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Shri Krishna 2 July Episode 61 : उद्धव कहते हैं कि तुमने जानबूझकर गोपियों को अपनी माया से प्रेमजाल में फांसा है

हमें फॉलो करें Shri Krishna 2 July Episode 61 : उद्धव कहते हैं कि तुमने जानबूझकर गोपियों को   अपनी माया से प्रेमजाल में फांसा है

अनिरुद्ध जोशी

, गुरुवार, 2 जुलाई 2020 (22:11 IST)
निर्माता और निर्देशक रामानंद सागर के श्रीकृष्णा धारावाहिक के 2 जुलाई के 61वें एपिसोड ( Shree Krishna Episode 61 ) में रामानंद सागरजी श्रीमद्भागवत में उद्धव के ब्रजगमन की कथा के बारे में बात करते हैं। उद्धव को श्रीकृष्ण गोकुल और वृंदावन भेजते हैं और किस तरह वे राधा और अन्य गोपियों को ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करके उन्हें मुक्ति का मार्ग बताते हैं।
 
रामानंद सागर के श्री कृष्णा में जो कहानी नहीं मिलेगी वह स्पेशल पेज पर जाकर पढ़ें...वेबदुनिया श्री कृष्णा
 
उद्धव श्रीकृष्ण के चाचा के लड़के थे जो आयु में श्रीकृष्ण से थोड़े बड़े। उनकी असली नाम बृहदबल था। बाल्यकाल में ही उन्हें देवताओं के गुरु बृहस्पति ने अपना शिष्य बना लिया था। देवगुरु बृहस्पति से उन्हें ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुई और वे निरंतर प्रभु के निराकार और निर्गुन रूप की उपासना करते रहते थे। इसलिए यह जानते हुए भी कि श्रीकृष्ण भगवान के पूर्णवातर है फिर भी उन्हें श्रीकृष्‍ण के शारीरिक रूप से उन्हें कोई मोह नहीं था। उनके अंतर में भी कहीं न कहीं ज्ञान का अहंकार छिपा हुआ था और भगवान तो अपने भक्त का अहंकार रहने नहीं देते हैं।
 
इधर श्रीकृष्‍ण जब से मथुरा आए हैं राजकाज के कामों ने उन्हें चारों और से घेर रखा है। फिर रामानंद सागर बताते हैं मथुरा में कंस वध से जरासंध से युद्ध तक उन्होंने अब तक क्या-क्या कार्य किए। परंतु इस राजकाज और ठाटबाट के बीच भी उनका मन वहीं गोकुल और वृंदावन में ही रमता रहता था। 
 
फिर श्रीकृष्‍ण को गोकुल और वृंदावन की स्मृतियों में ही खोया हुआ बताया जाता है। श्रीकृष्ण को यशोदा मैया, राधा और अन्य बाल सखा-गोपियों की याद सताती है। उन्हें ऐसा लगता है कि सभी मुझे निर्मोही समझ रहे होंगे। उन्हें गोपियों को दिया वह वचन भी याद आता है कि मैं लौटकर आऊंगा। इस तरह श्रीकृष्ण के स्मृतिपटल पर वे सारे दृश्य दिखने लगते हैं जो उन्हें गोकुल और वृंदावन में बिताये थे। उन्हें अपनी गोपिकाओं और राधा की याद आती है। सभी कहती है कब आओगे कान्हा। उनके कक्ष में यमुना का जल नजर आता है और उन्हें रुठी हुई राधा नजर आती है जो उनसे कुछ नहीं बोलती है तो श्रीकृष्ण कहते हैं कुछ तो बोलो राधा, ताने दो या क्रोध करो...कुछ तो बोलो राधा। श्रीकृष्ण राधा की चुप्पी को देखकर रोने लगते हैं और उनकी आंखों से आंसू गिरने लगते हैं।
 
