वह 'अमृत' की एक बूंद थी जिसने अवंतिका को धन्य कर दिया। यह देवताओं की माया का नतीजा था कि अमृत की 4 बूंदों के गिरने से एक स्थान में अवंतिका या उज्जयिनी शामिल हो गया। यही बूंद, सिंहस्थ में श्रद्धालुओं के समुद्र के रूप में 22 अप्रैल को शाही स्नान के वक्त नजर आएगी।
स्कंद पुराण के अवंति खंड में उल्लेख है कि देवताओं और दानवों में समुद्र मंथन को लेकर जब 'मंथन' हुआ तो रत्नाकार सागर को खंगालने की बात चली। हालांकि देवताओं और दानवों में कभी नहीं पटी, लेकिन दोनों के मिल-जुलकर मंथन करने से ही रत्नाकार सागर का मंथन हो सकता था।
उन्हें यह पता था कि उक्त सागर के तल में एक 'अमृत कलश' है। इस बात पर देवता-दानव एकजुट हो गए। मंथन के लिए मंदराचल पर्वत को मथनी बनाने तथा सर्पराज वासुकि को रस्सी बनाने की योजना बनी। दानवों ने रस्सी के रूप में सर्पराज का मुंह तथा देवताओं ने पूंछ पकड़ी और मंथन शुरू किया। मंथन के वक्त तीनों लोक कांप गए थे। इस मंथन से 14 रत्न समुद्र से बाहर निकले। इसी में स्वर्ण कलश में संग्रहीत अमृत भी था।
अमृत कलश प्राप्त होते ही दैत्य-दानव प्रसन्न हुए, लेकिन कलश हड़पने के लिए दोनों पक्षों में कुटिल विचार आने लगे। देवराज इंद्र ने अपने पुत्र जयंत को कटाक्ष किया और वह अमृत कलश लेकर भाग निकला। इस बात पर आक्रोशित दानवों ने देवताओं पर हमला किया।
12 दिन तक भयंकर संग्राम हुआ। इन 12 दिनों में 4 बार ऐसा हुआ कि जयंत, दानवों के हत्थे चढ़ गए। झूमा-झटकी में अमृत कलश से अमृत बूंदें छलकीं, जो कि चार स्थानों हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन में गिरीं और ये चारों स्थान पवित्र हो गए। इन स्थानों की नदी का माहात्म्य भी बढ़ गया। हालांकि बाद में मोहक रूप धरे विष्णु ने देवताओं को अमृत पान करा ही दिया।