निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 7 अक्टूबर के 158वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 158 ) में श्रीकृष्ण भक्त और भक्ति की बात करते हैं। श्रीकृष्णा के पिछले कुछ एपिसोड से श्रीकृष्ण गीता के ज्ञान की गंगा बहा रहे हैं। इसी क्रम में पढ़िये अब आगे।
इस बार 156वां एपिसोड रिपिट किया गया है।...यह सुनकर अर्जुन कहता है कि हे केशव! इस माया के संसार का रूप क्या है? तब श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! यदि तुम अपने ज्ञान चक्षुओं से देखोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि ये माया का संसार एक उल्टे वृक्ष की भांति है जिसकी जड़े ऊपर हैं और टहनियां एवं पत्ते नीचे की ओर है। अपने अंतर चक्षुओं के द्वारा इसे देखो अर्जुन। फिर श्रीकृष्ण अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं।
इस पर अर्जुन कहता है कि हे केशव! मैं इस संसार वृक्ष को देख सकता हूं। इसकी जड़ें ऊपर है और तुमसे निकली है। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हां अर्जुन जैसा मैंने कहा कि यह संसार मेरी माया का रूप है। इसकी जड़े उपर है और मेरे से ही निकली है और माया का स्थान चूंकि मुझसे नीचे है इसलिए यह पेड़ उल्टा है।
ऊर्ध्वमूलमधः शाखमश्वत्थं प्राहुरव्ययम् ।
छन्दांसि यस्य पर्णानि यस्तं वेद स वेदवित् ॥- पुरुषोत्तमयोग- पंद्रहवाँ अध्याय
यह सुनकर धृतराष्ट्र कहता है कि फिर मेरा मन भय से क्यूं कांप रहा है। एक ही उपदेश का विपरित प्रभाव क्यों पड़ रहा है। अर्जुन का मन शांत होता जा रहा है और मेरा मन अशांत हो रहा है। तब संजय कहता है कि महाराज किसी बात का किसी व्यक्ति पर क्या प्रभाव पड़ेगा इसका अधार तो उस व्यक्ति की भावना पर निर्भर रहता है। यदि मन में कोई भय कुंडली मारे बैठा है तो वह सच्ची और कड़ी बात पर ऐसे ही फन उठाता है जैसे नाग लाठी को देखकर। परंतु आप क्यों व्याकुल हो रहे हैं। हर एक की मृत्यु का एक न एक दिन निश्चित है। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहता है कि परंतु मेरी व्याकुलता का कारण ये है कि कहीं मेरे पुत्र मेरे कारण इस युद्ध में मृत्यु का शिकार ना बन जाए। उसे समय मैंने कहा था कि प्रारब्ध में जो लिखा है वही होगा, मेरे हाथों में कुछ नहीं है। आज ऐसा लग रहा है कि उस समय मैं नहीं बोल रहा था नियति ही मेरे मुंह से बोल रही थी। संजय अब मेरे हाथों में कुछ नहीं रहा, कुछ नहीं रहा। सब कुछ कृष्ण के हाथ में ही है, सब कुछ।
इसके बाद अर्जुन पूछता है कि हे मधुसुदन! तुम कहते हो कि सर्वव्यापी परमात्मा की शरण में आओ परंतु उस परमात्मा का स्वरूप क्या है? मुझे अपना वह स्वरूप बताओ जिसकी पूजा की जाए क्योंकि संसार में भिन्न भिन्न लोग भिन्न भिन्न देवताओं की पूजा करते हैं क्या वह पाप है?
