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तृतीयोऽध्यायः (संस्कृत में)

सत्य नारायण व्रत कथा

हमें फॉलो करें तृतीयोऽध्यायः (संस्कृत में)
(कथा मूल संस्कृत में हिन्दी अनुवाद सहित)

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सूत उवा
पुनरग्रे प्रवक्ष्यामि श्रृणुध्वं मुनिसत्तमाः ।
पुरा उल्कामुखो नाम नृपश्चासीन्महामतिः ॥1

जितेन्द्रियःसत्यवादी ययौ देवालयंप्रति ।
दिनेदिने धनं दत्त्वा द्विजान्‌संतोषयन्मुधीः ॥2॥

भार्यातस्य प्रमुग्धा च सरोजवदना सती ।
भद्रशीला नदी तीरे सत्यस्य व्रतमाचरत्‌ ॥3॥

एतस्मिन्नन्तरे तत्र साधुरेकः समागतः ।
वाणिज्यार्थं बहुधनैरनेकैः परिपूरितः ॥4॥

सूतजी बोले- मुनियों! अब हम आगे की कथा सुनाते हैं। सभी उत्तम मुनि श्रवण करें। पूर्व समय में उल्कामुख नाम का बुद्धिमान राजा था। वह जितेन्द्रिय एवं सत्यवादी था। वह नित्य देवालयों में जाता और दान-दक्षिणा द्वारा ब्राह्मणों को संतुष्ट रखता था। उसकी कमल जैसे मुखवाली सती रानी थी। यह राजा-रानी भद्रशीला नदी के तट पर सत्य नारायण का व्रत कर रहे थे। ऐसे समय में साधु नाम का एक वैश्य धन-धान्य से भरी नाव ले वहां पहुंचा।

नावं संस्थाप्य तत्तीरे जगाम नृपतिं प्रति ।
दृष्ट्वा स व्रतिनं भूपं प्रपच्छ विनयान्वितः ॥5॥

साधुरुवाच
किमिदं कुरुषे राजन्भक्तियुक्तेन चेतसा ।
प्रकाशं कुरु तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि सांप्रतम्‌ ॥6॥

राजोवाच
पूजनं क्रियते साधो विष्णोरतुलतेजसः ।
व्रतं च स्वजनैः सार्धं पुत्राद्या वाप्तिकाम्यया ॥7॥

भूपस्य वचनं श्रुत्वा साधुः प्रोवाच सादरम्‌ ।
सर्वं कथय मे राजन्करिष्येऽहं तवोदितम्‌ ॥8॥

वैश्य नाव को किनारे पर लगा, सत्यव्रत कर रहे राजा को देखा। उस वैश्य ने विनयपूर्वक राजा से प्रश्न किया। साधु नामक वैश्य बोला- 'हे राजन आप भक्ति के साथ क्या कर रहे हैं। मैं यह सुनना चाहता हूं।' राजा बोला- 'हे साधु नामक वैश्य! हम बंधु-बांधवों के साथ विष्णु भगवान सम तेजस्वी श्री सत्यनारायण का व्रत और पूजन पुत्रादि की प्राप्ति के लिए कर रहे हैं।' राजा के वचन सुनकर साधु ने विनयपूर्वक कहा- 'आप इस व्रत के संबंध में सारा विधान मुझे भी कहिए। मैं भी यह व्रत करूंगा।'

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ममापि सन्ततिर्नास्ति ह्येतस्माज्जायते ध्रुवम्‌ ।
ततो निवृत्य वाणिज्यात्सानंदो गृहमागतः ॥9॥

भार्यायै कथितं सर्वं व्रतं संततिदायकम्‌ ।
तदा व्रतं करिष्यामि यदा मे संततिर्भवेत्‌ ॥10॥

इति लीलावतीं प्राह पत्नीं साधुः स सत्तमः ।
एकस्मिन्दिवसे तस्यभार्या लीलावती सती ॥11॥

भर्तृयुक्तानंदचित्ताऽभवद्धर्म-परायणा ।
गर्भिणी साभवत्तस्य भार्या सत्यप्रसादतः ॥12॥

दशमे मासि वै तस्याः कन्या रत्नमजायत ।
दिने दिने सा ववृधे शुक्लपक्षे यथा शशी ॥13॥

मेरे भी कोई संतान नहीं है। क्या इस व्रत के प्रभाव से मेरे घर भी संतान होगी? इसके बाद वह खुशी-खुशी अपने घर आया। घर आकर उसने अपनी पत्नी से सबकुछ कहा। साधु बोला यदि हमारे घर संतान होगी तो हम भी सत्यनारायण का व्रत करेंगे। पतिव्रता स्त्री लीलावती ऐसा सुनकर बहुत आनंदित हुई। सत्यनारायण के प्रसाद से संसारवासियों की तरह वह भी गर्भवती हुई। दसवें महीने में लीलावती ने एक कन्या को जन्म दिया। यह कन्या चंद्रमा की कला की तरह दिन-दिन बढ़ने लगी।

