निधि जैन
पाश्चात्य संस्कृति का हिस्सा बन चुके हम आए दिन कोई न कोई ‘डे’ मनाते रहते है।साल के दिनों की संख्या से ज्यादा तो तथाकथित ‘डे’ मनाए जाते हैं ,ना इसमें कोई बुराई है वे लोगों को जीते जी याद करते हैं तो हम परिजनों के गुजर जाने के बाद भी उन्हें याद करते हैं।
उनकी याद में दिवस मनाते हैं भारतीय संस्कृति सबको साथ ले कर चलने वाली है। यहां ‘डे’ भी मनाए जाते हैं तो विशेष रुप में मनाए जाते हैं। ’डे’ क्या यहां पूरा सप्ताह,माह, तिथि विशेष तो प्रत्येक मास मनाई जाती है।श्रावण,नवरात्रि, रमज़ान, दीपावली ,श्राद्ध आदि सभी अपने मनाने के मुख्य कारण के साथ अन्य सहकारणों को भी (पर्यावरण,परिवार,समुदाय,मूक प्राणी जगत ,राष्ट्र)समन्वित करके चलते हैं।
हम अगर श्राद्ध की बात करें तो इसमें न सिर्फ़ अपने पिता अपितु पितरों (हमारे दादा-परदादा) के प्रति भी धार्मिक क्रियाओं के माध्यम से सम्मान प्रकट किया जाता है,बल्कि उन्हें याद किया जाता है,उनका आभार माना जाता है। इन दिनों में सात्विकता,पशु-आहार ,दान का विशेष मह्त्व है। यहां मूलत: ’आत्मा अमर है’ का विश्वास काम करता है कि वे जहां कहीं भी हैं हमें देख रहें होगें। भारतीय संस्कृति की एक विशेषता उल्लेखनीय है कि वह अपने संस्कार से व्यक्ति को विनयवान बनाती है।
जहां इसमें ‘धर्म-भीरुता’ एक कमजोर पक्ष बनकर उभरा है जिससे कई कुरीतियों ने भी जन्म लिया। वहीं शिक्षा के प्रसार से कुछ नवीनता भी आई है। दान का स्वरुप बदल कर ब्राह्मण भोज के स्थान पर लोगों ने ज़रूरतमंदों और अनाथालयों में अन्न सेवा प्रारंभ कर दिया है। कुछ समर्थ लोग दोनों ही तरह के दान के हामी होते हैं तो आधुनिक विधि-विधान को मह्त्व न देकर श्राद्ध में छिपे मूल भाव को मह्त्व देते हुए अपने पूर्वजों को याद करने के विभिन्न तरीके अपनाते हैं । पितरों का आशीर्वाद बना रहे,पूर्वजों के प्रति आभार जताने का भाव मन में आ जाना, पूर्वजों के साथ घर में रह्ने वाले बुजुर्गों का भी आदर बना रहे यही सही मायने में श्राद्ध है जो कि आज के समय की मांग है।
श्राद्ध पर्व की मूल अवधारणा श्रद्धा पर आधारित है। श्राद्ध पर्व के 16 दिनों के दौरान यदि हम अपने विलग हो चुके बुज़ुर्गों को याद कर उनकी अच्छाइयों को अपने और अपनी अगली पीढ़ी के जीवन में कार्यान्वित कर सकें तो इस भाव-प्रसंग की सार्थकता कुछ और बढ़ जाएगी।