स्वामी विवेकानंद का राष्ट्र चिंतन
- धर्मपाल शर्मा
स्वामी विवेकानंद एक ऐसे संत थे जिनका रोम-रोम राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत था। उनके सारे चिंतन का केंद्रबिंदु राष्ट्र था। भारत राष्ट्र की प्रगति और उत्थान के लिए जितना चिंतन और कर्म इस तेजस्वी संन्यासी ने किया उतना पूर्ण समर्पित राजनीतिज्ञों ने भी संभवत: नहीं किया। अंतर यही है कि उन्होंने सीधे राजनीतिक धारा में भाग नहीं लिया। किंतु उनके कर्म और चिंतन की प्रेरणा से हजारों ऐसे कार्यकर्ता तैयार हुए जिन्होंने राष्ट्र रथ को आगे बढ़ाने के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।
इस युवा संन्यासी ने निजी मुक्ति को जीवन का लक्ष्य नहीं बनाया था, बल्कि करोड़ों देशवासियों के उत्थान को ही अपना जीवन लक्ष्य बनाया। राष्ट्र के दीन-हीन जनों की सेवा को ही वह ईश्वर की सच्ची पूजा मानते थे।
सेवा की इस भावना को उन्होंने प्रबल शब्दों में व्यक्त करते हुए कहा था- 'भले ही मुझे बार-बार जन्म लेना पड़े और जन्म-मरण की अनेक यातनाओं से गुजरना पड़े लेकिन मैं चाहूंगा कि मैं उसे एकमात्र ईश्वर की सेवा कर सकूं, जो असंख्य आत्माओं का ही विस्तार है। वह और मेरी भावना से सभी जातियों, वर्गों, धर्मों के निर्धनों में बसता है, उनकी सेवा ही मेरा अभीष्ट है।' सवाल यह है कि स्वामी विवेकानंद में राष्ट्र और इसके पीड़ितजनों की सेवा की भावना का उद्गम क्या था? क्यों उन्होंने निजी मुक्ति से भी बढ़कर राष्ट्रसेवा को ही अपना लक्ष्य बनाया।
इस तथ्य को जानने के लिए स्वामी विवेकानंद की जीवन यात्रा पर एक दृष्टि डालना आवश्यक होगा। कलकत्ता के एक उच्च मध्यवर्गीय परिवार में 12 जनवरी 1863 को जन्मे विवेकानंद के बचपन का नाम नरेन्द्रनाथ था। नरेन्द्र विश्वनाथ और भुवनेश्वरी के सबसे बड़े पुत्र थे। उनका प्रारंभिक जीवन तैराकी, संगीत और दौड़ जैसी भौतिक कलाओं के अर्जन में बीता। ज्ञान और सत्य के खोजी तो नरेन्द्र बचपन से ही थे। इसलिए वे जीवन के चरम सत्य की खोज के लिए छटपटा उठे वे यह जानने के लिए व्याकुल हो उठे कि क्या सृष्टि नियंता जैसी कोई शक्ति है जिसे लोग ईश्वर करते हैं।