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उज्जैन का संपूर्ण पौराणिक इतिहास और वर्तमान

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राजशेखर व्यास 

ऐतिहासिक दृष्टि से उज्जैन के प्राचीन-अतीत वर्णन श्रृंखलाबद्ध नहीं हैं तथापि वैदिक काल में 'अवन्तिका' नाम मिलता है। ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों में भी उल्लेख है। महाभारत काल में तो 'विंद' और 'अनुविंद' का राज्य यहां रहा है। इसी प्रकार भागवत आदि 18 पुराणों में उज्जैन की बहुभावपूर्वक, सर्व तीर्थों से श्रेष्ठता और महत्ता तथा अनेक पौराणिक घटनाओं का विस्तारपूर्वक रोचक वर्णन ‍किया हुआ है। पौराणिक भद्रसेन, गंधर्वसेन, रतिदेव, इंद्रघुम्न के नाम को उज्जैन से संबंधित होना कौन नहीं जानता? इसके अनंतर-मगधवंशीय प्रद्योत का राज्य यहां था, वे भगवान बुद्ध के समकालीन थे। उस समय उज्जैन का महत्व बहुत बढ़ा हुआ था।





 
कालिदास ने- 'प्रद्योतस्य प्रियदुतिहरं वत्स-राजो‍त्रजहवें, हैमतालदुमवनभूदत्त तस्यैव राज्ञ' प्रद्योत की लड़की वासवदत्त की वत्सराज उदयन द्वारा अपहरण का वर्णन किया है। इसी समय प्रद्योत का राज-पुरोहित महाकात्यायन बौद्ध धर्म में दीक्षित हुआ और विदेशों में जाकर उसने बौद्ध-धर्म का प्रचार किया। बौद्ध-ग्रंथों में भी उज्जैन का विस्तार-सहित वर्णन है। उस समय उज्जैन एक महाराष्ट्र था और पाली भाषा की उत्पत्ति यहीं से हुई है। प्रद्योत और उदयन के पश्चात 300 वर्ष का इतिहास विश्रृंखलित है, इसका पता नहीं चलता। इसके पश्चात हम अवंति देश को मौर्य साम्राज्य के अंतर्गत देखते हैं। इस समय सम्राट बिंदुसार का पुत्र अशोक उज्जैन का 'गोप्ता' बनकर आया था। ई.स.पू. 273 में जब अशोक साम्राज्य रूढ़ हो जाता है, तब उसने उज्जैन की अनेक प्रकार से उन्नति की; उनका पुत्र महेन्द्र और कन्या संघमित्रा यहां से लंका में धर्म प्रचारार्थ बौद्ध-धर्म दीक्षित होकर चले गए थे। मौर्य साम्राज्य भी थोड़े समय बाद नष्ट हो गया, तब शुंगवंशीय अग्निमित्र ने उज्जैन में शासन किया, परंतु इसने शीघ्र ही यहां से राजधानी उठाकर विदिशा भलेसा में स्थापित कर ली।
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शुंगों की सत्ता समाप्त होने पर काण्वों (ई.स.पू. 63.27) की, बाद आंध्रभृत्य, सातवाहन (ई.स.पू. 27 से 19) यथा क्षत्रप राजवंश ई.सं. 119 की सत्ता रही हैं। इसके अनंतर पौराणिक वर्णन हैं कि गंधर्वसेन ने राज्य किया, इसके बाद भर्तृहरि ने, भर्तृहरि के राज परित्याग करने पर ईसवीं सन् के 57 वर्ष पूर्व प्रथम शताब्दी में विक्रमादित्य का शासन यहां आरंभ हुआ। विक्रमादित्य के विषय में बहुत मतभेद हैं। इतिहासज्ञ विक्रमादित्य का ठीक निश्चय नहीं कर सके हैं, परंतु प्रथम शतक विक्रम शासन था, यह निर्विवाद है, चाहे 'विक्रम कौन था?' यह संदिग्ध हो; (अब पद्मभूषण पं. सूर्यनारायण व्यास के अनथक प्रयासों से 'विक्रम' का काल निर्धारण भी हो गया है एवं उन्हीं के प्रयासों से उज्जयिनी में विक्रम विश्वविद्यालय भी बना।) परंतु विक्रमादित्य के शौर्य, ओदार्य, पांडित्य, न्याय, परायणता, महत्ता आदि के विषय में सारा जगत श्रद्धा से उसकी स्मृति में मस्तक झुकाता है। संवत के प्रवर्तक के नाते अथवा महापुरुष के नाते सर्वदा विक्रमादित्य का नाम अमर-की‍र्ति लिए हुए ही रहेगा। इसी के शासनकाल में उज्जैन स्वर्गीय-सुभग सुन्दरता-पूर्ण रही है। महाकवि कालिदास की प्रतिभा का चमत्कार इसी समय प्रकट हुआ है। सर्वप्रथम विश्व को शाकुंतल नाटक श्रेष्ठ का प्रदान करने वाला और सर्वप्रथम इसी नाटक द्वारा भारत की महत्ता के सामने आदर से पाश्चात्यों के मस्तकों को नत करने वाला विश्व-कवि कविता-कान्त कालिदास इस पावन नगरी की विक्रम-सत्ता का एक महत्व रत्न रहा है और वैभव यहां की अपनी वस्तु रही हैं। 
 