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- नहीं अर्जुन, पूजा कभी पाप नहीं होती और जो प्राणी भिन्न-भिन्न देवताओं की पूजा करते हैं वो भी वास्तव में मेरी ही पूजा करते हैं क्योंकि इस विश्व के कण-कण में मैं ही समाया हुआ हूं। ज्ञानीजन अपने ज्ञान चक्षुओं से मुझे हर जगह हर प्राणी के अंदर देख सकते हैं। एक विद्वान ब्राह्मण मैं भी मैं ही हूं तो एक चांडाल के अंदर भी मैं ही हूं। गऊ मैं भी मैं हूं तो एक कुत्ते में भी मैं हूं। हाथी में भी मैं हूं तो चींटी में भी मैं ही हूं।
विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि ।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिताः समदर्शिनः ॥
भावार्थ : वे ज्ञानीजन विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुत्ते और चाण्डाल में भी समदर्शी (इसका विस्तार गीता अध्याय 6 श्लोक 32 की टिप्पणी में देखना चाहिए।) ही होते हैं॥5-18॥
हे पार्थ इसलिए अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार प्राणी जिस-जिस रूप में भी मेरी पूजा करते हैं वह मेरी ही पूजा करते हैं। इसलिए जो भी सकामी पुरुष जिस भी देवता की पूजा करना चाहते हैं मैं उस भक्त की श्रद्धा को उस देव के प्रति स्थिर कर देता हूं।.. इस प्रकार जब बहुत जन्मों के पश्चात उसे यह ज्ञान हो जाता है कि इस सारी सृष्टि में मुझ वासुदेव के अलावा कोई नहीं है तो ऐसा ज्ञानी महात्मा अंतत: मुझे ही प्राप्त होता है। परंतु हे अर्जुन ऐसा महात्मा अति दुर्लभ है।
यह सुनकर अर्जुन कहता है- परंतु हे केशव! प्राणी तुम्हें छोड़कर भिन्न-भिन्न देवताओं की पूजा ही क्यों करते हैं? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! मैंने तुम्हें पहले ही बताया है कि इस त्रिगुणात्मक सृष्टि में प्राणियों के कर्म, उनकी वृत्ति और उनकी श्रद्धा भी त्रिगुणात्मक होती है। इसलिए अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार सत्वगुण वाले देवताओं को पूजते हैं, रजोगुण वाले यक्ष, गंधर्व, नाग आदि की पूजा करते हैं और तमोगुण वाले प्राणी भूत प्रेतों को पूजते हैं।
यजन्ते सात्त्विका देवान्यक्षरक्षांसि राजसाः।
प्रेतान्भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जनाः।।17.4।।
सात्त्विक मनुष्य देवताओं का पूजन करते हैं, राजस मनुष्य यक्षों और राक्षसोंका और दूसरे जो तामस मनुष्य हैं, वे प्रेतों और भूतगणोंका पूजन करते हैं।
हे अर्जुन! देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं और मृत्यु के उपरांत स्वर्गलोक में कुछ काल तक निवास करते हैं। पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं और पितृलोक में जाते हैं और भूत-प्रेतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और नए जन्म में उन्हें भूत-प्रेतों की योनी मिलती है।
तब अर्जुन कहता है कि हे केशव! तुम्हारे कहने के अनुसार मनुष्य अपने अज्ञान के अंधकार में अपने अहम का हाथ पकड़े भटक रहा है और इसलिए समर्पण नहीं कर पाता। अर्थात अज्ञान ही समर्पण के रास्ते की चट्टान बन जाता है तो अज्ञान के अंधकार को दूर करने और ज्ञान प्राप्त करने का सरल साधन बताओ। इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! ज्ञान प्राप्त करने का केवल एक मात्र साधन श्रद्धा है। श्रद्धा के बीज से ही विश्वास का अंकुर फूटता है और आस्था का पौधा लहलहाने लगता है, फिर इसी पौधे पर ज्ञान के फूल खिलते हैं।
