अर्जुन की एकाग्रता, एकलव्य का त्याग, आरुणी की गुरु-भक्ति भले ही किस्से-कहानियाँ और पौराणिक कथाएँ बनकर रह गई हों, लेकिन आज भी उनकी मिसालें छात्रों के सामने रखी जाती हैं। गुरुकुल और गुरु-शिष्य परंपरा में काफी बदलाव आए हैं। शिक्षा-प्रणाली भी काफी तेजी से बदली है, लेकिन उन बदलावों ने शिक्षा को जिस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है, उससे न तो शिष्यों का भला हो रहा है और न ही शिक्षा का।
महँगे स्कूलों में दाखिला लेना किसी मैराथन से कम नहीं है, और इसमें जीतने वाले खुद को किसी विजेता से कमतर नहीं आँकते। बच्चों के कंधे पर भारी बस्ते देखकर उन्हें लगता है कि उनके बच्चे अच्छी शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या केवल महँगे स्कूल और भारी बस्ते ही बच्चों का सही भविष्य तय करते हैं?
आए दिन स्कूलों में बढ़ी फीस को लेकर शिक्षकों और अभिभावकों में झड़पें होती रहती हैं, तो कहीं शिक्षकों द्वारा बच्चों पर अत्याचार की खबरें आती हैं। अगर स्कूलों से इतर कॉलेजों की बात की जाए तो स्थिति और भी भयावह नजर आती है। शिक्षकों को मौत के घाट उतारने में भी छात्र हिचकते नहीं हैं। अभी हाल ही में कुछ ऐसी ही घटनाओं ने गुरु-शिष्य परंपरा को शर्मसार कर दिया।
जिस तरह से गुरु-शिष्य परंपरा का स्वरुप बदला है, उसने हमें यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि शिक्षा में जिस विकास की बात हम करते हैं, क्या वह ऐसी ही होनी चाहिए, जिसमें शिक्षा को एक वस्तु समझकर खरीदने का प्रयास किया जाता है।