'नर-रूप रत्नों से सजी थी वीर विक्रम की सभा,
अब भी जगत में जागती हैं, जगमगी जिनकी प्रभा।।'
जाकर सुनो उज्जैन मानो आज भी यह कह रही
मैं मिट गई, पर कीर्ति मेरी तब मिटेगी, जब मही।।'
 
विक्रमादित्य के पश्चात का थोड़ा समय इतिहास के अंधकार में है, अज्ञेय है। तदनंतर ई.सं. 100 के लगभग शकवंशीय चष्टन ने शासन किया। शककालीन उज्जैन भी व्यापार और रत्नों से भरपूर और प्रसिद्धि प्राप्त था। शक काल की समाप्ति पर ई.सं. 400 के करीब पटने के गुप्तवंशीय राजाओं के हाथ में सत्ता गई। गुप्तवंशीय राज्य का उज्जैन एक सूबा था। उज्जैन के द्वितीय विक्रमोपाधिधारी स्कंदगुप्त ई. 455-467 तथा द्वितीय कुमारगुप्त विक्रम ने 473-477 में शासन किया। 
 
इसी समय पर हूणों का हमला और अधिकार हुआ। हूणों से मालवे का उद्धार यशोधर्मदेव ने किया। इस समय यहां महासेन नामक गुप्तों का एक सूबा था। उसने अवसर पाकर इसे स्वतंत्र राज्य बना लिया। मंदसौर के शिलालेख में जिस कुमारगुप्त का उल्लेख है, उस समय 493 वि. बन्धु वर्मा मालवेश था। वि.सं. 529 में महासेन उसका लड़का देवगुप्त राजा हुआ। देवगु्प्त ने कन्नौज पर चढ़ाई की। वहां के मौखीरीवंशीय गुहवर्मा को हराकर उसकी स्त्री 'राज्यश्री' को कैद कर लाया। राज्यश्री थानेश्वर के नरेष्ठा की बहन थी; इसलिए बदला लेने हेतु इस नरेश ने देवगुप्त पर चढ़ाई की और देवगुप्त को पराजित कर सारा वैभव ‍छीन लिया। राज्यश्री कन्नौज की गद्दी पर बैठाई गई, उसका सूबा उज्जैन बना। कन्नौज के राज्यांत-पर्यंत उज्जैन इसी के अधीन रही। सिंहवर्मा, नरवर्मा, विश्ववर्मा और बधुकर्मा ने क्रमश: शासन किया।

इस समय उज्जैन के पाशुपताचार्य ने पाशुपत-मत का भीषण प्रचार किया। इसका शंकराचार्य ने खंडन किया। कन्नौज के शासन में अब ढिलाई आ गई थी अतएव परिवर्तन ने नियमानुसार आष्ट के परमारों ने सहज ही यहां का शासन ले लिया। कृष्णराज, वैरिसिंह सीयक देव (ई.सं. 875) यहां के शासक बने रहे। तदनंदर भोजदेव ने (ई.सं. 1010) में राज्यारोहण करते ही अपनी राजधानी धारानगरी (धार) बना ली। महाकालेश्वर मंदिर का विद्यावैभव-संपन्न नरेन्द्र भोज ने जीर्णोद्धार किया। भोजराज के बाद जयसिंह और उदयादित्य (1059) ने शासन किया। उदयादित्य का लड़का लक्ष्मदेव (1068), फिर क्रमश: नरवर्मदेव (1104), यशोवर्मदेव (1133), अर्जुननवर्मदेव, देवपाल (1216) यानी एक के पश्चात एक ने शासनसूत्र का संचालन किया।