फिर माता पार्वती कहती हैं कि हे भोलेनाथ! भगवान श्रीकृष्ण भक्ति के संबंध में श्रद्धा को अधिक महत्व क्यों दे रहे हैं? तब शिवजी कहते हैं कि देवी श्रद्धा बिना भक्ति कैसे हो सकती है। फिर शिवजी श्रीकृष्ण की बात का विस्तार करते हैं।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि श्रद्धा ही मनुष्य को प्रेम और शांति की ओर ले जाती है और जिस मन में श्रद्धा नहीं होती है वह मन संशय और शक के अंधेरों में इस प्रकार भटक जाता है कि उसे ना तो इस लोक में सुख का रास्ता मिलता है और ना परलोक में शांति प्राप्त हो सकती है।
यह सुनकर धृतराष्ट्र कहता है कि संजय! तुम्हारे मुख से श्रीकृष्ण के उपदेश को सुन-सुनकर के मेरा मन शांति को खोता जा रहा है। कितनी विचित्र बात है ये। संजय कहता है कि यदि आपका मन अशांत हो रहा है तो इसमें विचित्र क्या है? तब धृतराष्ट्र कहते हैं कि संजय श्रीकृष्ण के उपदेश का मुख्य उपदेश अर्जुन के अशांत मन को शांति देना है परंतु मुझ पर इसका उल्टा असर हो रहा है। मेरा शांत मन अशांत होता जा रहा है। ऐसा क्यूं हो रहा है संजय, क्यूं हो रहा है? यह सुनकर संजय कहता है कि महाराज श्रीकृष्ण ने ठीक ही कहा है कि श्रद्धा ना हो तो मनुष्य सुखी नहीं रह सकता। आपके मन में श्रद्धा का अभाव है।
उधर, फिर श्रीकृष्ण श्रद्धा और शंका को उदाहरण सहित विस्तार से बताते और कहते हैं कि युद्ध के लिए कमर बांधकर खड़ा हो जा। तब अर्जुन कहता है कि हे मधुसुदन! तुम कहते हो कि मनुष्य अपनी अंतिम सांस तक भी माया-मोह में पड़ा रहता है तो इसी कारण जन्म के चक्र में फंस जाता है। परंतु तुम्हीं ने इस मायामयी सृष्टि की रचना करके और दूसरी और मनुष्य को चंचल मन प्रदान करके दोनों को एक दूसरे में उलझा दिया है। पग-पग पर मनुष्य के बहकने के लिए अनेक आकर्षण पैदा किए। मनुष्य इसके जाल में उलझा रहता है। और क्षमा करना तुम ये जाल बिछाकर किसी शिकारी या बहेलिये की भांति जाल में फंसे मनुष्य के हाथ-पैर मारने और उसके छटपटाने का तमाश देखते रहते हो।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि नहीं अर्जुन मैं तमाशा नहीं देखता बल्कि अपनी माया की लीला देखता हूं। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि फिर भी केवल निहारते ही रहते हो ना, सहायता तो नहीं करते कि बिचारा प्राणी इधर-उधर भटक रहा है। रास्ता भूल पड़ा है तो तुम्हारे मन में बिचारे मनुष्य की सहायता करने का विचार कभी नहीं आता कि आगे बढ़कर उसका हाथ थाम लूं। उसे सच्चा रास्ता दिखाऊं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि बिल्कुल आता है और मैं मनुष्य की सहायता भी करता हूं। इस पर अर्जुन कहता है कि परंतु कब करते हो उसकी सहायता? मैं तो देख रहा हूं कि तुमने कर्म का विधान बना दिया है, जन्म-मरण का चक्र चला दिया है और इस चक्रव्यूह में मनुष्य को फंसा दिया है। ये तो कोई बात नहीं हुई, ये तो कोई सहायता नहीं हुई।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं सहायता अवश्य करता हूं। अपने भक्त को मैं कभी बेसहारा नहीं छोड़ता। परंतु मनुष्य मेरी ओर देखे सहायता के लिए, मेरी ओर बढ़े तो मैं उसकी सहायता करूं ना। परंतु वह मेरी ओर बढ़ने के बजाय अपने अहंकार में डूबा रहता है। अपने बाहुबल के घमंड में पड़ा रहता है। वह तो इस भ्रम में पड़ा रहता है कि संसार में उससे बढ़कर कोई नहीं है। वह तो केवल अपनी बुद्धि और बल पर ही भरोसा करता रहता है। अपने बाहुबल पर उसे अपने परमात्मा से भी अधिक विश्वास होता है।
