निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 24 सितंबर के 145वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 145 ) में उत्तरा के विवाह के बाद श्रीकृष्ण की सलाह पर पांडव अपनी मांगों को लेकर हस्तिनापुर भेजते हैं विराट नगर के राजपुरोहित को दूत बनाकर।
महाराज धृतराष्ट्र के पास पांडवों दूत आकर संदेश सुनाता है- महाराज धृतराष्ट्र आप हम पांडवों के लिए केवल हस्तिनापुर के राजा ही नहीं हमारे ज्येष्ठ पिताश्री भी हैं। इसलिए संधि अनुसार हम अपने अधिकार और इंद्रप्रस्थ के वापसी की मांग हस्तिनापुर के महाराज से कर रहे हैं और अपने ज्येष्ठ पिताश्री से यह निवेदन भी करते हैं कि वे हमारे अधिकार सहित हमारा राज्य लौटाने की कृपा भी करेंगे।
शकुनि और दुर्योधन आकर वहां पर कहते हैं- कदापि नहीं। माताश्री आप किस अधिकार की बात कर रही हैं तो गांधारी कहती है- वही अधिकार जिसका यदि 13 वर्ष का सूत जोड़ा जाए तो मूल से भी अधिक होगा। इसके बाद दूत कहता है कि महाराज पांडवों ने अपना राजपाट जीवनभर के लिए नहीं सौंपा था। द्युत की शर्तों के अनुसार तेरह वर्ष के बाद उनका राजपाट उन्हें लौटा देना चाहिए। ये तो पांडवों का शिष्टाचार है कि उन्होंने आपसे अधिकार की मांग की है।
यह सुनकर दुर्योधन कहता है कि भिखारी मांग ही सकते हैं क्योंकि उनमें छीनने का साहस नहीं होता और देने वाला टूकड़े देता है राजपाट नहीं। पांडवों को हम इंद्रप्रस्थ को क्या इंद्रप्रस्थ का नक्षा भी नहीं देंगे।... धृतराष्ट्र और गांधारी दोनों ही दुर्योधन को समझाते हैं परंतु दुर्योधन नहीं मानता है और कहता है कि यदि पांडवों में साहस है तो उन्हें मुझसे युद्ध करना होगा। अब केवल युद्ध ही पांडवों को उनका राज्य लौटा सकता है।
उधर, जब पांडवों की सभा में दुर्योधन के संदेश की सूचना मिलती है तो अर्जुन अपनी तलवार निकालकर कहता है- युद्ध, युद्ध और युद्ध अब केवल युद्ध ही होगा और कुछ नहीं। भीम भी भड़क जाता है- हां अब हम युद्ध करेंगे। दूत भेजकर हम अपना अपमान करा चुके हैं। अब कौरवों से हम एक-एक अपमान का बदला लेंगे। इस तरह सभा में सभी अपने-अपने विचार व्यक्त करते हैं तब अंत में श्रीकृष्ण कहते हैं- युद्ध से पहले हमें धर्म के अनुसार एक अंतिम उपाय करके देख लेना चाहिए। हमें शांति के लिए एक बार और शांतिदूत भेजना चाहिए।...सभी इसका विरोध करते हैं तो श्रीकृष्ण समझाते हैं कि इतिहास में यह जाना जाएगा कि पांडव धर्म के मार्ग पर थे और उन्होंने अपनी ओर से शांति का रह प्रयास करके देख लिया था। श्रीकृष्ण कई तरह से समझाते हैं तब अंत में सभी श्रीकृष्ण को दूत बनाकर भेजने पर सहमत होते हैं।
फिर श्रीकृष्ण शांतिदूत बनकर कौरवों की सभा में पहुंच जाते हैं और धृतराष्ट्र से कहते हैं- मैं कौरवों की इस भरी सभा में आपसे एक बार पुन: पांडवों का राज्य लौटाने की मांग कर रहा हूं और आपसे इस संबंध में आपकी इच्छा जानना चाहता हूं। कुछ भी कहने से पहले अपने निर्णय को भविष्य के धर्मकांटे पर तोलिए और फिर बोलिये महाराज। बोलिये महाराज धृतराष्ट्र ये समय मौन रहने का नहीं।
