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Shri Krishna 8 Oct Episode 159 : अर्जुन पूछता है कि मूर्ति पूजने वाले सही हैं या नहीं?

हमें फॉलो करें Shri Krishna 8 Oct Episode 159 : अर्जुन पूछता है कि मूर्ति पूजने वाले सही हैं या नहीं?

अनिरुद्ध जोशी

, गुरुवार, 8 अक्टूबर 2020 (22:23 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 8 अक्टूबर के 159वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 159 ) में श्रीकृष्ण द्वारा विराट रूप दिखाए जाने के बाद महाभारत संबंधी एपिसोड का अब तक का सफर बताया जाता है और पुन: कुरुक्षेत्र में सेनाओं के एकत्रित होने और श्रीकृष्‍ण द्वारा अर्जुन को गीता का ज्ञान देना बताया जाता है। गीता के ज्ञान में मुख्य रूप से अब तक संख्य योग, कर्म योग और भक्ति योग की बातें कही गई हैं। गीता के ग्यारहवें अध्याय के दौरान श्रीकृष्ण ‍अपना विराटरूप प्रकट करते हैं। अब आगे...
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
 
संपूर्ण गीता हिन्दी अनुवाद सहित पढ़ने के लिए आगे क्लिक करें... श्रीमद्‍भगवद्‍गीता
 
धृतराष्ट्र कहता है कि संजय कृष्ण के विराट स्वरूप के दर्शन करने के बाद अर्जुन तो अब अपना गांडिव उठाने और युद्ध करने के लिए तैयार हो गया होगा? यह सुनकर संजय कहता है कि अभी कहां महाराज, भगवान के दुर्लभ दर्शन के आनंद से अर्जुन का रोम-रोम कांप रहा है। उसकी आंखों में अपार आनंद से आंसू झलक आएं हैं। 
विराट स्वरूप के दर्शन करने के बाद अर्जुन जय श्रीकृष्ण, जय श्रीकृष्‍ण का जाप करने के बाद कहता है- हे परमेश्वर, हे योगेश्वर, हे त्रिलोकीनाथ आपने ठीक ही कहा है कि आपके विराटरूप के तेज को मेरी आंखें सह नहीं पाएंगी। आपका ये विशाल और विकरालरूप देखकर मेरा मन घबराहट के मारे व्याकुल हो रहा है। आपने विराटरूप के दर्शन के लिए मुझे दिव्य दृष्टि तो प्रदान कर दी मगर इन आंखों में इतनी क्षमता नहीं है कि आपके इस परम तेजस्वी रूप को और अधिक ग्रहण कर सकें। इसलिए हे विश्वनाथ! मेरी घबराहट और व्याकुलता को दूर करने के लिए अपना शीतल रूप दिखाइये। मैं आपके दिव्य चतुर्भुज रूप के दर्शन से अपन मन शांत करना चाहता हूं। 
 
जब श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि हे भक्त! मैंने पहले ही जता दिया था कि तुम मेरा यह विराट रूप सहन नहीं कर सकोगे। फिर भी तुम्हारा मान रखने के लिए मैंने विराटरूप धारण किया और अब तुम्हारी दूसरी प्रार्थना को भी स्वीकार करता हूं। फिर श्रीकृष्ण चतुर्भुज रूप धारण करते हैं। इसके बाद श्रीकृष्ण पुन: अपने मानव स्वरूप में आ जाते हैं। 
 
मानव स्वरूप में आकर श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन तू परम भाग्यवान है कि जो तुने मेरे विराट स्वरूप और चतुर्भुज दोनों के ही दर्शन कर लिए। तब अर्जुन कहता है कि हे दयासागर! आपकी इस दया के लिए मैं आभारी हूं। आपके विराट और चतुर्भुज के दर्शन के बाद मेरा मन सारे विकारों से मुक्त हो गया है। मेरे सारे भ्रम टूट गए हैं अब मैं तन-मन से अपने आपको आपके श्रीचरणों में समर्पित करता हूं। हे स्वामी अपने इस भक्त के तुच्छ समर्पण को स्वीकार कीजिये और आज्ञा दीजिये। मैं आपकी हर आज्ञा का पालन करूंगा। 
 
यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि हे भक्त मैं तुम्हारे इस समर्पण को स्वीकार करता हूं। तुम हमेशा ही मेरी दया दृष्टि में रहे हो इसलिए मैंने तुम्हें गोपनीय से भी गोपनीय ज्ञान प्रदान किया है। इससे पहले की मैं तुम्हें धर्मयुद्ध करने और आक्रमण करने की आज्ञा दूं। मैं चाहता हूं कि जो दिव्य ज्ञान मैंने तुम्हें प्रदान किया है उसके बारे में कोई शंका या आशंका या कोई प्रश्न यदि तुम्हारे मन में हो तो मुझसे अभी पूछ लो। क्योंकि इसके पश्चात ऐसी ज्ञान योग और भक्ति की बातें करने का फिर अवसर नहीं मिलेगा। इसलिए कुछ पूछना है तो अभी पूछ लो।
 
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि हे माधव! अब इस मन में ना किसी शंका के लिए जगह रह गई है और ना ही किसी आशंका के लिए। अब तो पूर्ण श्रद्धा और पूर्ण भक्ति से मेरा मन एक लहराते सागर की भांति आनंद से उमड़ रहा है...परंतु। यह सुनकर श्रीकृष्ण पूछते हैं परंतु क्या अर्जुन? 
 
