2015 में शेयर बाजार का हाल बेहाल
शेयर बाजार के लिए 2014 बेहद शानदार रहा था। सेंसेक्स और निफ्टी दोनों ही अपने सर्वोच्च स्तर पर पहुंचे। एफडीआई का इस मार्केट पर स्नेह बना रहा तो वहीं दूसरी ओर मोदी की निवेश अपीलों से प्रभावित यह बाजार दिन-प्रतिदिन नए कीर्तिमान गढ़ता रहा। सेंसेक्स ने पिछले पांच सालों में सबसे अच्छा प्रदर्शन करते हुए 2014 में 6,000 अंक से अधिक की बढ़ोतरी दर्ज की गई। लेकिन बाजार ने 2015 में निवेशकों को निराश किया। सेंसेक्स और निफ्टी दोनों में इस वर्ष लगभग छह प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई।
इस दौरान विदेशी निवेशकों ने जहां शुरू में बंबई शेयर बाजार के प्रमुख सूचकांकों को अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंचा ला दिया पर बाद में स्थानीय बाजार से अरबों डॉलर की पूंजी की निकासी कर इसकी हवा निकाल दी।
मुंबई बाजार का सेंसेक्स इस साल 1660 अंक या छह प्रतिशत से अधिक के नुकसान में है। पिछले साल इसमें करीब 30 प्रतिशत की बढ़त दर्ज की गई थी। इससे पहले सेंसेक्स 2011 में 24 प्रतिशत गिरा था।
इस समय सेंसेक्स 25,838.71 पर है। साल के शुरू में रिजर्व बैंक की नीतिगत ब्याज दर में कटौती से उत्साहित होकर 30,024 पर पहुंच गया था।
इस साल 24 अक्टूबर को संसेक्स को एक दिन का सबसे बड़ा झटका लगा था। उस दिन चीन के युआन के भारी अवमूल्यन के बाद वैश्विक स्तर पर मची खलबली में सेंसेक्स 1,624.51 अंक टूट गया था।
वर्ष के दौरान नई कंपनियों के शेयर बाजार में आने से सूचीबद्ध कुल निवेश संपत्ति बढ़ाने में मदद मिली। बाजार का पूंजीकरण यानी बाजार कीमत के हिसाब से सूचीबद्ध शेयरों का मूल्य फिर से 100 लाख करोड़ रुपए के स्तर पर पहुंच गया।
निवेशकों की संपत्ति की बाजार हैसियत 2014 के अंत 98.4 लाख करोड़ रुपए थी और उसके बाद जुलाई 2015 तक यह 100 लाख करोड़ रुपए से ऊपर चल रही थी। नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का निफ्टी भी 2015 में करीब छह प्रतिशत नीचे रहा।
इस साल धातु, बैंकिंग, रीयल्टी और सार्वजनिक उपक्रम के शेयर रह काफी नुकसान में रहे। जिंस बाजार में गिरावट के चलते बंबई शेयर बाजार का धातु सूचकांक 32 प्रतिशत से अधिक टूट चुका है जबकि रीयल्टी करीब 15 प्रतिशत, बैंक 10 प्रतिशत से अधिक और सार्वजनिक उपक्रम 18 प्रतिशत से अधिक गिरे हैं।
स्वास्थ्य और टिकाऊ उपभोक्ता वस्तु बनाने वाली कंपनियों के शेयरों पर आधारित सूचकांकों ने हालांकि इस दौरान अच्छा प्रदर्शन किया।
एफपीआई ने भारी बिकवाली कर वर्ष की दूसरी छमाही में भारतीय शेयर बाजारों की स्थिति बदल दी। ये निवेशक इससे पहले लंबे समय से भारत को अपना सबसे पसंदीदा उभरता बाजार बनाए हुए थे।
इस साल भारतीय बाजार में कुल एफपीआई प्रवाह घटकर सिर्फ तीन अरब डॉलर रह गया जबकि ऐसे निवेशकों ने पिछले तीन साल में सालाना औसतन 20-20 अरब डॉलर का निवेश किया था। वास्तव में वर्ष के दौरान एफपीआई शेयर बाजार में शुद्ध बिकवाल रहे। वह तो आईपीआई में उनका निवेश है जिसने कुल मिला कर उनके प्रवाह को वृद्धि के दायरे में रख सका है।
हालांकि, वैश्विक परिदृश्य पर नजर डाले तो भारत की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी है। चीन सहित अन्य बाजार भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।
बीच रहे इस साल पर दृष्टि डालते हुए एसएंडपी डाउ जोन्स इंडिसीज की प्रबंध निदेशक, ग्लोबल इक्विटी अलका बनर्जी ने कहा कि भारतीय शेयर बाजारों को वस्तुत: वैश्विक जिंस बाजारों में नरमी का लाभ हुआ और यहां अन्य उभरते बाजारों के मुकाबले उतार-चढ़ाव कम रहा।
वर्ष के दौरान आरबीआई का नीतिगत स्तर पर प्रोत्साहन सकारात्मक रहा। वर्ष के शुरू में नीतिगत दरों में अप्रत्याशित कटौती के बाद शेयर बाजार में 15 जनवरी को अब तक की सबसे बड़ी तेजी दर्ज हुई और सेंसेक्स 728.73 अंक चढ़कर 28,075.55 पर पहुंच गया।
बाजार में पहली तिमाही के दौरान जोरदार निवेश हुआ और पांच मार्च 2015 को भारी विदेशी निवेश के समर्थन से सेंसेक्स 30,000 के मनोवैज्ञानिक स्तर को पार कर गया था। इस अवधि में एफपीआई ने इक्विटी और बांड में 79,000 करोड़ रुपए का शुद्ध निवेश किया था।
दूसरी तिमाही में सकारात्मक गतिविधि बरकरार रही। हालांकि, एफपीआई द्वारा भारी बिकवाली के मद्देनजर इसके बाद बाजार, विशेष तौर पर इक्विटी बाजार में सुस्ती आई।
दिल्ली और बिहार विधान सभा चुनावों में भाजपा की हार और जीएसटी विधेयक को पारित कराने में विपक्ष के अवरोध समेत प्रमुख सुधारों में देरी और वैश्विक परिदृश्य की मुश्किलें, विशेष तौर पर चीन की ओर से दिख रहे संकट और अमेरिका में ब्याज दर में बढ़ोतरी की अनिश्चितता से बाजार पर असर हुआ।
लंबे इंतजार के बाद अंतत: 17 दिसंबर को जब अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने ब्याज दर में 0.25 के दायरे में बढ़ोतरी की घोषणा की तो उसका स्थानीय बाजार पर कोई प्रतिकूल असर नहीं हुआ क्योंकि बाजार ने इस बहुप्रतीक्षित पहल को पहले ही स्वीकार कर लिया था।
रुपया भी फिसलन भरी राह पर रहा और इस साल एफआईआई की भारी निकासी के मद्देनजर अमेरिकी डॉलर के मुकाबले इसकी विनियम दर में पांच प्रतिशत से अधिक की गिरावट दिखी।