तब दुर्योधन खड़ा होकर कहता है- क्षमा करें द्वारिकाधीश। महाराज को जो कहना था वह पहले ही पांडवों के दूत से कह चुके हैं परंतु पांडवों ने आपको यहां आने का कष्ट देकर अच्छा नहीं किया। महाराज का उत्तर तो अब भी वही है जो पहले था। पांडवों को जुएं में हारा हुआ राजपाट वापस नहीं मिलेगा।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- यदि महाराज का यही उत्तर है तो यही उत्तर मैं महाराज के मुख से सुनना चाहता हूं। तब धृतराष्ट्र कहते हैं- हे द्वारिकाधीश मैं एक पिता हूं और पिता होने के नाते विवश हूं। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- आप पांडवों के भी तो ज्येष्ठ पिता हैं। बताइये महाराज मैं उन्हें आशीर्वाद में ले जाकर क्या कहूं? क्या कह दूं उन्होंने आपके उनके प्रेम, आदर, स्नेह और श्राद्धा को ठोकर मार दी।
यह सुनकर दुर्योधन क्रोधित होकर कहता हैं- हां...हां अवश्य कह दीजिये, हमें उनके प्रेम, स्नेह, आदर और श्रद्धा की कोई आवश्यकता नहीं है। जाइये द्वारिकाधीश जाइये, जाकर कहिये उन पाखंडियों से की इंद्रप्रस्थ मैंने जीता है मैंने। यदि उन कायरों को इंद्रप्रस्थ चाहिए तो जीत ले जाएं युद्ध भूमि पर। मैं आपके लाख कहने पर भी पांडवों को इंद्रप्रस्थ वापस नहीं लौटाऊंगा क्योंकि इंद्रप्रस्थ मेरा है मेरा और केवल मेरा ही रहेगा।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- महाराज रोकिये, दुर्योधन की इस हठ को रोकिये। कहीं ऐसा न हो कि आपका ये पुत्र अपने झूठे मान, गुमान और हठ के लिए विनाश के उस भयानक जंगल में भटक जाए जहां से निकलने का कोई रास्ता ना हो।...यदि ये युद्ध हुआ तो इसमें केवल दुर्योधन का ही नहीं संपूर्ण कौरवों का विनाश होगा और इस विनाश का उत्तरदायित्व आप पर होगा महाराज आप पर।
यह सुनकर दुर्योधन भड़क जाता है और कहता है- द्वारिकाधीश आप हमारे आदरणीय है परंतु इसका अर्थ ये नहीं कि आप शांतिदूत बनकर महाराज को भड़काएं। उनको युद्ध की धमकी दें, ये मैं कदापि सह नहीं सकता। आपकी भलाई और आदर इसीमें है कि आप उन पांडवों की गुणगाथा का गान बंद करके चुपचाप बैठे रहिये।
यह सुनकर भीष्म पितामह कहते हैं- दुर्योधन द्वारिकाधीश के प्रति अपनी जुबान को लगाम दो, ईश्वर के प्रकोप से डरो। तब दुर्योधन कहता है- पितामह डरते वो हैं जो कायर होते हैं। मैं किसी के प्रकोप से नहीं डरता क्योंकि दुर्योधन स्वयं एक प्रकोप है प्रकोप।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- ठीक कहा दुर्योधन तुमने तुम एक प्रकोप हो और अब यही प्रकोप बिजली बनकर हस्तिनापुर पर गिरने वाला है। महाराज दुर्योधन के ये कटिलें और विषैलें शब्द एक अनावश्यक युद्ध को अनिवार्य कर रहे हैं। महाराज धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने शांति संदेश में यह भी कहा था कि यदि महाराज अपने पुत्रों के हाथों लाचार होकर हमें हमारा राज्य नहीं लौटा सके तो उन्हें कौरवों की इस भरी सभा में अधिक लज्जित ना कीजियेगा। उनकी विवशता का प्रर्दशन ना कीजियेगा। उनसे पांडवों के इंद्रप्रस्थ के बदले पांच भाइयों के लिए केवल पांच गांव ही मांग लीजियेगा। वो पांच गांव पाकर ही संतुष्ट हो जाएंगे।
यह सुनकर दुर्योधन कहता है कि मैं उन भिखारियों को पांच गांव तो क्या सूई की नोंक बराबर जमीन भी नहीं दूंगा। ये मेरा अंतिम और अटल निर्णय है। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहते हैं- हे द्वारिकाधीश मैं इस संबंध में विवश हूं मैं कुछ नहीं कर सकता। तब श्रीकृष्ण कहते हैं- महाराज धृतराष्ट्र आप अपनी विवशता का दुखड़ा रोकर अपने कर्तव्य से मुंह नहीं मोड़ सकते। आप राजा हैं राजा और राजा किसी के आधीन नहीं होता और ना ही किसी का बंदी होता है। बल्कि वो उनको बंदी बनाता है जो दूसरों के अधिकारों को हड़पना चाहते हैं।