नाम्नाकलावती चेति तन्नामकरणं कृतम्‌ ।
ततो लीलावती प्राह स्वामिनं मधुरं वचः ॥14॥
न करोषि किमर्थं वै पुरा संकल्पितव्रतम्‌ ।

साधुरुवाच
विवाह समये त्वस्या करिष्यामि व्रतं प्रिये ॥15॥

इति भार्यां समाश्वास्य जगाम नगरं प्रति ।
ततः कलावती कन्या ववृधे पितृवेश्मनि ॥16॥

दृष्ट्वा कन्यांततः साधुर्नगरे सखिभिः सह ।
मंत्रयित्वा द्रुतं दूतं प्रेषयामास धर्मवित्‌ ॥17॥

विवाहार्थं च कन्यायाः वरं श्रेष्ठंविचारय ।
तेनाज्ञप्तश्च दूतोऽसौ कांचनं नगरं ययौ ॥18॥

इस कन्या का नाम कलावती रखा गया। अब लीलावती ने अपने पति से मधुर वचन कहे। हे स्वामी! आप पहले किए संकल्प के अनुसार सत्यनारायण भगवान का व्रत क्यों नहीं करते। साधु नामक वैश्य बोला- प्रिये! कन्या के विवाह के समय यह व्रत कर लेंगे। इतना कहकर वह वैश्यनगर को चला। इधर कलावती कन्या पिता के घर रहकर बड़ी होने लगी। एक दिन साधु नामक वैश्य ने अपनी कन्या को सहेलियों के साथ नगर में देखा। धर्म-मर्यादा को जानने वाले साधु वैश्य ने तत्काल विचार कर कन्या के योग्य श्रेष्ठ वर खोजने हेतु दूत भेजे। वैश्य की आज्ञा पाकर दूत सुसम्पन्न कांचन नगर गए।


तस्मादेकं वणिक्पुत्रं समादायागतो हि सः ।
दृष्ट्वा तु सुंदरं बालं वणिक्पुत्रं गुणान्वितम्‌ ॥19॥

ज्ञातिभिर्बन्धुभिः सार्धं परितुष्टेन चेतसा ।
दत्तावान्साधु पुत्राय कन्यां विधिविधानतः ॥20॥

ततोऽभाग्यवशात्तेन विस्मृतं व्रतमुत्तमम्‌ ।
विवाहसमये तस्यास्तेनरुष्टोऽभवत्प्रभुः ॥21॥

ततः कालेनकियता निज कर्मविशारदः ।
वाणिज्यायगतः शीघ्रं जामातृसहितो वणिक्‌ ॥22॥

रत्नसारपुरे रम्ये गत्वा सिंधुसमीपतः ।
वाणिज्यमकरोत्साधुर्जामात्रा श्रीमता सह ॥23॥

वहां से बड़ा गुणवान, सुंदर वैश्य पुत्र, कन्या के योग्य वर देखा और उसे ले आए। वैश्य पुत्र को देख साधु वैश्य अपने परिचित, बंधु-बांधवों सहित संतुष्ट हुआ। अपनी कन्या का विधिपूर्वक विवाह उसी के साथ कर दिया। लेकिन दुर्भाग्यवश उस समय वह साधु नामक वैश्य सत्यनारायण व्रत को भूल गया। परिणामस्वरूप श्री सत्यनारायण भगवान रुष्ट हो गए। कुछ समय बीता। अपने काम में होशियार धनिक वैश्य अपने जामाता को साथ ले शीघ्र व्यापार के लिए चल पड़ा। वह समुद्र के पास सुंदर रत्नसार नगर में गया। वहाँ जाकर वह धनवान वैश्य अपने जामाता के साथ व्यापार करने लगा।

तौ गतौ नगरे रम्ये चंद्रकेतोर्नृपस्य च ।
एतस्मिन्नेव काले तु सत्यनारायणः प्रभुः ॥24॥

भ्रष्टप्रतिज्ञमालोक्य शापं तस्मै प्रदत्तवान्‌ ।
दारुणं कठिनं चास्य महद्दुःखं भविष्यति ॥25॥

एकस्मिन्दिवसे राज्ञो धनमादाय तस्करः ।
तत्रैव चागतश्चौरो वणिजौ यत्र संस्थितौ ॥26॥

तत्पश्चाद्धावकान्दूतान्दृष्टवा भीतेन चेतसा ।
धनंसंस्थाप्य तत्रैव सतुशीघ्रमलक्षितः ॥27॥