उद्धव उन आंसुओं को अपने हाथ में लेकर कहते हैं- परब्रह्म की आंख में आंसू? भगवन ये क्या करने जा रहे थे। उद्धव उन आंसुओं को अपने सिर पर लगाकर कहते हैं, परब्ररह्म की आंख के ये आंसू इस धरती पर गिर जाता तो इस सारी प्रकृति का क्या होता? सारा ब्रह्मांड इसमें डूब जाता और प्रलय से पहले ही प्रलय हो जाती प्रभु। गंगा का वेग तो भगवान शिव ने रोक लिया था परंतु आपके आंसू का वेग तो भगवान शिव भी नहीं रोक पाते। भगवन आप ये अनर्थ क्यों करने जा रहे थे?
 
तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं उद्धव भैया राधा हमसे रूठ गई है। बोलती नहीं है हमसे। यह सुनकर उद्धव हंसते हैं और कहते हैं कौन राधा? क्या राधा आपसे अलग है प्रभु? प्रभु आपका अवतार तो संसार के प्रणियों के उद्धार करने के लिए हुआ है। परंतु आप तो उद्धार की जगह उनका बेड़ा डूबोने जा रहे थे। इसका कारण प्रभु?
 
श्रीकृष्‍ण कहते हैं भैया मैं क्या करूं। मन बहुत व्याकुल है। उद्धव कहते हैं क्यों? तब श्रीकृष्ण कहते हैं मोहि ब्रज बिसरथ नाहीं। मोहि ब्रज बिसरथ नाहीं उद्धव भैया। ब्रज की वो कुंज गलियां, गोपियों का स्नेह, यशोदा मैया की लाठी, नंदबाबा का दुलार, राधा का नि:श्चल प्रेम। वो सारी यादें मिलकर जैसे एक साथ मुझपर आक्रमण करने लगी हैं। मैं लेटता हूं तो चारों ओर से जैसे मुझे घेर लेती हैं और आज तो राधा ने ऐसा मौन धारण किया कि मुझे भी रुलाई आ गई उद्धव भैया। उद्धव भैया आप तो इतने बड़े ज्ञानी हो। अब आप ही मुझे कोई शिक्षा दो ना? जिससे चित्त की चंचलता को शांति मिले और मैं इस मोह के बंधन से छुटू भैया।
 
यह सुनकर उद्धव मुस्कुराते हुए कहते हैं, मैं आपको शिक्षा दूं? कृष्ण कहते हैं हां भैया। उद्धव कहते हैं कि क्या शिक्षा दूं? क्या स्वयं परब्रह्म को ये याद दिलाऊं कि भैया आप स्वयं परब्रह्म हो। आप ही के अंदर ये सारा संसार समाया हुआ है। क्या मैं आपको ये बताऊं कि भैया ये आपकी ही अपनी कल्पना है जिसे आप स्वयं ही अपने इर्द-गिर्द लपेटने का नाटक कर रहे हो। क्यूं?
 
तब कृष्ण कहते हैं ये सब आपको नाटक दिखता है उद्धव भैया? उद्धव कहते हैं हां। तब कृष्ण कहते हैं ये नाटक नहीं है भैया। सचमुच मेरी जान पर बनी हुई है। अंदर से फूट-फूट कर रोने को जी चाहता है। बस इसीलिए आपसे सहायता मांग रहा हूं। इस समय मैं भावना की नदी में डूबता जा रहा हूं भैया। अब आप ही अपनी नौका में बिठाकर मुझे इस मोह के सागर से बाहर निकालो।
 
यह सुनकर उद्धव कहते हैं, बस बस बस, ये भावना का नाटक बंद करो। ये उन्हीं भोलीभाली ग्वालनों को सुनाकर उन्हें ही छलते रहो। मुझ पर ये हथियार नहीं चलेंगे।
 