यह सुनकर शकुनि खड़ा होकर कहता है- भांजे श्रीकृष्ण तो शांति की भाषा की जगह अब युद्ध की भाषा बोल रहे हैं। ये दूत की मर्यादाओं का उल्लंघन हैं। ये जीजाश्री को हमारे विरुद्ध भड़काकर हमें बंदी बनाना चाहते हैं हां। यह सुनकर दुर्योधन भड़क जाता है और अपनी तलवार निकालकर कहता है- अरे ये क्या मुझे बंदी बनाएगा, मैं ही इसे बंदी बनाऊंगा। यह सुनकर शकुनि भी अपनी तलवार निकाल लेता है। फिर दुर्योधन कर्ण से कहता है- कर्ण बंदी बना लो इस पक्षपाती दूत को।
फिर कर्ण, दुर्योधन, शकुनि अदि अपनी अपनी तलवार निकालकर श्रीकृष्ण के सामने खड़े हो जाते हैं तो श्रीकृष्ण के साथ आए सात्यकि भी अपनी तलवार निकालकर खड़े होकर कहते हैं- सावधान! किसी ने भी द्वारिकाधीश की तरफ एक कदम बढ़ाने का भी प्रयास किया तो यहीं इसी दरबार में सिरों का ढेर लगा दूंगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण सात्यकि से कहते हैं- सात्यकि बैठो। सात्यकि पुन: बैठ जाता है।
फिर श्रीकृष्ण खड़े होकर कहते हैं- आओ, आओ दुर्योधन, आओ कर्ण मुझे बंदी बना लो। फिर जब सभी श्रीकृष्ण की ओर कदम बढ़ाते हैं तो श्रीकृष्ण के भीतर से बिजली निकलती हैं और वह विराट रूप धारण कर लेते हैं। सभी अपनी तलवार छोड़कर पीछे भागकर खड़े हो जाते हैं। फिर वे अपने हाथ में चक्र धारण कर लेते हैं तभी भीष्म, द्रोण, विदुर हाथ जोड़े खड़े हो जाते हैं। फिर श्रीकृष्ण पुन: अपने पूर्व रूप में आकर सात्यकि से कहते हैं- चलो सात्यकि। सभी स्तब्ध खड़े हुए देखते ही रह जाते हैं।
फिर श्रीकृष्ण विदुर के यहां जाकर अपनी बुआ कुंती से मिलते हैं। कुंती कहती है कि कौरवों की भरी सभा में आज आपके साथ जो कुछ भी हुआ है उसके बाद अपने सीने में वनवास काटने वाली इस चिंगारी के स्वतंत्र होकर भड़कने का समय आ गया है। आज इस बात का पता चल गया है कि सारे के सारे कौरव दृष्टिहीन हैं।
शांति का अंतिम प्रयास विफल होने के बाद कौरवों ने हस्तिनापुर में तो पांडवों ने विराट नगरी में युद्ध की तैयारियां शुरू कर दी। उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम की ओर बड़े-बड़े राजे-महाराजे को युद्ध में अपने अपने पक्ष से लड़ने के लिए निमंत्रण भेजे गए। सभी अपनी अपनी सेनाएं कौरव या पांडवों के नेतृत्व में देने लगे। फिर दुर्योधन बताता है कि मामाश्री हमने छल से काम लेकर बहुत से राजाजों को अपने साथ कर लिया है जो पांडवों का साथ देने वाले थे। मामाश्री यहां तक की पांडवों के सगे मामा अर्थात महाराज शल्य को भी अपने साथ कर लिया है। अब हम पांडवों से कहीं अधिक शक्तिशाली हो गए हैं और अब हमारी विजय निश्चित है।
यह सुनकर शकुनि कहता हैं- नहीं भांजे अभी हमारी विजय निश्चित नहीं है। हमाने बड़े-बड़े राजा-महाराजाओं को तो अपने पक्ष में कर लिया है परंतु अब भी एक शक्तिशाली राजा शेष है जिसकी सेना पल भर में युद्ध का पासा पलट सकती है और हम जीती हुई बाजी हार सकते हैं। तब दुर्योधन कहता है कि आप किस राजा की बात कर रहे हैं मामाश्री? तब शकुनि कहता है- मैं द्वारिकाधीश श्रीकृष्ण की बात कर रहा हूं। इससे पहले की अर्जुन वहां पहुंचे तुम्हें द्वारिकाधीश से सहायता अवश्य मांग लेना चाहिए।
