कुछ समय पहले की ही बात है, जब मैं मध्यप्रदेश पुलिस के पूर्व महानिदेशक और तत्कालीन सीतामऊ रियासत के महाराज कृष्णसिंह राठौर से मिला था। पूरी तरह स्वस्थ नजर आ रहे श्री राठौर से मैंने सहज ही पूछ लिया कि आजकल आपकी दिनचर्या क्या है? उन्होंने कहा- मुझे मोतियाबिंद का ऑपरेशन कराना है अन्यथा मेरी तो सदा यही इच्छा रहती है कि उगता हुआ सूरज भी घोड़े की पीठ पर से देखूँ और डूबता हुआ सूरज भी।
तब मुझे इस बात का कतई अहसास नहीं था कि मेरी उनसे यह आखिरी मुलाकात होगी। मगर महाकाल के अश्व की वल्गा को भला कोई थाम सका है। आज राठौर साहब हमारे बीच में नहीं हैं मगर उनके रौबदार चेहरे के पीछे छिपा धैर्यवान और मिलनसार व्यक्तित्व तथा उनसे जुड़ी यादें हमेशा हमारे स्मृति पटल पर अंकित रहेंगी।
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी श्री राठौर का जन्म 18 नवंबर, 1934 को मंदसौर जिले में स्थित सीतामऊ रियासत में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा सीतामऊ के ही श्रीराम स्कूल में हुई। तत्पश्चात डेली कॉलेज (इंदौर), आगरा विश्वविद्यालय और दिल्ली विश्वविद्यालय में शिक्षा ग्रहण की। 1959 में भारतीय पुलिस सेवा के लिए चयनित श्री राठौर 10 मई 1992 से 30 नवंबर 1992 तक मध्यप्रदेश के पुलिस महानिदेशक रहे।
उनके व्यक्तित्व की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि राज परिवार में जन्म लेने के बाद भी उनमें राजसी ठसक अथवा अहंकार नाममात्र को भी नहीं था। छोटे-से-छोटा व्यक्ति भी जब उनसे मिलता तो वे उसकी बात बड़े ही धैर्य से सुनते और मिलने वाला हमेशा के लिए उनका मुरीद हो जाता था।
घुड़सवारी का पर्याय : अपने घुड़सवारी और घोड़ों से प्रेम के कारण श्री राठौर मध्यप्रदेश में घुड़सवारी का पर्याय बन गए थे। घुड़सवारी की विभिन्न प्रतियोगिताओं में कई पदक भी उन्होंने जीते थे। घुड़सवारी की विभिन्न राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में उन्होंने जज की भूमिका निभाई साथ ही राष्ट्रीय घुड़सवारी टीम के कोच भी रहे। उन्होंने भोपाल में अंतरराष्ट्रीय घुड़सवारी प्रतियोगिता के आयोजन में भी अहम भूमिका निभाई।
संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा के साक्षात्कार का अनुभव बताते हुए एक बार उन्होंने कहा था कि मुझसे साक्षात्कारकर्ताओं ने जब पूछा कि आप किस क्षेत्र में जाना चाहेंगे, तो मैंने कहा कि विदेश सेवा में या फिर पुलिस सेवा में। साक्षात्कारकर्ताओं ने फिर प्रश्न किया कि ज्यादातर लोग आईएएस बनना चाहते हैं फिर आप आईपीएस या आईएफएस क्यों बनना चाहते हैं? इस पर श्री राठौर बोले कि यदि मैं विदेश सेवा में जाता हूँ तो वहाँ नौकरी के साथ मेरा घूमने का शौक पूरा होगा जबकि पुलिस सेवा में जाने के बाद भी मैं अपने घुड़सवारी के खेल को जारी रख सकूँगा। खेल प्रेम का अपने आप में यह अनूठा उदाहरण है।
पैतृक विरासत : मालवा के महान इतिहासकार महाराज कुमार डॉ. रघुवीरसिंह के पुत्र श्री राठौर ने पैतृक विरासत को भी बखूबी संभाला। डॉ. सिंह के निधन के बाद उनके द्वारा स्थापित नटनागर शोध संस्थान को भी श्री राठौर ने पूरे मनोयोग से संचालित किया। हाँ, संस्थान की कमजोर आर्थिक स्िथति का मलाल उन्हें हमेशा सालता रहता था।
पुरस्कार और सम्मान : घुड़सवारी के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए मध्यप्रदेश शासन द्वारा श्री राठौर को विश्वामित्र अवॉर्ड से सम्मानित किया गया। इसके अलावा पश्चिमी स्टार पदक (1971), संग्राम पदक (1976), भारतीय पुलिस प्रशंसनीय सेवा पदक, राष्ट्रपति पुलिस पदक, मध्यप्रदेश पुलिस पदक आदि से सम्मानित किया गया।
श्री राठौर का अनंत में विलीन होना ठीक उसी तरह लगता है मानो कोई घुड़सवार देखते ही देखते हमारी आँखों के सामने से ओझल हो गया हो। ...और छोड़ गया हो कभी न मिटने वाले टॉपों के निशान।