श्राद्ध पक्ष में पितरों और देवताओं के लिए कई तरह के भोग बनाए जाते हैं। लेकिन सबसे पहले उन भोगों को अग्नि को समर्पित किया जाता है। कंडे की धूप जलाकर उस पर यह भोजन अर्पित किया जाता है। फिर जो चावल के लड्डू बनाए जाते हैं वह किसी बहते जल में अर्पित किए जाते हैं। हालांकि अग्नि को समर्पित किए जाने के पीछे एक कथा है।
एक पौराणिक कथा के अनुसार श्राद्ध का भोजन लगातार करने से पितरों को अजीर्ण हो गया और इससे उन्हें शरीर में कष्ट होने लगा। ऐसे में वे सभी ब्रह्माजी के पास गए और उनसे इस कष्ट निवारण का उपाय पूछा। तब ब्रह्माजी बोले- 'मेरे निकट ये अग्निदेव बैठे हैं। ये ही आपका कष्ट निवारण करेंगे।'
तब अग्निदेव बोले- 'देवताओं और पितरों अब से श्राद्ध में हम लोग साथ ही भोजन किया करेंगे। मेरे साथ रहने से आप लोगों का अजीर्ण दूर हो जाएगा और फिर कभी कष्ट नहीं होगा।'
कहते हैं कि तभी से श्राद्ध में सबसे पहले अग्नि का भाग दिया जाता है।
महाभारत के अनुसार, अग्नि में हवन करने के बाद जो पितरों के निमित्त पिंडदान दिया जाता है, उसे ब्रह्मराक्षस भी दूषित नहीं करते। श्राद्ध में अग्निदेव को उपस्थित देखकर राक्षस वहां से भाग जाते हैं। सबसे पहले पिता को, उनके बाद दादा को उसके बाद परदादा को पिंड देना चाहिए। यही श्राद्ध की विधि है। प्रत्येक पिंड देते समय एकाग्रचित्त होकर गायत्री मंत्र का जाप तथा सोमाय पितृमते स्वाहा का उच्चारण करना चाहिए।