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि अपने रास्ते से भटके हुए मनुष्य से आखिर तुम उससे क्या चाहते हो? क्या तुम्हें सोने-चांदी के चढ़ावे चाहिए। क्या तुम अपने भक्तों से स्वादिष्ट और पंच-पकवान चाहते हो? यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मैं मनुष्य से एक श्रद्धा के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहता, कुछ नहीं मांगता। वह मेरे प्रति बड़े-बड़े चढावे ना चढ़ाएं। सोना, चांदी, चंदन, घी और पकवान के चढ़ावे मुझे नहीं चाहिए। श्रद्धा और भक्तिभाव से एक फल, एक फूल या फूल की एक पत्ति, जल का एक कतरा या चावल का आधा दाना ही सही मैं उसको भक्त की श्रद्धा से कहीं अधिक श्रद्धा से स्वीकार कर लेता हूं।
पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः।।9.26।।
मेरे भक्तों को केवल अपुनरावृत्तिरूप अनन्त फल मिलता है इतना ही नहीं? किंतु मेरी आराधना भी सुखपूर्वक की जा सकता है। कैसे ( सो कहते हैं) जो भक्त मुझे पत्र? पुष्प? फल और जल आदि कुछ भी वस्तु भक्तिपूर्वक देता है? उस प्रयतात्मा- शुद्धबुद्धि भक्तके द्वारा भक्तिपूर्वक अर्पण किए हुए वे पत्र पुष्पादि मैं (स्वयं) खाता हूं अर्थात् ग्रहण करता हूं।... अरे इतना ना हो सके तो श्रद्धा या भक्ति का एक आंसू ही सही। मैं उसे ही कबूल कर लेता हूं। उसके एक आंसू से उसके सारे पाप धोकर उसे निष्पाप कर देता हूं।
फिर अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण आसक्ति से रहित भक्ति के महत्व को बताते हैं। हे अर्जुन! भक्ति का स्थान इतना ऊंचा है किअपने सच्चे भक्तों की मैं स्वयं भक्ति करता हूं। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि ये क्या कह रहे हो मधुसुदन, भला परमात्मा होकर तुम किसी भक्त की भक्ति कैसे कर सकते हो? यदि परमात्मा भी भक्त हो गया तो फिर दोनों में क्या अंतर रह जाएगा? इस पर श्रीकृष्ण कहते हैं कि यही अंतर तो मिटाना चाहता हूं मैं। भक्ति भक्त और भगवान के बीच कोई सीमा रेखा नहीं खींचती।
भक्त और भक्ति के बातें सुनकर अर्जुन की आंखों से आंसू झरने लगते हैं और वह कहता है- हे भक्त वत्सल! हे भक्तों के भक्त, हे देवताओं के देवता, हे योगेश्वर, हे ब्रह्मांड नायक, आपने मुझ अज्ञानी को, पाप के भागी को अपनी कृपा से जो ब्रह्मज्ञान प्रदान किया है, मुझे अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश में ला खड़ा किया है। उसके लिए मैं आपका आभारी हूं। इतना आभारी की मैं लाखों वर्षों तक भी आपके श्रीचरणों में मैं अपना माथा टेके रखूं और अपनी आंखों से आंसू बहा-बहाकर सैंकड़ों विशाल समुद्र भर दूं तब भी इस उपकार को चुका नहीं सकूंगा। इस परम गोपनीय तथा आध्यात्मिक विद्यादान के लिए आपका कोटि-कोटि धन्यवाद। आपके इस परमज्ञान के आगे मैं अपना माथा टेकता हूं और मैं अपने तन-मन को आपको समर्पित करता हूं। ये सब-कुछ आपकी ही दया का दान था जो मैं आपके श्रीचरणों में रखता हूं। और अज्ञान के मारे आपको केवल एक मनुष्य समझकर मैंने आपको अपना सखा समझकर जाने-अनजाने में जो भी भूल की हो, आपकी गरीमा को धक्का पहुंचाया हो तो उसके लिए हे दया सागर आप मुझे क्षमा कर दीजिये और मेरे विनम्र समर्पण को स्वीकार करके, अनुग्रह कीजिये। ऐसा कहकर अर्जुन श्रीकृष्ण के चरणों में अपना माथा टेक देता है।
फिर श्रीकृष्ण अर्जुन के आंसू पोंछते हुए कहते हैं- हे अर्जुन! देखो इन आंसुओं को। इन आंसुओं की गंगा में तुमने अपनी हर भूल और अपने हर पाप को धो डाला है। अब तुम निष्पाप हो गए हो। तुम्हारे विवेक ने तुम्हारी आत्मा से पापों का बोझ उतार दिया है। तुम धन्य हो अर्जुन, तुम धन्य हो। इस क्षण तुम जिस परम अवस्था में पहुंच गए हो उस अवस्था में पहंचने के लिए युगों-युगों में कोई महात्मा मेरी विशेष कृपा से पहुंच पाता है। मैं देख रहा हूं कि तुम इस क्षण केवल प्रकाश पुंज हो जिसे मैंने अपनी दिव्य ज्योति से प्रकाशित कर दिया है। कोई लालसा और कोई कामना अब तुम्हारे अंदर नहीं रही।