इस पर अर्जुन कहता है कि प्रभु केवल कुछ प्रश्न मेरे मन में उठ रहे हैं। भगवन आपने जब अपना विराटरूप बताया था तो ये भी तो बताया था कि ये विराट रूप संपूर्ण नहीं है। केवल मेरे समझने के लिए संपूर्ण है। इसका अर्थ है कि वास्तव में आप इतने विशाल और इतने विकराल हैं कि आपका कोई आकार ही नहीं बन सकता।
यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि हां यही सत्य है। मैं अनादि हूं, अनंत हूं, सदा से हूं और सदा रहूंगा। संपूर्ण सृष्टियों में ऐसी कोई जगह कोई स्थान नहीं है जहां मैं नहीं हूं। जल, थल और गगन में भी मैं ही हूं। इसलिए मेरा कोई आकार नहीं मैं निराकार हूं। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि फिर आपने ये भी तो कहा था कि हाथी में भी आप हैं, गाय में भी आप हैं, चींटी में भी आप हैं। यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं- हां ये भी सत्य है। तब अर्जुन कहता है कि तो फिर इस तरह तो आप साकार भी हैं। यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि हां जैसे इस समय मैं तुम्हारे सामने मानव अवतार में खड़ा हूं। ये भी मेरा साकार रूप है। इसके अतिरिक्त मेरे जो अवतार हुए हैं वो भी मैंने तुम्हें दिखाएं हैं। ये सब आकार ही है। परंतु मेरा सबसे सच्चा और विशाल रूप निराकार है।
 
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि तो यह सिद्ध हो गया कि आप निराकार भी हैं और साकार भी। आपके भक्त जो आपको साकार समझते हैं वह आपके अवतारों की प्रतिमा बनाकर आपकी पूजा करते हैं। और जो भक्त आपको निराकार मानते हैं वो आपको निराकार रूप में पूजते हैं। इनमें से कौन सही है वो जो आपकी प्रतिमाओं और मूर्तियों की पूजा करते हैं या वो भक्त जो आपके निराकार रूप को पूजते हैं?
 
यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि हे अर्जुन! गलत कोई भी नहीं है। मेरे भक्त को मेरा रूप चराचर किसी भी वस्तु में भी दिखाई देता है तो वह मन में मेरा ही ध्यान करके उसे पूजता है। मेरे रूप या अवतारों की मूर्तियां बनाकर भी पूजा की जाती है। जिन्हें इन मूर्तियों में मेरा विशाल रूप दिखाई नहीं देता वो मेरे अनादि और अनंत रूप की पूजा करते हैं। दोनों ही तरह के भक्त भक्ति के रास्ते पर चलते चलते मेरे परमधाम की ओर बढ़ते हैं। 
हे अर्जुन मेरे भक्त बड़े अनोखे और निराले हैं। कोई मुझे अपना पिता मानकर मुझसे बेटे का रिश्ता जोड़ लेता है (नृसिंह भगवान) तो कोई मुझे माता मानता (दुर्गा माता) है। कोई मुझे सखा मानता (सुदामा) है तो कोई मुझसे प्रेम का नाता जोड़ लेता है, जैसे गोकुल की गोपियां जो मेरे प्रेम में सांसार की सारी रीति-रिवाजों को भूल जाती हैं। उनकी आंखों में उनके मन में हर जगह हर समय मेरा ही रूप समाया होता है। जो मुझको जिस भाव से ध्याते वो मुझको उस रूप में पाते। कई सिद्ध साधु मुझसे प्रेम करने के लिए गोपियों के रूप में बार-बार जन्म लेते हैं। मैं सब भक्तों को उनकी भक्ति का बदला उनके मन चाहे रूप में देता हूं। मैं उनका पिता भी हूं, माता भी हूं, सखा भी हूं और प्रियतम भी मैं ही हूं। 
 
यह सुनकर अर्जुन पूछता है कि तो क्या कोई भक्त आपसे प्रेम भी कर सकता है? यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि प्रेम ही तो भक्ति है। जिसके मन में प्रेम ना हो वह मेरा भक्त कैसे हो सकता है। सच पूछे तो मैं प्रेम ही प्रेम हूं। प्रेम ही परमात्मा है। यह सुनकर अर्जुन कहता है कि किसी से प्रेम करने की कोई विधि नहीं होती परंतु पूजा करने की तो कई विधियां हैं। आपके भक्त इन्हीं विधियों के अनुसार आपकी पूजा और भक्ति करते हैं।
 
तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि हे अर्जुन पूजा मन की साधना होती है और मन की साधना का विधि से क्या लेना देना। जैसे प्रेम करने वाले दो प्रेम मन से मन को लगाकर प्रेम करते हैं, वैसे ही भक्ति की जाती है। ये विधियां तो बनाने वालों ने बना दी हैं। मैं उन विधियों द्वारा पूजा करने वाले की पूजा भी स्वीकार कर लेता हूं परंतु मैं ये नहीं देखता कि मेरा भक्त विधि अनुसार पूजा कर रहा है कि नहीं। केवल पूजा करने वाले की भावना देखता हूं। उसके मन में मेरे प्रति प्रेम और भक्ति भाव हे या नहीं, ये देखता हूं। जिस पूजा में विधि ही विधि हो और प्रेम तथा भक्ति ना हो, उस पूजा द्वारा कोई भी मुझे प्राप्त नहीं कर सकता। मुझे संपूर्ण साधने की एक ही विधि है मुझमें मन लगाएं, मुझमें ध्यान लगाएं। 
 
 
यह सुनकर अर्जुन कहता हैं कि इस संबंध में एक विचार और है। आपका ध्यान लगाते समय, मन में केवल आप रहें और संसार का कोई विचार बाधा ना डालें इसका कोई तरीका तो होगा? यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि हां एक आसान तरीका तो है परंतु वह कोई विधि नहीं है बल्कि एक गुर है, एक यौगिक कला है। जिससे ध्यान लगाने में बड़ी सहायता होती है। 
यह सुनकर अर्जुन कहता है कि वह आसान तरीका और वह यौगिक कला क्या है मधुसूदन? तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि सुनो अर्जुन! संसार के झमेलों से बचने के लिए मनुष्य एकांत में बैठकर मन को प्रभु के ध्यान में लगाएं। क्योंकि एकांत में मनुष्य अपने भीतर झांक सकता है। इस पर अर्जुन पूछता है कि परंतु ध्यान लगाने के लिए अपने अंतर में झांकने की क्या आवश्यकता है? यह सुनकर श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि हे अर्जुन! तुम भूल गए हो कि परमात्मा का अंश अर्थात मनुष्य की आत्मा मनुष्य के भीतर ही वास करती है। इसी आत्मा से संपर्क ही प्रभु से मिलन का पहला चरण है। इसलिए हे अर्जुन! मैं चाहता हूं कि मुझसे मिलन के लिए उसे सबसे पहले अपने अंतर में ही झांकना चाहिए और यह तभी संभव हो सकता है कि मनुष्य का अपना शरीर उसके नियंत्रण में हो। ध्यान योग का उद्देश्य परमात्मा से संपर्क करना होता है।
 
फिर श्रीकृष्ण ध्यान योग के बारे में विस्तार से बताते हैं। ध्यान योग में सफलता हेतु फिर वे संयमित आहार, संयमित नींद और संयमित विहार और सुख एवं दुख में समभाव रहने के बारे में बताते हैं और आवागमन के चक्र से छूटकर मोक्ष प्राप्त करने के महत्व को बताते हैं। 
 
अर्जुन पूछता है- हे त्रिलोकीनाथ आप आवागमन अर्थात पुनर्जन्म के चक्र के बारे में बातें कर रहे हैं। इस संबंध में मेरा ज्ञान पूर्ण नहीं है। यदि आप पुनर्जन्म की व्याख्या करें तो कृपा होगी। फिर श्रीकृष्‍ण कर्मों के अनुसार प्राणी के पुनर्जन्म की व्याख्‍या करते हैं। मरने के बाद क्या होता है और वे जीवात्मा की यात्रा को बताते हैं। मनुष्‍य के सूक्ष्म और स्थूल शरीर की बात भी करते हैं।
 
यह सुनकर माता पार्वती शिवजी से पूछती हैं- यह सूक्ष्म शरीर का आकार क्या होता है भगवन? इसका उत्तर शिवजी देते हैं और बताते हैं कि सूक्ष्म शरीर पंच तत्वों से बना नहीं होता है और उस सूक्ष्म शरीर के भी भिन्न-भिन्न स्तर पर होते हैं। फिर शिवजी अन्नमय कोश (शरीर), प्राणमय कोश, मनोमन कोश, विज्ञानमय कोश और आनंदमय कोश के रहस्य को बताते हैं। मृत्यु के पश्चात जीवात्मा मनोमय कोश धारण करके आगे जाता है। जय श्रीकृष्‍णा।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 

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