यह सुनकर कृष्ण कहते हैं आप पर तो इन सारी बातों का कोई असर नहीं होता ना? उद्धव कहते हैं बिल्कुल नहीं। ये सब मोह की माया है। अज्ञानियों के भटका सकती है। परंतु जो ज्ञानी होता है वह इन भावनाओं की नदी में नहीं बहता है। यह सुनकर कृष्‍ण मुस्कुराते हैं। फिर उद्धव आगे कहते हैं ज्ञान पत्थर की वो चट्टान है जो नदी के तूफान में भी अपने स्थान पर जमी रहती हैं।
 
श्रीकृष्ण लंबी सांस छोड़ते हुए कहते हैं सच है जो पत्‍थर होगा वो तो जमा ही रहेगा परंतु जो आंद्र चित्त होगा जिसका हृदय जल्दी पिघल जाता होगा। वो बिचारा तो इन भावनाओं की लहरों में डूब ही जाएगा। आप तो परम ज्ञानी लोग हैं, स्थिर हैं परंतु हम तो अनजान, अनपढ़ और अज्ञानी मानव हैं। भावनाओं की लहरों में डूबकर या तो मर जाते हैं या तर जाते हैं।
 
यह सुनकर उद्धव हंसते हुए कहते हैं, आप अज्ञानी मानव हो? कृष्ण कहते हैं, हां भैया। ऐसे गांव में रहा जहां पाठशाला भी नहीं थी। ग्वालों के साथ गाय चराते-चराते जीवन बित गया। ऐसे अनपढ़ ही तो अज्ञानी होते हैं। तब उद्धव कहते हैं देखो कन्हैया आप मुझसे अपना असली रूप छिपाने की कोशिश मत करो। मैं देवताओं के गुरु स्वयं भगवान बृहस्पति का शिष्य हूं। मेरे परम गुरु ने मुझे आपके अवतार का रहस्य समझाते हुए मुझे ये कहा था कि स्वयं परब्रह्म ने तुम्हारे छोटे भाई कृष्‍ण के रूप में धरती पर अवतार लिया है। तभी से मैं अपने हृदय के आसन पर बिठाकर आपकी पूजा करता रहा हूं।
 
यह सुनकर कृष्ण कहते हैं पूजा करते हो तो क्या दिखाई देता है? उद्धव कहते हैं एक निराकार तेज। अनंत तेज। इस पर श्रीकृष्ण पूछते हैं। उसमें मैं दिखाई नहीं देता? मेरा मुंह, मेरे हाथ पैर, मेरी आंखें। यह सुनकर उद्धव कहते हैं आपके हाथ, पैर आपकी आंखें...और फिर वे जोर से हंसने लगते हैं और कहते हैं किसने हाथ, किसके पैर, किसकी आंखें? भगवान रूप में तो आप सबमें विराजमान हैं तो फिर हम किस-किस के हाथ, किस-किस के पैर और किस-किस की आंखें देखते रहें? प्रभु यदि आपका कोई स्वरूप है तो वो है आपका विराट स्वरूप। जिसके करोड़ों हाथ है और करोड़ों मुख है तो फिर आपके किन हाथों और किन मुखों को देखा जाए। इसीलिए ज्ञानी केवल एक निराकार की कल्पना में ही मस्त रहता है।
 
यह सुनकर कृष्ण कहते हैं, इसलिए आपको इस समय बिचारे कृष्ण का ये वास्तविक रूप दिखाई नहीं देता जो मोह और भावना की लहरों में डूबता जा रहा है। देखो ना उनकी भावनाओं की लहरें मेरे कक्ष में किस प्रकार छल-छल रही हैं। आपके तो दिव्य चक्षु हैं आप तो स्वयं देख सकते हैं।
 
यह सुनकर उद्धव कक्ष के चारों और देखते हैं तो उन्हें जल ही जल नजर आता है। यह देखकर उद्धव कहते हैं देखो आप ये सारे अप्राकृतिक चमत्कार मुझे ना दिखाओ। इनसे आप संसारियों को भरमा सकते हो परंतु ज्ञानी पुरुष इस भ्रम में नहीं पड़ते। यह सुनककर कृष्‍ण मुस्कुराते हुए कहते हैं, हूं। तब उद्धव कहते हैं, वैसे मुझे तो ये उल्टा चक्र दिखाई दे रहा है। तब कृष्ण पूछते हैं कैसा उल्टा चक्र? इस पर उद्धव कहते हैं, उल्टा चक्र ये है कि भावुकता की ये लहरें आपकी ओर नहीं आ रही हैं बल्कि ये लहरें आप उनकी ओर भेज रहे हैं। देखो देखो ये लहरें उल्टी चल रही हैं।
 
