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कलकल-छलछल करती पुण्य-सलिला मोक्षदायिनी शिप्रा

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डॉ. राजशेखर व्यास 

प्रसिद्ध तीर्थ उज्जैन का अधिकांश मध्य भाग शिप्रा(क्षिप्रा) के पूर्व तट से लगा हुआ है। आज का शिप्रोउद्गम-स्थान महु छावनी (इंदौर के पास) से 11 मील दूरी पर है और महत्पुर से आगे चलकर चर्मवती में जाकर समागम होता है।




 
अवन्ति महात्म्य में पुण्य-सलिला-भगवती शिप्रा का वर्णन इस प्रकार है-
 
ना‍स्ति वत्स महीपृष्टे शिप्राया: सदृशीनदी,
यस्यास्तीरे क्षणान्मुक्ति: किंचिरात्सेवनतेन वै।
 
तथा
 
शिप्राशिप्रेतियोब्रयाद्योजनाना शतैरपि।
मुच्यते सर्व पापेभ्यों...।।
 
अर्थात समस्त भू-मंडल पर शिप्रा के समान अन्य नदी नहीं है जिसके तीर पर क्षणभर खड़े रहने मात्र से मु‍क्ति मिल जाती है। फिर चिरकाल सेवन करने वालों के लिए तो क्या शंका है? इस प्रकार सौ योजन दूर से भी शिप्रा का स्मरण करने से सर्व पाप से मुक्ति मिल जाती है।


इस प्रकार शिप्रा महात्म्य को बतलाने वाली अनेक कथाएं हैं। एक भीषण पापी राजा की कथा में उल्लेख है कि उसने याज्जीवन सत्कर्म नहीं किया था। उसकी मृत्यु हो गई। तक काक-गिद्धों ने उसका मांस-पिंड नोच डाला। उस मांस-पिंड का कुछ अंश लेकर एक पक्षी उड़ता हुआ शिप्रा पर से जा रहा था। वहां अन्य पक्षी ने उस मांस-पिंड को छुड़ाने का प्रयत्न किया। इस छीना-झपटी में वह पिंड शिप्रा में गिर गया। बस, इसी से उसको मोक्ष मिल गया। शिप्रा के भी अनेक नाम हैं, अवन्ति में- 
 
'शिप्रा वनत्यां समाख्याता' शिप्रा नाम से विख्यात हुई हैं।

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एक बार भगवान महाकालेश्वर ने क्षुधातुर होकर भिक्षार्थ भ्रमण किया, किंतु भिक्षा न मिली। विष्णु से क्षमा-याचना की। उन्होंने तर्जनी अंगुली दिखला दी। शिव ने क्रुद्ध होकर अंगुली को छिन्न कर दिया। रक्त-प्रवाह शुरू हुआ। उसके नीचे शिव ने अपना 'कपाल' कर दिया, पर कपाल भर जाने पर वह रक्त नीचे प्रवाहित हुआ। तब से यह शिप्रा कहलाई। यहां संकल्प में भी यही कहा जाता है- 'विष्णु देहात्समुत्पन्ने शिप्रे।' 
 
निरूक्त रीति से भी यह नाम ठीक होता है-
 
शिप्रा कस्मात- 'शिव पतित रक्तातितिभविति शिप्रा'
शिवेन पतितं यत् रक्तं तत् प्रभवति तस्मात

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दूसरा प्रकार कालिका पुराण के अनुसार यह है कि मेधातिथि ऋषि ने अपनी कन्या अरुंधति वशिष्ठ को दान में जिस समय दी, उस संकल्प का जल हिमालय के शिप्रा सर का था। उसके नीचे पड़ जाने से यह नदी हुई। वहां 'शिप्रा' लिखा है। इसके अतिरिक्त कहीं-कहीं 'शिप्रा' और 'क्षिप्रा' लिखा हुआ मिलता है। मेघदूत में कालिदास ने भी 'शिप्रा वात: प्रियतम इव प्रार्थना चाटुकर!' शिप्रा लिखा है। 
 
शुक्ल यजुर्वेद के एक मंत्र में- 'शिप्रे: अवे पय:' इस शब्द का प्रयोग है। 
 
उज्जैन की जनता भी 'शिप्रा' ही कहती है।

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शिप्रा-तट पर सर्वत्र विशाल घाट बंधे हुए हैं। आसपास सर्वत्र मंदिर छत्री आदि बंधी हुई है। सायंकाल के समय शिप्रा-तट पर बैठने से शांति लाभ होता है। नरसिंह घाट, रामघाट, पिशाच मोचन तीर्थ, छत्री घाट, गंधर्वती तीर्थ नाम से यहां प्रसिद्ध घाट हैं। यहां ब्राह्मण लोग बैठे रहते हैं, यात्रियों का आवागमन सतत बना रहता है। 
 
गंगा दशहरा का उत्सव 9 रोज तक नदी-तट पर ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष में प्रतिवर्ष होता है। हजारों स्त्री-पुरुष आते हैं और यत्र-तत्र कथाएं होती रहती हैं।
 
कार्तिक पूर्णिमा और वैशाख पूर्णिमा का बड़ा मेला लगता है। सिंहस्थ के समय भी लाखों यात्री स्नान करते हैं। छत्री घाट पर 'राणो जी सिंधिया' की छत्री बनी हुई है। इसी प्रकार बायजाबाई सिन्धे की भी छत्री बनी हुई है। दोनों स्थान दर्शनीय हैं। यहां से शिप्रा की शोभा देखने योग्य होती है। गंधर्वती से आगे उस पार जाने के लिए पुल बंधा हुआ है। उस पार दत्त का अखाड़ा, केदारेश्वर, रणजीत हनुमानजी का स्थान है। वहां यात्रीगण अक्सर जाते रहते हैं। 
 
गंधर्वती के पहले मुसलमानों का 'मौलाना साहब' नामक विशाल स्थान है। आगे उदासीन साधुओं के बड़े अखाड़े का भव्य स्थान बना हुआ है। श्मशान के निकट बोहरों का बाग बना हुआ है। इसके आगे ऊपर टीले पर एक सुंदर छत्री वीरान-सी पड़ी हुई है। यह छत्री वीर दुर्गादास राठौड़ की है। इस ऐतिहासिक तथ्य पर अभी विशेष कार्य नहीं हो पाया है। दुर्गादास की मृत्यु यहीं हुई है। आगे चलकर ऋण-मुक्त महादेव का सुंदर स्थान है।

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