- पंडित बृजेश कुमार राय
यूं तो श्रावण मास का अत्यंत महत्व है लेकिन उसमें भी श्रावण के सोमवार का विशेष महत्व है। वार प्रवृत्ति के अनुसार सोमवार भी हिमांशु अर्थात चन्द्रमा का ही दिन है। चन्द्रमा की पूजा भी स्वयं भगवान शिव को स्वतः ही प्राप्त हो जाती है क्योंकि चन्द्रमा का निवास भी भुजंग भूषण भगवान शिव का सिर ही है।
रौद्र रूप धारी देवाधिदेव महादेव भस्माच्छादित देह वाले भूतभावन भगवान शिव जो तप-जप तथा पूजा आदि से प्रसन्न होकर भस्मासुर को ऐसा वरदान दे सकते हैं कि वह उन्हीं के लिए प्राणघातक बन गया, तब सोचिए वह प्रसन्न होकर किसको क्या नहीं दे सकते हैं?
असुर कुलोत्पन्न कुछ यवनाचारी कहते हुए नजर आते हैं कि जो स्वयं भिक्षा मांग ते हैं वह दूसरों को क्या दे सकते हैं? किन्तु संभवतः उन्हें यह नहीं मालूम कि किसी भी देहधारी का जीवन यदि है तो वह उन्हीं दयालु शिव की दया के कारण है।
अन्यथा समुद्र से निकला हलाहल पता नहीं कब का शरीरधारियों को जलाकर भस्म कर देता किन्तु दया निधान शिव ने उस अति उग्र विष को अपने कण्ठ में धारण कर समस्त जीव समुदाय की रक्षा की। उग्र आतप वाले अत्यंत भयंकर विष को अपने कण्ठ में धारण करके समस्त जगत की रक्षा के लिए उस विष को लेकर हिमाच्छादित हिमालय की पर्वत श्रृंखला में अपने निवास स्थान कैलाश को चले गए।
हलाहल विष से संयुक्त साक्षात मृत्यु स्वरूप भगवान शिव यदि समस्त जगत को जीवन प्रदान कर सकते हैं। यहां तक कि अपने जीवन तक को दांव पर लगा सकते हैं तो उनके लिए और क्या अदेय ही रह जाता है? सांसारिक प्राणियों को इस विष का जरा भी आतप न पहुंचे इसको ध्यान में रखते हुए वे स्वयं बर्फीली चोटियों पर निवास करते हैं। विष की उग्रता को कम करने के लिए साथ में अन्य उपकारार्थ अपने सिर पर शीतल अमृतमयी जल किन्तु उग्रधारा वाली नदी गंगा को धारण कर रखा है।
श्रावण मास आते-आते प्रचण्ड रश्मि-पुंज युक्त सूर्य (वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ़ में किरणें उग्र आतपयुक्त होती हैं।) को भी अपने आगोश में शीतलता प्रदान करने लगते हैं। भगवान सूर्य और शिव की एकात्मकता का बहुत ही अच्छा निरूपण शिव पुराण की वायवीय संहिता में किया गया है। यथा-
'दिवाकरो महेशस्यमूर्तिर्दीप्त सुमण्डलः।
निर्गुणो गुणसंकीर्णस्तथैव गुणकेवलः।
अविकारात्मकष्चाद्य एकः सामान्यविक्रियः।
असाधारणकर्मा च सृष्टिस्थितिलयक्रमात्। एवं त्रिधा चतुर्द्धा च विभक्तः पंचधा पुनः।
चतुर्थावरणे षम्भोः पूजिताष्चनुगैः सह। शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चने रतः।
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिषतु मंगलम्।'
अर्थात् भगवान सूर्य महेश्वर की मूर्ति हैं, उनका सुन्दर मण्डल दीप्तिमान है, वे निर्गुण होते हुए भी कल्याण मय गुणों से युक्त हैं, केवल सुणरूप हैं, निर्विकार, सबके आदि कारण और एकमात्र (अद्वितीय) हैं।
यह सामान्य जगत उन्हीं की सृष्टि है, सृष्टि, पालन और संहार के क्रम से उनके कर्म असाधारण हैं, इस तरह वे तीन, चार और पाँच रूपों में विभक्त हैं, भगवान शिव के चौथे आवरण में अनुचरों सहित उनकी पूजा हुई है, वे शिव के प्रिय, शिव में ही आसक्त तथा शिव के चरणारविन्दों की अर्चना में तत्पर हैं, ऐसे सूर्यदेव शिवा और शिव की आज्ञा का सत्कार करके मुझे मंगल प्रदान करें। तो ऐसे महान पावन सूर्य-शिव समागम वाले श्रावण माह में भगवान शिव की अल्प पूजा भी अमोघ पुण्य प्रदान करने वाली है तो इसमें आश्चर्य कैसा?
जैसा कि स्पष्ट है कि भगवान शिव पत्र-पुष्पादि से ही प्रसन्न हो जाते हैं। तो यदि थोड़ी सी विशेष पूजा का सहारा लिया जाए तो अवश्य ही भोलेनाथ की अमोघ कृपा प्राप्त की जा सकती है। शनि की दशान्तर्दशा अथवा साढ़ेसाती से छुटकारा प्राप्त करने के लिए श्रावण मास में शिव पूजन से बढ़कर और कोई श्रेष्ठ उपाय हो ही नहीं सकता है। श्रावण मास एक अति उत्तम अवसर है भोलेनाथ की कृपा दृष्टि पाने का, इसे गंवाना नहीं चाहिए। यथाशक्ति शिव-पार्वती पूजन करें, दान पुण्य और मंत्र आदि करें और शुभता का वरदान पाएं।
जरूरी नहीं है कि शिव जी की आप खूब कठिन साधना करें। वे ऐसे देव हैं जो सरलता से प्रसन्न हो जाते हैं। यहां तक कि मानस पूजा भी उन्हें स्वीकार है। एक छोटा सा फूल, बेल पत्र, चार चावल दाने, जरा सा जल, थोड़ा सा दूध, आंकड़ा, धतूरा, भांग, घी का दीपक..बस इनमें से कोई एक भी श्रावण मास में नियमित करें तो मनचाहा वरदान मिलता है।