Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

क्या है कावड़? जानिए कावड़ यात्रा, देवों के देव महादेव को समर्पित विशेष आयोजन

हमें फॉलो करें क्या है कावड़? जानिए कावड़ यात्रा, देवों के देव महादेव को समर्पित विशेष आयोजन
- महेन्द्र पाल काम्बोज
 
 
न कोई निमंत्रण न बुलावा, न कोई पोस्टर और न पैम्पलेट। न मुनादी और न किसी का आह्वान, बिना किसी अपील और उकसावे के घरों से निकल पड़े हैं युवा। सड़कों पर आ गया है सैलाब, अपार जन समूह स्वतः स्फूर्त होकर निकला है, कितनी संख्या हो जाएगी, इसका अनुमान गत वर्षों की संख्या को देखकर लगाया जाए तो एक करोड़ को पार कर सकती है।
 
काँधे पर कावड़ उठाए, गेरुआ वस्त्र पहने, कमर में अंगोछा और सिर पर पटका बाँधे, नंगे पैर चलने वाले ये लोग देवाधिदेव शिव के समर्पित भक्त हैं। इनमें सब जातियों, सब संप्रदायों और सभी उम्र के लोग शामिल हैं। बच्चे भी हैं, तरुण भी हैं, किशोर भी हैं और युवा, अधेड़ व बूढ़े भी। स्त्री भी, पुरुष भी, सब शामिल हैं। राष्ट्रीय एकता एवं सामाजिक समरसता का इससे ज्यादा प्रामाणिक और पावन उदाहरण और क्या हो सकता है?
 
'हर-हर, बम-बम', 'बोल बम' के साथ भोले बाबा की जय-जयकार करता यह जनसमूह स्वतः स्फूर्त होकर सावन का महीना प्रारंभ होते ही ठाठें मारता चल पड़ता है। इसमें गरीब-अमीर, अगड़े-पिछड़े, छोटे-बड़े, ऊँच-नीच सब एकरस हो उठते हैं। सबकी एक ही जाति है- कावड़िया, जो भी कावड़ यात्रा का यात्री है, वह इस भक्ति अभियान में सिर्फ कावड़िया है और कुछ नहीं। 
 
कावड़ है क्या? आध्यात्मिक व्याख्या करें तो यह जीव का ब्रह्म से मिलन है। 'क' ब्रह्म का रूप है और 'अवर' जीवन के लिए प्रयुक्त होता है। 'क' में अवर की संधि करेंगे तो कावर बनेगा। यही कावर उच्चारण दोष के कारण पहले कावर और फिर कावड़ बन गया।
 
वस्तुतः कावड़िया शिव भक्ति का सामूहिक प्रदर्शन करने के बहाने तीनों देवों (ब्रह्म, विष्णु, महेश) की आराधना का फल पाना चाहता है।
 
'कावड़ के ये घट दोनों ब्रह्मा, विष्णु का रूप धरें।
बाँस की लंबी बल्ली में हैं, रुद्र देव साकार भरे।' 
 
शिव की भक्ति की शक्ति कितनी अपार है, यह पंद्रह दिनों तक चलने वाली इस कावड़ यात्रा के अपार उत्साह और संयम को देखकर पता चल जाता है। मुझे इस यात्रा में गरीबों की अधिक भागीदारी देखकर लगता है कि शिव भोले भंडारी हैं, वे सबका ध्यान रखते हैं, वे औघड़ दानी हैं और उनकी भक्ति सबसे सस्ती है, बस जल से ही प्रसन्न हो जाते हैं भोलेनाथ। जल चढ़ाओ और मनोकामना पूरी करो। अब भला इतना सस्ता सौदा और कहाँ मिलेगा? दूर कहीं तीर्थधाम जाने की जरूरत नहीं। गंगाजल भरो और लाकर अपने निकट के किसी भी शिवालय में आकर श्रद्धापूर्वक अर्चन कर लो, बस हो गया बेड़ा पार। 
 