यह सुनकर दुर्योधन कहता है कि परंतु मामाश्री वो किसी भी परिस्थिति में पांडवों का ही साथ देंगे। तब शकुनि कहता है- ना भांजे ना। यदि उन्हें धर्मसंकट में डाल दो तो वे तुम्हारी भी सहायता करेंगे। यह सुनकर दुर्योधन कहता है- मामाश्री मैंने उनका अपमान करके उन्हें बंदी बनाने का आदेश दिया था तो फिर मैं किस मुंह से उनसे सहायता मांगूगा? तब शकुनि कहता है- अरे भांजे उसके लिए तो तुम क्षमा भी मांग चुके हो। सुनो! यदि तुम उनसे अपनी रिश्तेदारी का अधिकार जताकर उनसे सहायता मांगोगे तो वो इनकार नहीं करेंगे। उनका कोमल हृदय अवश्य पिघलेगा भांजे हां।
यह सुनकर रुक्मिणी कहती है- देख लिया प्रभु। मामा शकुनि ने कैसी कुटिल चाल चली है। इस बार तो वो आपको भी धर्मसंकट में डालने का प्रयास कर रहे हैं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- देवी जुआं खेलने वाले मनुष्य की प्रवृत्ति छल-कपट से इतनी दूषित हो जाती है कि वह अपने जीवन के हर पल, हर क्षण छल और कपट के सहारे कुटिल चालें ही चलता रहता है। यह सुनकर रुक्मिणी कहती है परंतु इस चाल का उत्तर अब आप क्या देंगे? एक तरफ तो मामा शकुनि ने पट्टी पढ़ाकर दुर्योधन को भेजा है तो दूसरी ओर अर्जुन आपसे मदद मांगने के लिए आ रहा है। दोनों का आप पर अधिकार है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- हां देवी ना ही मैं अपने सखा अर्जुन को निराश कर सकता हूं और ना ही मैं दुर्योधन को उसके अधिकार से वंचित रख सकता हूं।
इसके बाद श्रीकृष्ण के पास दुर्योधन पहले पहुंच जाता है तब श्रीकृष्ण सोए रहते हैं तो वह उनके जागने का इंतजार करने के लिए उनके सिरहाने बैठा जाता है तभी अर्जुन भी आ जाता है तो वह उनके पैरों के पास बैठा जाता है। फिर जब श्रीकृष्ण की आंखें खुलती है तो वे सबसे पहले अर्जुन को ही देखते हैं और उसी से पूछते हैं कि कहो क्या मांगने आए हो। यह सुनकर दुर्योधन कहता है कि पहले मैं आया हूं अत: मांगने का पहला अधिकार मेरा होगा। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं परंतु मैंने पहले अर्जुन को देखा तो मांगने का अधिकार पहला उसका ही होगा और तुम तो जानते ही हो की मैं युद्ध में शस्त्र नहीं उठाऊंगा, चूंकि तुम दोनों ही सहायता मांगने आए हो तो मुझमें और मेरी नारायण सेना में से किसी एक को चुन लो। तब अर्जुन कहता है कि हे केशव मैं तो बस आपको ही मांगने आया हूं। यह सुनकर दुर्योधन प्रसन्न हो जाता है और कहता है चूंकि जब अर्जुन ने आपको ही चुन लिया है तो मेरे लिए सेना ही बच जाती है। मुझे ये मंजूर है।
अंत में कर्ण दुर्योधन को अपने अपमान की बात बताता है कि एक बार अर्जुन और कर्ण के बीच धनुर्विद्या को लेकर एक सभा में वाद-विवाद होता है तो कर्ण कहता है कि तो हो जाए आज मुकाबला की कोई सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर है। यह सुनकर द्रोण कहते हैं कि यह मुकाबला राज पुत्रों के बीच है और तुम कहीं के राजा नहीं हो। तब दुर्योधन उसी वक्त कर्ण को अंगदेश का राजा बना देता है। तब द्रोण कर्ण को सूत पुत्र कहकर उसका अपमान करते हैं। बाद में कर्ण यह प्रतिज्ञा करता है कि मैं पितामह भीष्म के नेतृत्व में युद्ध नहीं लडूंगा। जय श्रीकृष्णा।