तब श्रीकृष्‍ण कहते हैं कि प्रेमी और ज्ञानी में यही तो अंतर है कि प्रेमी को जो लहरें अपनी ओर आते दिखाई देती हैं ज्ञानी को वही लहरें अपने से दूर जाते हुए दिखाई देती हैं। यह सुनकर उद्धव कहते है क्योंकि ज्ञानी सत्य देखता है। इसलिए मुझे तो ये दिख रहा है कि आप ये लहरें उनकी ओर भेजकर उन्हें भावना के गोते खिला रहे हो। आपके प्रेम में उन्हें डूबने, गोते खाने और तड़पने का दृश्य देखकर जो आनंद प्राप्त होता है इसलिए कौतुक कर रहे हो? और मुझे आप पर तरस नहीं आता। क्योंकि इससे आपको ना कुछ होता है और ना होगा। परंतु बिचारी उन आत्माओं को अपने प्रेम जाल में जानबूझकर फंसाकर आप उन्हें तड़पा रहे हो तो उन पर तरस आता है। और मुझे आपका ये कौतुक अच्छा नहीं लगता प्रभु। क्योंकि गुरुदेव ने कहा था कि सब गोपियां महान ऋषि मुनि है। जिन्होंने कई जन्मों की तपस्या और साधना के बाद आपको गोपी रूप में पाया था। उनकी तपस्या को देखते हुए आपको यह करना चाहिए था कि आप उन्हें वास्तविक ज्ञान देते। सांसारिक दुखों के बंधनों से छुड़ाते। आपको ये चाहिए था गोकुल छोड़ने से पहले कि आप उन्हें ब्रह्मज्ञान प्रदान कराते। वास्तविक निराकार स्वरूप का ज्ञान देते। जिससे वे आत्माएं परम शांति को प्राप्त होती। परंतु आप तो उन्हें सांसारिक दुखों के बंधन में जकड़कर चले आए। वास्तव में मोह का ही दूसरा रूप प्रेम है और मोह ही सब दुखों का कारण है। और आप उन्हें इसी मोहजाल में छोड़ आए ये न्याय नहीं किया प्रभु आपने।
 
कृष्ण यह सुनकर मुस्कुराते हैं और फिर गंभीर होकर कहते हैं, चलो मान लिया कि मैंने घोर अन्याय किया है परंतु अब तो परिस्थिति इतनी बिगड़ गई है तो उसके लिए मैं क्या कर सकता हूं? तब उद्धव कहते हैं क्या कर सकते हैं ये भी मैं बताऊं प्रभु। कृष्ण कहते हैं हां बताओ ना।
 
तब उद्धव गर्वित होकर कहते हैं, आप ये माया मोह की लहरें उनकी ओर न भेजकर उनकी ओर ज्ञान की किरणें भेजो। मोह के अंधकार में फंसे उनके जीवन में ज्ञान का प्रकाश फैलाओ। जिससे वो आपके इस संदुर नर शरीर के मोह में फंसने की जगह आपके वास्तविक सच्चिदानंद निर्गुण स्वरूप को देखे जिससे उन्हें शाश्वत शांति की प्राप्ति हो। बोलो मैं सच कह रहा हूं कि नहीं?
 
यह सुनकर कृष्ण मुस्कुरा देते हैं और वे समझ जाते हैं कि उद्धव में ज्ञान का अहंकार है। तब वे सोचते हैं कि अब इस भक्त का कल्याण करके सच्चा ज्ञान देना ही होगा। जय श्रीकृष्‍णा ।
 
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