शिव पर जल चढ़ाने की हमारी परंपरा बहुत पुरानी है। बहुत पीछे की ओर निहारते चले जाएँ तो निगाह देवासुर संग्राम पर आकर टिकती है। सागर मंथन की कथा के एक प्रसंग में कावड़ के आगमन का ज्ञान होता है। कहते हैं, सागर मंथन से निकले चौदह रत्नों में हलाहल विष भी था। बाकी चीजों पर तो सुर-असुरों ने लेन-देन में सहमति कर ली, किंतु हलाहल का क्या हो? अंततः यह देवों के हिस्से में आया। आया तो इसे कौन संभाले कौन पिए, कौन धारण करे? हलाहल की ज्वाला की लपटें अपनी तीक्ष्णता दिखाने लगीं। विष्णु तो इसमें ऐसे झुलसे कि उनके चेहरे का रंग ही काला पड़ गया और उन्हें श्याम सुंदर नाम दिया गया। हृषिकेश (विष्णु) के आग्रह पर भोले बाबा ने हलाहल को ले लिया औऱ जब वह उसे गटक ही रहे थे कि पार्वती ने टोका-टोकी कर दी और वह कंठ में ही अटक गया। शिव को नया नाम मिल गया-'नीलकंठ।'

webdunia
महाभयंकर विष को कंठ में धारण कर शिव छटपटाने लगे और तन-मन को शांत करने के लिए हिमालय की ओर भागे। उधर देवों की सेना भी मटकी में जल भर-भर कर शिव को शांत करने में जुट गई। कितना जल चढ़ा होगा, इसका अनुमान नहीं, कितने दिनों में वे शांत हुए होंगे, यह भी पता नहीं। पता तो यह भी नहीं कि उनके भीतर हलाहल की भयंकर ज्वाला अभी भी शांत हुई कि नहीं, पर शिव भक्तों की शिव पर जल चढ़ाने की यह परंपरा आज भी जारी है। 
 
सच जानें तो भारत भर में शिव भक्तों की यह कावड़ यात्रा विश्व की सबसे बड़ी यात्रा है। लोग सावन में रिमझिम वर्षा और घनघोर घटाओं के बीच मस्ती के साथ झूमते-गाते हरिद्वार और नीलकंठ तक जाते हैं और गंगाजल लेकर नंगे पाँव पैदल चलकर लौटते हैं। यात्रा के नियम बड़े कठोर हैं, जो शिव भक्तों ने स्वयं ही तय किए हैं, जैसे यात्रा के दौरान किसी प्रकार का व्यसन न करना, कावड़ को किसी भी स्थिति में जमीन पर नहीं टिकने देना, नंगे पैर चलना और घर में साग-सब्जी में छौंक न लगाना आदि।
 
कावड़ सचमुच समरसता और समानता का वातावरण बनाती है, साथ ही अपनी शक्ति और अखंड भारत की एकता का प्रदर्शन भी करती है। सारा वातावरण केसरिया हो उठा है। बाजारों में केसरिया कपड़ों (नेकर, बनियान, अंगौंछे, पटके, बैग, थैले) की माँग बढ़ रही है। व्यापारियों के लिए भी यह धनोपार्जन का एक अतिरिक्त सुअवसर है। सभी में उत्साह है, उल्लास है, भक्ति भाव है, समर्पण है औऱ पवित्रता झलक रही है। यह सब शिव भोले की भक्ति-शक्ति और उदारता के कारण ही तो है।
 
कावड़ को सजाने और सँवारने में भी युवा कावड़ियों में बड़ी प्रतिस्पर्धा है किसकी कावड़ आकर्षक हो। जगह-जगह कावड़ियों की सेवा के लिए लगे सेवा-शिविर भी स्वतः स्फूर्त हैं। यात्रा प्रारंभ हुई नहीं कि सेवादार मुख्य स्थलों चौराहों, तिराहों व दोराहों पर अपने तंबू लगा लेते हैं, जहाँ कावड़ियों के लिए खाने-पीने, बैठने व आराम करने की सुविधाओं के साथ कावड़ की जमीन से ऊपर रखने के लिए बाँस की बल्लियों के मचान व बैरीकेटिंग भी हैं। 
 
कुल मिलाकर कह सकते हैं कि कावड़ कोरा लोकाचार नहीं, हमारी संस्कृति की अनुपम धरोहर है जिसको सहेज कर रखना बहुत जरूरी है। युवाओं का इस अनूठी यात्रा में चरम उत्साह देखकर लगता है हमारी संस्कृति को अभी कोई खतरा नहीं है।

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

मंगला गौरी व्रत, 23 जुलाई 2019 : महत्व, पूजा विधि और कथा