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पितृ मुक्ति के लिए करें तीर्थ श्राद्ध

धर्म में तीर्थ श्राद्ध का महत्व

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- आचार्य गोविन्द बल्लभ जोशी
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शास्त्रों का मत है कि देव-पितृ कार्यों में आलस्य नहीं करना चाहिए। पूर्वजों की कृपा से ही मनुष्य इस संसार में आता है और सुख ऐश्वर्य प्राप्त करता है। अतः जीवनकाल में उनकी सेवा करना तथा उनकी पावन स्मृति दिवस पर पितृयज्ञ द्वारा श्राद्ध तर्पण अवश्य करना चाहिए। महानगरों की जीवन शैली में यदि अधिक समय न भी मिल पाए तो भी प्रातः स्नान कर गायत्री मंत्र के साथ सूर्यार्घ्य दें तथा खीर-पूड़ी आदि बनाकर गौ ग्रास देकर पितृ की तृप्ति हेतु प्रार्थना करें।

श्राद्ध कर्म यदि तीर्थ में होता है तो उसका अधिक महत्व होता है। पितृ की मुक्ति के लिए गया श्राद्ध का विशेष महत्व बताया गया है। कहा जाता है कि गया में श्राद्ध करने के बाद श्राद्धकर्म की पूर्णता हो जाती है तथा पितृ को शाश्वत्‌ संतुष्टि मिलती है। इसी प्रकार पुष्कर राज के ब्रह्म कुण्ड में, बद्रीनाथ में ब्रह्मकपाली क्षेत्र में, गोदावरी के तट पर त्र्यंबकेश्वर तीर्थ में तथा हरिद्वार के कुशाघाट में जो श्रद्धालु अपने पितृ के लिए पिण्डदान, श्राद्ध तर्पण, यज्ञ, विप्रों को भोजन करना एवं गौदान करते है उनके पितर तृप्त होकर अखण्ड सौभाग्य का आशीर्वाद देते हैं।

आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में किए जाने वाले श्राद्धों को पार्वण श्राद्ध कहते हैं। इसमें माता का श्राद्ध केवल आश्विन कृष्ण नवमी को होता है। इसे अन्वष्टका पार्वण श्राद्ध कहते हैं। पिता का श्राद्ध माता के श्राद्ध से पूर्व की तिथियों में किया जाता है। पिता के पार्वण श्राद्ध में तीन एवं माता के श्राद्ध में चार कुश के ब्राह्मण होते हैं। पिता के पार्वण श्राद्ध में विश्वेदेव, पितृपक्ष एंव मातुल पक्ष के तीन कुश ब्राह्मण और तीन पितृपक्ष तथा तीन मातुल पक्ष के कुल छः पिण्ड होते हैं।

माता के पार्वण श्राद्ध में एक विश्वेदेव, पितृपक्ष, मातृपक्ष तथा मातुल पक्ष के चार कुश ब्राह्मण होते हैं। तीन पितृपक्ष, तीन मातृपक्ष और तीन मातुल पक्ष के कुल नौ पिण्ड होते है। अपरा- व्यापिनी तिथि में श्राद्ध किया जाता है।

पितृ की तृप्ति के लिए विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है उसे श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध से ही श्राद्ध शब्द की निष्पत्ति होती है। 'श्रद्धया दीयते यस्मात्‌ तत्‌द्धम्' अपने मृत पितृगण के उद्देश्य से श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म विशेष को श्राद्ध शब्द नाम से जाना जाता है। इसे ही पितृपज्ञ भी कहते हैं।

महर्षि पराशर के अनुसार-देश, काल तथा पात्र में हविष्यादि विधि द्वारा जो कर्म तिल (यव) और दर्भ (कुश) तथा मंत्रों से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाए, वही श्राद्ध है।

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