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जल व पिंडदान से पितृ को मिलती है ऊर्जा

नाम व गौत्र के सहारे स्वयं करें श्राद्ध

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पितरों की पद वृद्घि तथा तृप्ति के लिए स्वयं श्राद्घ करना चाहिए। पितरों के लिए श्रद्घा से क्रमानुसार वैदिक पद्घति से शांत चित्त होकर किया कर्म श्राद्घ कहलाता है। शास्त्र में सुस्पष्ट है कि नाम व गौत्र के सहारे स्वयं के द्वारा किया श्राद्घ पितरों को विभिन्न योनियों में प्राप्त होकर उन्हें तृप्त करता है।

पं. अमर डब्बावाला के अनुसार यम स्मृति तथा निर्णय सिंधु के आधार पर जब सूर्य कन्या राशि में अवस्थित हो, तब पितृ अपने पुत्र-पौत्र की ओर देखते हैं। अपनी तृप्ति व पद वृद्घि के हेतु जल व पिंडदान की आशा करते हैं। सूर्यसंहिता के आधार पर पितृ वर्ष में साढ़े दस महीने अपनी ऊर्जा द्वारा पुत्र-पौत्रों को शुभ-आशीष प्रदान करते हैं।

पुत्र पौत्रों द्वारा दिए गए जल व पिंडदान से उन्हें ऊर्जा मिलती है। जब पितरों के निमित्त जल व पिंड दान नहीं किया जाता है, तब पितृ क्लेश करते हैं। कर्तव्य स्वरूप स्वयं द्वारा पितरों के निमित्त श्राद्घ करने से वह सीधे पितरों को प्राप्त हो जाता है। तृप्त होकर पितृ अपने वंशजों को आशीर्वाद, सुख-समृद्घि प्रदान करते हैं।

कैसे प्राप्त होता है श्राद्घ
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यह जिज्ञासा स्वाभाविक है कि श्राद्घ में दी गई अन्न आदि सामग्री पितरों को कैसे प्राप्त होती है। विभिन्न कर्मों के अनुसार मृत्यु के बाद जीव को भिन्न योनियां प्राप्त होती हैं। कोई देवता, पितृ, प्रेत, हाथी, चींटी तथा कोई चिनार का वृक्ष या तृण बनता है। श्राद्घ में दिए गए छोटे से पिंड से हाथी का पेट कैसे भर सकता है। छोटी-सी चींटी इतना बड़ा पिंड कैसे खा सकती है और देवता तो अमृत से तृप्त होते हैं। पिंड से उन्हें कैसे तृप्ति मिल सकती है।

इन प्रश्नों का शास्त्र में उत्तर दिया गया है कि नाम व गौत्र के सहारे विश्वदेव एवं अग्नि ख्वाता आदि दिव्य पितरों को हव्य (हवन) तथा काव्य (पितरों के निमित्त ब्रह्मभोज) के द्वारा पदार्थ प्राप्त करा देते हैं। इसका प्रमाण मार्कंडेय पुराण, वायु पुराण तथा श्राद्घ कल्पलता में मिलता है।

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