'सवा लाख से एक लड़ाऊं चिड़ियों सों मैं बाज तड़ऊं तबे गोबिंदसिंह नाम कहाऊं'
गुरु गोविंद सिंह मूलतः धर्मगुरु थे। अस्त्र-शस्त्र या युद्ध से उनका कोई वास्ता नहीं था, लेकिन औरंगजेब को लिखे गए अपने 'अजफरनामा' में उन्होंने इसे स्पष्ट किया था- 'चूंकार अज हमा हीलते दर गुजशत, हलाले अस्त बुरदन ब समशीर ऐ दस्त।'
अर्थात जब सत्य और न्याय की रक्षा के लिए अन्य सभी साधन विफल हो जाएं तो तलवार को धारण करना सर्वथा उचित है। धर्म, संस्कृति व राष्ट्र की शान के लिए गुरु गोबिंद सिंह ने अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। इस अजफरनामा (विजय की चिट्ठी) में उन्होंने औरंगजेब को चेतावनी दी कि तेरा साम्राज्य नष्ट करने के लिए खालसा पंथ तैयार हो गया है।
गुरु गोविंद सिंह जी ने कहा है कि 'जब-जब होत अरिस्ट अपारा, तब-तब देह धरत अवतारा।'
अर्थात जब-जब धर्म का ह्रास होकर अत्याचार, अन्याय, हिंसा और आतंक के कारण मानवता खतरे में होती है तब-तब भगवान दुष्टों का नाश और धर्म की रक्षा करने के लिए इस भूतल पर अवतरित होते हैं।
सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह जी स्वयं एक ऐसे ही महापुरुष थे, जो उस युग की बर्बर शक्तियों का नाश करने के लिए अवतरित हुए। वे क्रांतिकारी युगपुरुष थे। वे धर्म-प्रवर्तक और एक शूरवीर राष्ट्र नायक थे। वे सत्य, न्याय, सदाचार, निर्भीकता, दृढ़ता, त्याग एवं साहस की प्रतिमूर्ति थे।
उन्होंने भारतीय अध्यात्म परंपरा में साहस का समावेश करके अपने धर्म, अपने देश, अपनी स्वतंत्रता और अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए खालसा पंथ की स्थापना की थी। बाबा बुड्ढ़ा ने गुरु हरगोविंद को 'मीरी' और 'पीरी' दो तलवारें पहनाई थीं।
पहली आध्यात्मिकता की प्रतीक थी, तो दूसरी सांसारिकता की। परदादा गुरु अर्जुन देव की शहादत, दादागुरु हर गोविंद द्वारा किए गए युद्ध, पिता गुरु तेग बहादुर की शहीदी, दो पुत्रों का चमकौर के युद्ध में शहीद होना, दो पुत्रों को जिंदा दीवार में चुनवा दिया जाना वीरता व बलिदान की विलक्षण मिसालें हैं।
खालसा पंथ : औरंगजेब सहित अन्य राजाओं के अत्याचार से तंग आकर गुरु गोविंद सिंह जी ने सिखों को एकजुट करके एक नई धर्मशक्ति को जन्म दिया। उन्होंने सिख सैनिकों को सैनिक वेश में दीक्षित किया। 13 अप्रैल 1699 को वैशाखी वाले दिन गुरु जी ने केशगढ़ साहिब आनंदपुर में पंच पियारों द्वारा तैयार किया हुआ अमृत सबको पिलाकर खालसा को ऊर्जा दी। खालसा का मतलब है वह सिख जो गुरु से जुड़ा है। वह किसी का गुलाम नहीं है, वह पूर्ण स्वतंत्र है।
पांच ककार :
युद्ध की प्रत्येक स्थिति में सदा तैयार रहने के लिए उन्होंने सिखों के लिए पांच ककार अनिवार्य घोषित किए, जिन्हें आज भी प्रत्येक सिख धारण करना अपना गौरव समझता है :-
(1) केश : जिसे सभी गुरु और ऋषि-मुनि धारण करते आए थे।
(2) कंघा : केशों को साफ करने के लिए।
(3) कच्छा : स्फूर्ति के लिए।
(4) कड़ा : नियम और संयम में रहने की चेतावनी देने के लिए।
(5) कृपाण : आत्मरक्षा के लिए।
- अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'