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देवपाल के शासन के समय में ही (1235) दिल्ली के गुलामवंशीय शमसुद्दीन अल्तमश ने मालवे पर हमला किया। इस हमले में अनेक मंदिर और मूर्तियों को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। इसके बाद बराबर हमले होते रहे। (1290) में राज्य इन यवनी सत्ता के अंतर्गत हो गया। 1291 तथा 1293 में जलालुद्दीन खिलजी ने दोबारा उज्जैन पर हमला किया व कब्जा कर लिया। 
 
इसके पश्चात ई.सं. 1322 में तुगलकों ने यहां अपना सूबा कायम किया। 1390 में जिस समय तैमूर ने देहली पर चढ़ाई की, तब अवसर पाकर तुगलकों के सूबेदार दिलावर खान ने यहां निजी सुल्तानी कायम कर ली। इसके बाद इसका लड़का हुशंगशाह सुल्तान बना। इस तरह (ई.सं. 1501) में नसीरुद्दीन खिलजी तख्त पर आया। इसी सत्ता में मुहम्मद शाह और बहादुर शाह के मांडो वाले युद्ध में उज्जैन की मुस्लिम-सत्ता का अंत हो गया, परंतु अकबर का आना शेष था। 1562 में अकबर ने सवारी की और मालवे पर अपना कब्जा कर लिया। अकबर उज्जैन में कालियादेह महल में शांति के लिए रहा। कालियादेह महल में रहकर कई बार उस समय के प्रसिद्ध तत्वज्ञ योगी 'जदरूप' के साथ आत्मशांति के लिए चर्चा में समय बिताता रहा। इस योगी की महत्ता तथा ज्ञान-लाभ की चर्चा स्वयं जहांगीर ने अपनी 'तुजुक-ए-जहांगीरी' पुस्तक में की है। 1720 ई.सं. में मुहम्मद शाह ने जयसिंह, जयपुर नरेश को उज्जैन में सूबा नियुक्त किया। इस समय मालवे पर मराठों के हमले शुरू हो गए थे। इन आक्रमणों की भीषणता से तंग आकर जयसिंह की सलाह से मालवा पेशवा के अधीन कर दिया गया। पेशवों ने अपने सिन्धे और होलकर सरदारों को बांट दिया। 1732 में सिन्धे का उज्जैन सहित साढ़े 64 लाख का इलाका दे दिया। राणोजी सिन्धे ने अपने स्थान का कारोबार संभालने के लिए रामचन्द्रराव सुखटनकर को दीवान बनाया। इन्होंने यवनकालीन आक्रमणों से उध्वस्त अवन्तिका नगरी का पुन: जीर्णोद्धार किया। आज जिन मंदिरों और भव्य भवनों को हम देखते हैं, वे इन्हीं की निरीक्षकता में सुरक्षित बनाए हुए हैं। इस समय से लेकर यह नगर सिन्धे शाही के शासन में विद्यमान रही है। प्रथमत: राणोजी ने उज्जैन को ही राजधानी बनाया था, परंतु 1910 में यह राजधानी हटकर 'लश्कर' बनाई गई। आजादी से पूर्व इसी वंश के शासकों के अधिकार में यह नगरी रही है। बीच में बहुत अवसर तक उज्जैन की ओर सिन्धे-कुल-संभूत शासकों का ध्यान कम गया। ‍चतुर-शिरोमणि नरेन्द्ररत्न महाराज स्व. माधवराव सिन्धे (प्रथम) की दृष्टि इस ओर आकर्षित हुई थी। 
 
उन्होंने उज्जैन के सुधार पर विशेष लक्ष्य दिया। तब से बराबर शासकों का ध्यान उज्जैन के सुधार पर रहा। सिंधिया वंश ने उज्जयिनी को पूर्ण वैभव भी प्रदान किया।
 