ततोदूतः समायाता यत्रास्ते सज्जनो वणिक्‌ ।
दृष्ट्वा नृपधनं तत्र बद्ध्बाऽऽनतौ वणिक्सुतौ ॥28॥

इस सुंदर नगर का राजा चंद्रकेतु था। उस समय सत्यनारायण प्रभु ने प्रतिज्ञा से भ्रष्ट होने वाले वैश्य को कठिन शाप दिया। कि वैश्य बहुत कष्ट को प्राप्त करें। एक दिन राजा की संपत्ति चुराकर चोर उस स्थान पर आया जहां वैश्य और उसका दामाद ठहरे थे। राजा के दूतों को अपना पीछा करते देख चोर डरकर, धन वहीं छोड़ भाग गया। पीछे दौड़ते राजा के दूतों ने राजा की संपत्ति को वहां देखा और दोनों वैश्यों को बंदी बनाकर राजा के पास ले गए।


हर्षेण धावमानाश्च प्रोचुर्नृपसमीपतः ।
तस्करौ द्वौ समानीतौ विलोक्याज्ञापय प्रभो ॥29॥

राज्ञाऽऽज्ञप्तास्ततः शीघ्रं दृढं बद्ध्वा तु तावुभौ ।
स्थापितौ द्वौ महादुर्गे कारारेऽविचारतः ॥30॥

मायया सत्यदेवस्य न श्रुतं कैस्तयोर्वचः ।
अतस्तयोर्धनं राज्ञा गृहीतं चंद्रकेतुना ॥31॥

तच्छापाच्च तयोर्गेहे भार्या चैवातिदुःखिता ।
चौरेणापहृतं सर्वं गृहे यच्च स्थितं धनम्‌ ॥32॥

आधिव्याधिसमायक्ता क्षुत्पिपासातिदुःखिता ।
अन्नचिंतापरा भूत्वा बभ्राम च गृहे गृहे ।
कलावती तु कन्याऽपि बभ्राम प्रतिवासरम्‌ ॥33॥

हर्षित होकर दूत राजा से बोले कि वे दो चोर लाए हैं। आप उनके लिए आज्ञा दें। राजा की आज्ञा से शीघ्र ही उन्हें बंदी बनाकर, बिना विचार किए जेल में डाल दिया। श्री सत्यनारायण की माया से वैश्यों की बात किसी ने नहीं सुनी। राजा चंद्रकेतु ने वैश्यों का सारा धन छीन लिया। शापवश वैश्य की पत्नी भी बहुत दुखी हो गई। घर की संपत्ति चोर ले गए। वैश्य की स्त्री शरीर से रुग्ण, मन में चिंता लिए, भूख से दुखी, अन्न पाने के लिए घर-घर भटकने लगी। इसी प्रकार कलावती कन्या भी।

एकस्मिन्दिवसे याता क्षुधार्ता द्विजमन्दिरम्‌ ।
गत्वाऽपश्यद् व्रतं तत्र सत्यनारायणस्य च ॥34॥

उपविश्य कथां श्रुत्वा वरं प्रार्थितवत्यपि ।
प्रसादभक्षणं कृत्वा ययौ रात्रौ गृहं प्रति ॥35॥

माता कलावतीं कन्यां कथयामास प्रेमतः ।
पुत्रि रात्रौ स्थिता कुत्र किं ते मनसि वर्तते ॥36॥

कन्या कलावती प्राह मातरं प्रति सत्वरम्‌ ।
द्विजालयं व्रतं मातर्दृष्टं वांछित सिद्धिदम्‌ ॥37॥

एक दिन भूखी-प्यासी बेटी कलावती एक ब्राह्मण के घर गई, जहां उसने सत्य नारायण का व्रत पूजन होते देखा। उसने वहां बैठकर कथा सुनी तथा प्रसाद लेकर रात्रि को अपने घर लौटी। घर जाने पर कलावती से उसकी माता ने प्रेमपूर्वक कहा कि बेटी रात में कहां रही। तेरे मन में है क्या? कलावती ने तत्काल मां से कहा कि माता मैंने ब्राह्मण के घर पर मनोकामना पूर्ण करने वाला व्रत होते देखा है। मैं वहीं थी।


तच्छुत्वा कन्यकावाक्यं व्रतं कर्तुं समुद्यता ।
सा मुदा तु वणिग्भार्या सत्यनारायणस्य च ॥38॥

व्रतं चक्रे सैव साध्वी बन्धुभिःस्वजनै सह ।
भर्तृजामातरौ क्षिप्रमागच्छेतां स्वमाश्रमम्‌ ॥39॥

अपराधं च मे भर्तुर्जामातुः क्षंतुमर्हसि ।
व्रतेनानेन तुष्टोऽसौ सत्यनारायणः प्रभुः ॥40॥

