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नर्मदा में श्राद्घ करने से प्रसन्न होते हैं पितृ

श्राद्घ की जननी है मां नर्मदा

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- कृष्ण गिरि गोस्वामी
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॥ यथा हि गया शिरः पुण्यं, पूर्व मेव पठयते तथा रेवा तटे पुण्यं शूल भेद न संशयाः॥

जबलपुर शहर से करीब 15 किमी दूर चरगवां रोड पर नर्मदा दक्षिण तट स्थित त्रिशूलभेद तीर्थ भी गया तीर्थ के बराबर ही माना गया है। जिस प्रकार गयाजी में पितरों का तर्पण करने से पितर संतुष्ट होते हैं, वैसे ही नर्मदा में श्राद्घ करने से पितरों को संतुष्टि मिलती है। यही है नर्मदा में श्राद्घ करने के महत्व का रहस्य।

आपको यह जानकर अचंभा होगा कि ब्रह्मांड का पहला श्राद्घ मां नर्मदा के तट पर ही पितरों द्वारा स्वयं किया गया था। नर्मदा श्राद्घ की जननी है। स्कंदपुराण के रेवाखंड के अनुसार श्राद्घ क्या है? श्राद्घ क्यों करना चाहिए? इसका पता प्राचीनकाल में ऋषि- मुनि, देवता और दानवों को भी नहीं था। सतयुग के आदिकल्प के प्रारंभ में जब नर्मदा पृथ्वी पर प्रकट हुईं, तब पितरों द्वारा ही श्राद्घ किया गया। कन्या के सूर्य राशि में भ्रमण के दौरान ही आश्विन कृष्ण पक्ष की पूर्णिमा से श्राद्घ अर्थात महालय प्रारंभ हो जाता है।

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अब सवाल यह उठता है कि पितरों ने पहला श्राद्घ नर्मदा में ही क्यों किया? स्कंदपुराण के रेवाखंड के अनुसार राजा हिरण्यतेजा अपने पितरों का तर्पण करने के लिए पृथ्वी के सभी तीर्थों में गए, लेकिन उनके पितर कहीं सतुंष्ट नहीं हुए। तब उन्होंने पितरों से पूछा कि आपको कहां संतुष्टि मिलेगी? तब पितरों ने कहा कि हमारा तर्पण मां नर्मदा में ही करें।

राजा पुरूरवा ने भी नर्मदा तट पर आकर अपने पितरों का तर्पण और यज्ञादि धार्मिक अनुष्ठान किए। नर्मदा के त्रिपुरीतीर्थ त्रिशूलभेद में अयोध्या के चक्रवर्ती राजा मनु ने भी अपने पितरों का तर्पण किया है।

स्कंदपुराण के रेवाखंड के अनुसार एक दिन राजा मनु रात्रि में विश्राम कर रहे थे। उसी दौरान उनके महल के ऊपर से कई विमान निकलने की आवाज आई। तो दूसरे दिन उन्होंने इस बात की जानकारी ऋषि वशिष्ठ को दी। तब वशिष्ठजी ने राजा को बताया कि ये सभी विमान नर्मदा से आते हैं।

मां नर्मदा ही ब्रह्मांड में एकमात्र ऐसी नदी है, जो आदिकल्प सतयुग से इस धरा पर विद्यमान है और वे सभी को तारने में सक्षम हैं। इसी वजह से ऋषि वशिष्ठ के कहने पर राजा मनु ने नर्मदा तट पर आकर पितरों का तर्पण व यज्ञादि किया।

ज्योतिषाचार्य शास्त्री भी बताते हैं कि नर्मदा में भी श्राद्घ करने से पितरों को उतनी ही संतुष्टि होती है, जितनी गयाजी में श्राद्घ करने से स्कंदपुराण में इस बात का स्पष्ट जिक्र किया गया है।

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