषज्ञ को न केवल आपकी गर्भावस्था का बेहतर प्रबंध करने में सहायक हैं बल्कि समस्या का शुरुआती दौर में ही पता लगाकर उनके उचित उपचार द्वारा माता व गर्भस्थ शिशु को आने वाले अनेक खतरों से बचाया जा सकता है। इन जाँचों पर होने वाले खर्चे को सुरक्षित मातृत्व के लिए किए गए छोटे-से निवेश के रूप में देखा जाना चाहिए।
एक और महत्वपूर्ण जाँच है अल्ट्रा सोनोग्राफी। इससे गर्भस्थ शिशु के विकास, परिपक्वता, हृदय की गति व शारीरिक हलचल आदि की जानकारी तो मिलती ही है, साथ ही कई जोखिमपूर्ण स्थितियों जैसे आंवल (प्लेसेंटा) का शिशु की गर्दन में फंदे के रूप में लिपटना या आंवल का अपने स्थान से खिसक जाना, गर्भाशय के पानी (एम्नियोटिक फ्लूड) जिसमें शिशु सकुशल रहता है, का सूख जाना, कम होना आदि का भी समय रहते पता लगाकर जच्चा व बच्चा दोनों के प्राण बचाए जा सकते हैं। सोनोग्राफी गर्भावस्था की प्रत्येक तिमाही में कम-से -कम एक बार किया जाना आवश्यक है। इसके अलावा कई बार कुछ विशेष जाँचें जरूरी हो सकती हैं।
कुछ विशेष स्थितियों, जिन्हें हम 'हाईरिस्क प्रेगनेंसी' कहते हैं, में ये जाँचें करना आवश्यक होता है, जैसे- 35 वर्ष की आयु के बाद होने वाली गर्भावस्था में एक ट्रिपल मार्कर परीक्षण किया जाता है ताकि यह पता लगाया जा सके कि गर्भस्थ शिशु में कोई न्यूरोलॉजिकल कमी या मानसिक अविकसन की समस्या तो नहीं है। इसी प्रकार परिवार के सदस्यों (माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी आदि) में डायबिटीज (मधुमेह) होने पर गर्भवती महिला का ग्लूकोज टालरेंस टेस्ट जरूरी हो जाता है ताकि मधुमेह की संभावना का पता लगाकर आवश्यक उपाय किए जा सकें।
कुल मिलाकर बात यह है कि गर्भावस्था को सामान्य, सुरक्षित व सफल मातृत्व में परिणत करने के लिए नियमित परीक्षण, प्रसूति विशेषज्ञ की सलाह व उनके निर्देशों का पालन किया जाना बेहद जरूरी है।