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तालिबान को मिला अमेरिका के भारी-भरकम निवेश का फायदा!

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, मंगलवार, 17 अगस्त 2021 (19:43 IST)
वॉशिंगटन। शायद ही किसी ने सोचा था कि दो दशक में 83 अरब अमेरिकी डॉलर की लागत से तैयार और प्रशिक्षित अफगान सुरक्षा बलों के पांव तालिबान के सामने इतनी तेजी से पूरी तरह उखड़ जाएंगे। कई मामलों में तो अफगान सुरक्षा बलों की तरफ से एक गोली तक नहीं चलाई गई। ऐसे में सवाल उठता है कि अमेरिका के इस भारी-भरकम निवेश का फायदा किसे मिला, जवाब है तालिबान।
उन्होंने अफगानिस्तान में सिर्फ राजनीतिक सत्ता पर ही कब्जा नहीं जमाया, उन्होंने अमेरिका से आए हथियार, गोलाबारूद, हेलिकॉप्टर आदि भी अपने कब्जे में ले लिए।
 
तालिबान ने जब जिला केंद्रों की रक्षा में नाकाम अफगान बलों को रौंदा तो उनके साथ ही उनके आधुनिक सैन्य उपकरण व साजो-सामान पर भी कब्जा कर लिया। तालिबान को सबसे बड़ा फायदा तब हुआ जब प्रांतीय राजधानियों और सैन्य ठिकानों पर चौंकाने वाली गति से कब्जा करने के बाद उसकी पहुंच लड़ाकू विमानों तक हो गई। सप्ताहांत तक उसके पास काबुल का नियंत्रण भी आ गया।
 
अमेरिका के एक अधिकारी ने सोमवार को इस बात की पुष्टि की कि तालिबान के पास अमेरिका द्वारा अफगानिस्तान में आपूर्ति किए गए हथियार व उपकरण अचानक बड़ी मात्रा में पहुंच गए हैं। इस मामले पर सार्वजनिक तौर पर चर्चा के लिए अधिकृत नहीं होने की वजह से अधिकारी ने नाम न जाहिर करने की शर्त पर बात की।
 
इसलिए विफल रहा अमेरिका : यह अमेरिकी सेना और खुफिया एजेंसियों द्वारा अफगान सरकारी बलों की जीवटता को गलत तरीके से समझने के शर्मनाक परिणाम हैं। अफगान बलों ने तो कुछ मामलों में लड़ाई के बजाए अपने हथियारों और वाहनों के साथ आत्मसमर्पण करने का विकल्प चुना।
 
एक स्थायी अफगान सेना और पुलिस बल तैयार करने में अमेरिका की विफलता और उनके पतन के कारणों का सैन्य विश्लेषकों द्वारा वर्षों तक अध्ययन किया जाएगा। बुनियादी आयाम हालांकि स्पष्ट हैं और जो इराक में हुआ उससे ज्यादा जुदा भी नहीं हैं। सेनाएं वास्तव में खोखली थीं। उनके पास उन्नत हथियार तो थे लेकिन लड़ाई के लिए जरूरी प्रेरणा व जज्बा नहीं था।
 
रक्षा मंत्री लॉयड ऑस्टिन के मुख्य प्रवक्ता जॉन किर्बी ने सोमवार को कहा कि रुपयों से आप इच्छाशक्ति नहीं खरीद सकते। आप नेतृत्व नहीं खरीद सकते। जॉर्ज बुश और ओबामा प्रशासन के दौरान अफगान युद्ध की प्रत्यक्ष रणनीति में मदद कर चुके सेना के सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल डोग ल्यूट ने कहा कि अफगान बलों को जो मिला वो मूर्त संसाधनों रूप में था, लेकिन उनके पास महत्वपूर्ण अमूर्त चीजों की कमी थी।
 
उन्होंने कहा कि युद्ध का सिद्धांत कहता है- नैतिक कारक साधन संबंधी कारकों पर भारी पड़ते हैं। उन्होंने कहा कि बलों और साजो-सामान की संख्या की तुलना में मनोबल, अनुशासन, नेतृत्व, इकाई संयोजन अधिक निर्णायक है। अफगान में बाहरी के तौर पर हम सामग्री व संसाधन उपलब्ध करा सकते हैं, लेकिन अमूर्त नैतिक कारक अफगान ही उपलब्ध करा सकते हैं।
 
खुफिया एजेंसियों की नाकामी : इसके विपरीत अफगानिस्तान में तालिबान लड़ाके कम संख्या, कम उन्नत हथियारों और बिना हवाई शक्ति के बेहतर बल साबित हुए। अमेरिकी खुफिया एजेंसियों ने उनकी श्रेष्ठता के दायरे को काफी हद तक कम करके आंका और राष्ट्रपति जो बाइडन के अप्रैल में सभी अमेरिकियों को वापस लाने की घोषणा के बावजूद, खुफिया एजेंसियां तालिबान के अंतिम हमले का अंदाजा नहीं लगा सकीं कि यह इतनी शानदार ढंग से सफल होगा।
 
अफगानिस्तान में 2001 में युद्ध देख चुके क्रिस मिलर ने कहा कि अगर हम कार्रवाई के तौर पर उम्मीद का इस्तेमाल नहीं करते तो…हम यह समझ पाते कि अमेरिकी बलों की त्वरित वापसी से अफगान राष्ट्रीय बलों में यह संकेत गया है कि उन्हें छोड़ दिया जा रहा है। मिलर राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल के अंत में कार्यवाहक रक्षामंत्री भी रहे थे।
विशेषज्ञों ने कहा था : आर्मी वॉर कॉलेज के रणनीतिक अध्ययन केंद्र के एक प्रोफेसर ने 2015 में पूर्व के युद्धों की सैन्य विफलताओं से सबक सीखने के बारे में लिखा था। उन्होंने अपनी किताब का उपशीर्षक रखा था- 'अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बल क्यों नहीं टिक पाएगा'।
 
क्रिस मेसन ने लिखा कि अफगान युद्ध के भविष्य के संदर्भ में सीधे शब्दों में कहें तो वियतनाम और इराक में दो रणनीतिक चूक के बाद अमेरिका फिर नीचे की तरफ आ रहा है और इस बात का कोई व्यवहारिक तर्क नहीं है कि अफगानिस्तान में हालात क्यों अलग होंगे।
 
अफगान सैन्य निर्माण की कवायद पूरी तरह से अमेरिकी उदारता पर निर्भर थी यहां तक कि पेंटागन ने अफगान सैनिकों के वेतन तक का भुगतान किया। कई बार यह रकम और ईंधन की अनकही मात्रा भ्रष्ट अधिकारियों और सरकारी पर्यवेक्षकों द्वारा हड़प ली जाती जो आंकड़ों में सैनिकों की मौजूदगी दिखाकर आने वाले डॉलर अपनी जेबों में डालते जाते थे।

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