यह सुनकर अर्जुन कहता है- हे प्रभु! अभी में पूरी तरह कामना विहीन नहीं हुआ हूं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं- क्या कह रहे हो अर्जुन? इस पर अर्जुन कहता है कि हां भगवन, आपने अपनी ज्योति से मेरे अंतर की ज्योति को प्रकाशित कर दिया है परंतु आपकी ज्योति का तेज मेरी समस्त कामनाओं को भस्म नहीं कर सका है। अब भी मेरे अंदर एक कामना रह गई है जो मरी नहीं है।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! ऐसी कौन-सी कामना है जिसे मेरी ज्योति का तेज भस्म नहीं कर सका? तब अर्जुन कहता है आपके दर्शन की। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि मेरे साक्षात् दर्शन तो तुम कर रहे हो। यह सुनकर अर्जुन कहता है- नहीं भगवन, इस समय मैं आपके संपूर्ण रूप के दर्शन करना चाहता हूं। मैं आपके भिन्न-भिन्न गुणों की और आपके भिन्न-भिन्न रूपों की व्याख्या सुन चुका हूं। भिन्न-भिन्न अवतारों में भी आपके भिन्न-भिन्न रूप हुए हैं। मैं उन सब रूपों को, उन सब गुणों को एक साथ एक ही समय में देखना चाहता हूं। हे समस्त चराचर के स्वामी यदि आप मुझ पर प्रसन्न हो तो मेरी ये अंतिम इच्छा पूरी कर दीजिये।
यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे पार्थ मैंने तुम्हें सर्वदा अपना सखा कहा है मैं तुम्हारी ये इच्छा भी अवश्य पूरी कर सकता हूं परंतु मेरे इस विराट स्वरूप के दर्शन का तेज तुम्हारी आंखें नहीं सह सकेंगी। हे अर्जुन तुम्हारे नेत्रों की झोली छोटी है जिसमें मेरा विराट दर्शन नहीं समा सकेंगे। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि मेरी नेत्रों की झोली छोटी है परंतु आपकी दया की झोली तो छोटी नहीं है। सच्चा दाता अपने भक्तों की झोली छोटी देखकर अपना दान कम नहीं करता। उसी प्रकार हे अपरंपार मुझे वो नेत्र प्रदान करो जिनसे मैं आपके विराट स्वरूप के दर्शन कर सकूं। यह सुनकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन आज तुमने सच्चे भक्त की भांति भगवान को हरा दिया। अच्छी बात है मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूंगा। आज तुम्हारे कारण समस्त देवी-देवता भी मेरे इस दुर्लभ रूप को देखकर निहाल हो जाएंगे।
फिर श्रीकृष्ण
अर्जुन को दिव्य नेत्र प्रदान करते हैं। दिव्य नेत्र प्रदान होते ही अर्जुन को ब्रह्मांड नजर आने लगता है और वह देखता है प्रभु श्रीकृष्ण के विराट रूप को। यह रूप देखकर वह थर-थर कांपने लगता है। अंतरिक्ष से सभी देवी-देवता भी हाथ जोड़े श्रीकृष्ण के विराट रूप के दर्शन करते हैं। आकाश में शंख और घंटियों की आवाज गुंजने लगती है। शिव और माता पार्वती भी अपनी गर्दन आसमान में उठाकर प्रभु के ये दर्शन करते हैं।
अर्जुन घबराकर कहता है- हे महाविराट स्वरूप, हे महाविकराल रूप, हे परमदेव आपकी इस विशाल आकृति को देखकर मैं आश्चर्य चकित हूं और भयग्रस्त हो रहा हूं। स्वर्गलोक से पाताललोक तक केवल आपका ही विशाल और विकराल रूप दिखलाई दे रहा है। मेरी दिव्य दृष्टि की सीमाओं से परे आप हैं। आपका अस्तित्व कहां से आरंभ होता है और कहां समाप्त होता है मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। मेरी बुद्धि भ्रमित हो रही है। कृपया मुझको समझाइये कि आप कौन हैं, आप कौन हैं, आप कौन हैं? हे महाबाहु आपका उग्र प्रकाश अपने तेज द्वारा समस्त जगत को तपा रहा है। मुझ पर कृपा कीजिये और मुझे बतलाइये की उग्र रूप वाले आप कौन हैं?