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वर्तमान उज्जैन नगरी, नगाधिराज विंध्य के अंचल में सामुद्रिक सतह से 1678 फीट ऊंचाई पर, उत्तर अक्षांश 23/11 पर पुण्य-सलिला भगवती शिप्रा के दक्षिण तट पर अधिष्ठित हैं। सुजला-सफला भूमि होने के नाते यह अपनी रम्यता लिए हुए है। यहां की जलवायु समशीतोष्ण है। कालिदास ने यहां का वर्णन करते हुए धन्यों के ढेर की तरह रत्न-राशि का यत्र-‍तत्र ढेर रहना बतलाया है। 
 
इस जमाने में भी जैसी अन्न-जल, मिठाई-नमकीन यहां सुलभ, सुपक्व, सुस्वादु हैं, वैसी अन्यत्र नहीं। उज्जैन के प्रमुख देवता महाकालेश्वर हैं। यही इस क्षेत्र के अधिपति हैं। इनके अतिरिक्त 4 ‍नदियां, 74 महादेव, 11 रुद्र, 12 आदित्य, 6 गुप्त लिंग, नवग्रह, 6 विनायक, 24 देवी, 10 विष्णु और 8 माता तथा 87 तीर्थ हैं।
 
विद्या एवं कला की दृष्टि से वर्तमान नगरी पुरातन काल की समानता नहीं करती, फिर भी यहां वंश परंपरा से कुछ घराने विद्यमान हैं। समय की गति के अनुसार संस्कृत विद्या का यथोचित आदर नहीं हो रहा है तथापि किसी समय यहां संस्कृत साहित्य और ज्योतिष के सर्वमान्य पंडित रहे हैं।
 
व्यापार-व्यवसाय के नाते उज्जैन नगरी बौद्धकाल में बहुत प्रसिद्ध रही है। यहां के महीन वस्त्र और सुंदर छपाई तथा रत्न और सुगंधित पदार्थ भारत ही नहीं, पाश्चात्य देशों के लिए भी प्रिय और आकर्षक बने हुए थे। भड़ौच द्वारा माल बाहर जाया करता था। आज यहां केवल रूई और धान्य का व्यापार रहा है। छपाई का काम अब भी होता है, परंतु वह नहीं, जो प्रसिद्धि का कारण है। सराफा, दौलतगंज, नयापुरा, पटनी बाजार ये व्यापार के स्थान हैं। फ्रीगंज भी नया सुंदर स्थान बसा है, परंतु यहां विशेष व्यापार नहीं है। सामान्य सामान उपलब्ध हैं।
 
यहां अतीत में कपड़े की तीन मिलें थीं- नजर अली मिल, विनोद मिल और हीरा मिल। इनके अतिरिक्त जिनिंग फैक्टरी तथा प्रेस भी। आज इंदौर टेक्सटाइल एवं श्री सिंथेटिक्स श्री-समृद्धि का प्रतीक थे। ये भी अब प्राय: बंद होने के कगार पर हैं। कई सार्वजनिक संस्थाएं यहां स्थापित हैं। हिन्दी, मराठी, गुजराती, संस्कृत, ज्योतिष, वेद और अंग्रेजी की पाठशालाएं हैं। यहां की भाषा प्रधानत: मालवी है। जनगणना के अनुसार 10 लाख बस्ती है। उज्जयिनी की प्रगति में दिखने वाला महदन्तर, मालवीय सेवकों के सतत प्रयत्न से आशा है भविष्य में शीघ्र ही कम होता जाएगा और पुन: एक बार उज्जयिनी नगरी उसी महत्वपूर्ण गौरवासन पर प्रतिष्ठित होगी जिस पर सर्वदा से उसका आधिपत्य रहा है। 
 
आज इस नगर में विक्रम विश्वविद्यालय, विक्रम कीर्ति मंदिर, सिंधिया शोध प्रतिष्ठान,अ.भा. कालिदास समारोह एवं कालिदास अकादेमी भी सुस्थापित हैं। इन सबके जनक थे पद्मभूषण सा‍हित्य-वाचस्पति डॉ. (स्व.) पं. सूर्यनारायणजी व्यास जिन्होंने अपने जीवन का प्रत्येक कण और क्षण इस नगर को समर्पित कर दिया था।

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