दर्शयामास स्वप्नं ही चंद्रकेतुं नृपोत्तमम्‌ ।
बन्दिनौ मोचय प्रातर्वणिजौ नृपसत्तम ॥41॥

देयं धनं च तत्सर्वं गृहीतं यत्त्वयाऽधुना ।
नो चेत्त्वां नाशयिष्यामि सराज्य धनपुत्रकम्‌ ॥42॥

कन्या के वचन सुनकर वैश्य की पत्नी तत्काल सत्यनारायण का व्रत करने को तैयार हो गई। साध्वी लीलावती ने अपने बंधु-बांधवों के साथ व्रत किया और मांगा कि मेरे पति और दामाद घर लौट आएं। लीलावती ने प्रार्थना की कि सत्य नारायण प्रभु उसके पति और दामाद के अपराध क्षमा करें। इस व्रत के प्रभाव स्वरूप, सत्य नारायण भगवान प्रसन्न हुए। राजा चंद्रकेतु को स्वप्न दिया कि वह सवेरे ही दो वैश्यों को मुक्त कर दें। छीना हुआ उनका धन लौटा दे। यदि ऐसा नहीं किया गया तो वे धन और पुत्रों सहित राजा के राज्य का नाश कर देंगे।

एवमाभाष्यराजानं ध्यानगम्योऽभवत्प्रभुः ।
ततः प्रभातसमये राजा च स्वजनैः सह ॥43॥

उपविश्य सभामध्ये प्राह स्वप्नं जनं प्रति ।
बद्धौ महाजनौ शीघ्रं मोचय द्वौ वणिक्सुतौ ॥44॥

इति राज्ञो वचः श्रुत्वा मोचयित्वा महाजनौ ।
समानीय नृपस्याग्रे प्राहुस्ते विनयान्विताः ॥45॥

आनीतौ द्वौ वणिक्यपुत्रौ मुक्तौ निगडबंधनात्‌ ।
ततो महाजनौ नत्वा चंद्रकेतुं नृपोत्तम्‌ ॥46॥

स्मरंतौ पूर्ववृत्तांतं नोचतुर्भयविह्वलौ ।
राजावणिक्सुतौ वीक्ष्य वचः प्रोवाच सादरम्‌ ॥47॥

इतना बताने के बाद श्री भगवान की स्वप्न वाणी मौन हो गई। प्रातःकाल राजा ने अपने स्वजनों एवं सभासदों को स्वप्न के संबंध में बताया और आदेश दिया कि बंदी वैश्यों को तत्काल छोड़ दिया जाए। राजा की आज्ञा पाकर राजा के सिपाही विनम्र भाव से दोनों वैश्य पुत्रों को बंधन के बिना राजा के समीप लाए। दोनों वैश्यों ने चंद्रकेतु को नमस्कार किया। पिछली दशा के डर से व्याकुल वैश्य पुत्र कुछ नहीं बोले। राजा ने दोनों वैश्यों को देख आदर से बोला।


देवात्प्राप्तं महद्दुःखमिदानीं नास्ति वै भयम्‌ ।
दता निगडसंत्यागं क्षौर कर्माद्यकारयत्‌ ॥48॥

वस्त्रालंकारकंदत्त्वा पारितोष्य नृपश्च तौ ।
पुरस्कृत्य वणिक्पुत्रौ वचमातोषयद्भृशम्‌ ॥49॥

पुरानीतं तुयद्द्रव्यं द्विगुणीकृत्य दत्तवान्‌ ।
प्रोवाज तौ ततो राजा गच्छ साधो निजाश्रमम्‌ ॥50॥

राजानं प्रणिपत्याह गंतव्यं त्वत्प्रसादतः ।
इत्युक्त्वा तौ महावैश्यौ जग्मतुः स्व गृहं प्रति ॥51॥

भाग्य ने आपको यह कष्ट दिया है। अब डरने की बात नहीं है। इसके बाद वैश्यों की बेड़ियां कटवा कर उनकी हजामत बनवाई। तब वस्त्र गहने आदि से उन्हें पुरस्कृत किया तथा प्रसन्न किया। अपने शब्दों से भी उनका संतोष किया। जो धन वैश्यों का छीना था वह दुगना कर लौटा दिया। राजा ने कहा हे साधु वैश्य तुम अब अपने घर जाओ। दोनों वैश्यों ने राजा को प्रणाम किया और कहा कि आपकी कृपा से हम अपने घर लौट जाएंगे। इस प्रकार दोनों वैश्य अपने घर के लिए चल पड़े।

॥ इति श्रीस्कन्द पुराणे रेवाखंडे ॥

॥ सत्यनारायण व्रत कथायां तृतीयोऽध्यायः समाप्तः






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