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श्राद्ध पर्व : पूर्वजों के स्मरण-तर्पण का दिन

श्रद्धया यत्‌ क्रियते तत्‌

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हमें फॉलो करें श्राद्ध पक्ष
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भाद्रपद महीने के कृष्णपक्ष के पंद्रह दिन, श्राद्धपक्ष अथवा महालय पक्ष कहलाते हैं। ये दिन पूर्वजों और ऋषि-मुनियों के स्मरण-तर्पण के दिन माने जाते हैं। श्राद्ध यानी 'श्रद्धया यत्‌ क्रियते तत्‌।' श्रद्धा से जो अंजलि दी जाती है, उसे श्राद्ध कहते हैं।

जिन पितरों ने और पूर्वजों ने हमारे कल्याण के लिए कठोर परिश्रम किया, रक्त का पानी किया, उन सबका श्रद्धा से स्मरण करना चाहिए और वे जिस योनि में हों, उस योनि में उन्हें दुःख न हो, सुख और शांति प्राप्त हो, इसलिए पिंडदान और तर्पण करना चाहिए।

तर्पण करने का अर्थ है तृप्त करना, संतुष्ट करना। जिन विचारों को संतुष्ट करने के लिए, जिस धर्म और संस्कृति के लिए उन्होंने अपना जीवन अर्पित किया हो, उन विचारों, धर्म और संस्कृति को टिकाए रखने का हम प्रयत्न करें, तो वे जरूर तृप्त होंगे।

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रोज देव, पितर तथा ऋषियों की तृप्ति रहे ऐसा जीवन जीना चाहिए और वर्ष में एक दिन जिन पितरों को, ऋषि को हमने माना हो उनके श्राद्ध निमित्त हमारे जीवन का आत्मपरीक्षण करना चाहिए। हम कितने आगे बढ़े और कहाँ भूले थे, उसका तटस्थ बनकर विचार करना चाहिए।

श्राद्ध परंपरा को टिकाता है, सांस्कृतिक विरासत को जीवित रखता है। निसर्ग जिसे शरीर से ले जाता है, उसको श्राद्धमय स्मरण अमर बनाता है। काल ने जिनका नाश किया, परन्तु कर्मों और विचारों ने जिन्हें चिरंजीव बनाया है, ऐसे धर्मवीरों और कर्मवीरों का कृतज्ञ भाव से पूजन करके इन दिनों में कृतकृत्य होना चाहिए।

मानव जीवन विविध ऋणमुक्ति के लिए है। हम पर देवों और ऋषियों का ऋण है। इन निःस्वार्थी कर्मयोगियों के ऋण से मुक्त होने के लिए हमें क्या-क्या करना चाहिए, इसका इन पंद्रह दिनों में विचार करना होता है।

श्राद्ध के दिवस अर्थात्‌ ऋषितर्पण के दिवस। भारतीय संस्कृति की महानता, भव्यता, दिव्यता इन ऋषियों की अभारी है। भारत की आज भी विश्व में जो मान्यता है उसका कारण हमारे पूर्वज हैं।

स्वयं जलकर लोगों के जीवन प्रकाशित किए, इसलिए समाज उनका ऋणि है। ऋषियों का ऋण अदा करने के लिए उनके विचारों का प्रचार करना चाहिए, उनकी संस्कृति टिकाने का उसका प्रचार करने का प्रयत्न करना चाहिए।

जिन्होंने हमें जन्म दिया, जिनकी कृपा से हम छोटे से बड़े हुए, हमारे कल्याण के लिए जिन्होंने अपने स्वार्थ का त्याग किया, उन पितरों का हम पर ऋण है। कोई भी मानव निःस्वार्थ भाव से हमारा कुछ काम करे, हम पर कुछ उपकार करे तो हम उसके ऋषि कहलाते हैं। हमारे पितरों ने हमारे पर असंख्य उपकार किए हैं।

उन्हें तृप्ति हो, ऐसा अपने जीवन का निश्चय ध्येय सिद्ध न कर सके तो उसे सिद्ध करने की जिम्मेदारी पुत्र की होती है। 'सम्यक्‌ तनोति-तनु विस्तारे' पिता के दिए हुए ध्येय को जो आगे बढ़ाए उसे संतान कहते हैं। ऐसा पुत्र ही पिता का सच्चा तर्पण कर सकता है।

पितृ तर्पण यानी पितरों को याद करके उनके द्वारा दिए हुए ध्येय की ओर मैं कितना आगे बढ़ा, इसका हिसाब निकालना। जो जन्मता है वह मरता है, श्राद्ध के दिन यानी इस अटल मृत्यु का विचार करने के दिन।

मृत्यु को अमंगल मानकर, मृत पितरों और ऋषियों को याद करने के दिनों को भी हम अमंगल समझ बैठे हैं, परन्तु हमारी यह भ्रामक धारणा है। श्राद्ध पक्ष में तो मुझे भी मेरे पितरों की तरह जाना है, उनका स्मरण करके सत्कृत्यों का पाथेय बनाने को तत्पर होना चाहिए।

विविध ऋण से मुक्त होने का इन दिनों में ही विचार करना है, यह समझ आते ही दूसरों को भी यह विचार देना चाहिए। श्रद्धा से जो होता है वह श्राद्ध है! परन्तु आज तो हम श्रद्धा का ही श्राद्ध कर बैठे हैं। परिणामतः मानव जीवन के संबंध में भावनाशून्य ममत्वरहित और यंत्रवत्‌ बने हैं। चार्वाक की परंपरा के लोग आज भी श्राद्ध का मजाक उड़ाते हैं, लेकिन वे मानव जीवन के सही मर्म को समझ नहीं समझ सके हैं।

पश्चिम के चश्मे से पूर्वजों को देखने वाला इसे कैसे समझ सकेगा? यहाँ ब्राह्मणों को खिलाया हुआ पितरों को यदि पहुंचता हो तो बम्बई में खाया हुआ देहली में रहने वालों को क्यों नहीं पहुंचता है? ऐसा उनका तर्क है।

हिंदुस्‍तान में बैंक में जमा किए हुए पैसे अमेरिका में प्राप्त होते हैं। बम्बई के स्नेही ही आवाज टेलीफोन पर कलकत्ता में सुनाई देती है तो फिर भक्ति भाव से, शुद्ध अंतःकरण से और अनन्य श्रद्धा से किया हुआ श्राद्ध मंत्रशक्ति के बल पर पितरों को तृप्ति देता है यह बात आधुनिक चार्वाकों के दिमाग में क्यों नहीं घुसती है, यह एक प्रश्न है।

उनकी इस भ्रांत व गलत धारणा को दूर करके इन सबको कृतज्ञ बनाने का काम समझदार लोगों का है। यह करने की प्रभु हमें शक्ति प्रदान करे यही प्रार्थना।

- पूज्य पांडुरंग शास्त्री आठवले

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