तब विराट रूप श्रीकृष्ण कहते हैं- हे अर्जुन! तुम पर अनुग्रह करके मैंने अपनी योग शक्ति के प्रभाव से मेरे इस परम तेजोमय अनादि और अनंत रूप का दर्शन तुझे करा दिया है। ये जो सीमा रहित विराट रूप तुम देख रहे हो आज से पहले मैंने किसी को नहीं दिखाया है। तुम पर स्नेह के कारण मैंने तुझे इस रूप के दर्शन कराएं हैं। तुझे व्याकुलता नहीं होनी चाहिए। हे पांडव पुत्र मेरी ओर देखो, मैं समस्त लोकों का नाश करने वाला महाकाल हूं। मेरे रूप में प्रतिक्षण हजारों सृष्टियां विलिन होती रहती हैं और मेरे से ही लाखों ब्रह्मांड प्रकट होते रहते हैं। करोड़ों सीतारों और लाखों सूर्यों से बनी ये सारी सृष्टियां केवल मेरी मर्जी का खेल हैं। जब चाहता हूं इन्हें बना देता हूं और जब चाहता हूं इन्हें मिटा देता हूं। मैं ही जीवन हूं और मैं ही मृत्यु हूं। हे भक्त इस समय तुम्हारी भक्त के कारण मैंने जो विराट स्वरूप धारण किया है वह रूप केवल तुम्हारे समझने के लिए संपूर्ण है। तुम मेरे अस्तित्व को ना अपनी बुद्धि से समझ सकते हो और ना इस दिव्य दृष्टि से तुम मेरे संपूर्ण रूप के दर्शन कर सकते हो। तुम्हारी सारी कल्पनाएं मेरे संपूर्ण अस्तित्व को देखने में असफल हो जाएंगी। हां केवल भक्ति से तुम मेरी असीम विशालता का आभास कर सकते हो। इसलिए केवल श्रद्धा और भक्ति से मेरे इस रूप को अपने हृदय में धारण करो और इस भय और व्याकुलता का त्याग करके केवल मेरे नाम का स्मरण करो।
यह सुनकर थर-थर कांप रहा अर्जुन जय श्रीकृष्ण, जय श्रीकृष्ण का जाप करने लगता है।
उधर, संजय भी यह देखकर कांपते हुए श्रीकृष्ण का जाप करने लगता है, जय श्रीकृष्ण जय श्रीकृष्ण। यह सुनकर धृतराष्ट्र चिढ़कर कहता है- संजय मैं पूछता हूं ये क्या हो रहा है? यह सुनकर संजय कहता है महाराज कुछ मत पूछिये इस समय क्या हो रहा है। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को अपना दिव्य विराट स्वरूप दिखा रहे हैं, विराट स्वरूप। यह सुनकर धृतराष्ट्र कहता है- क्या? तब संजय कहता है- हां महाराज ऐसा लग रहा है जैसे कुरुक्षेत्र की धरती पर करोड़ों सूर्य एक साथ उतर आएं हैं। पाताल से पृथ्वीलोक और पृथ्वीलोक से स्वर्गलोक तक भगवान का विराट आकार फैल गया है। भगवान के इस विराट स्वरूप के दर्शन के लिए सारी सृष्टियां सजग हो गई हैं। सबकी जिव्हा से आप ही आप जय श्रीकृष्ण, जय श्रीकृष्ण, जय श्रीकृष्ण निकल रहा है।
यह सुनकर धृतराष्ट्र कहता है कि काश मेरी भी आंखें होती। काश तात वेद व्यास ने मुझे भी दिव्य दृष्टि दी होती। काश मैं भी देख सकता। यह सुनकर संजय कहता है कि महाराज देख नहीं सकते तो अपने कानों को उस महाध्वनि पर केंद्रित करिये जो इस समय सारे ब्रह्मांड में गूंज रही है। यह सुनकर धतृराष्ट्र ध्यान से सुनता है तो उसे शंख, घंटियों, ढोल आदि की आवाज सुनाई देती है। सभी देवी और देवता श्रीकृष्ण के इस स्वरूप का स्तुति गान कर रहे होते हैं। जय श्रीकृष्णा।