पत्रकारिता सीखी या सिखाई नहीं जाती' इस एक वाक्य को सुनते हुए ही मैंने पत्रकारिता सीखी भी और सिखाई भी। पत्रकारिता के लिए प्रवेश प्रक्रिया पूर्ण होने के बाद एक सहज जिज्ञासा थी कि आखिर यहाँ क्या और कैसे पढ़ाया जाएगा। इससे पहले कभी सुना नहीं था कि इस क्षेत्र में आने के लिए कोई कोर्स करना होगा।
लेकिन माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विश्वविद्यालय से स्नातक और स्नातकोत्तर उपाधि ग्रहण करने से लेकर मॉस कम्यूनिकेशन के निजी कॉलेज की प्रिंसिपल रहने तक और विभिन्न समाचार पत्र-पत्रिकाओं में लेखन से लेकर वर्तमान दायित्व निभाने तक हर क्षण यह अहसास हुआ है कि इस गहन-गंभीर क्षेत्र में अगर बिना किसी प्रशिक्षण के आ जाती तो यकीनन यहाँ तक इतने आत्मविश्वास से आगे नहीं बढ़ पाती।
भाषा की तराश पत्रकारिता विश्वविद्यालय में प्रवेश से पूर्व भी मेरी अपनी एक भाषा थी, सभी की होती है। किन्तु यहाँ आने के बाद मैंने जाना कि अपने शब्द-संसार को निरंतर समृद्ध करना कितना आवश्यक है। कम्यूनिकेशन के लिए आवश्यक अनुभवों ने यहीं विस्तार पाया। अधिक स्पष्ट शब्दों में कहूँ तो अवसर, समय, श्रोता और श्रोता की समझ के स्तर को ध्यान में रखते हुए किन शब्दों का चयन किस कुशलता से करना है कि गंतव्य तक विचार और मंतव्य पूर्णत: पहुँच जाए, यह ज्ञान मीडिया की पुस्तक मात्र से प्राप्त करना संभव नहीं था। इसे कक्षा के 'प्रैक्टिकल' और शिक्षकों के मार्गदर्शन से ही समझ सकी। भाषा मेरी अपनी थी, कल भी और आज भी लेकिन उसे निरंतर तराशने-सँवारने का हुनर विश्वविद्यालय ने सिखाया।
विचार गर्म लेकिन अभिव्यक्ति शीतल यह बिन्दु निश्चित रूप से कोई विश्वविद्यालय नहीं सीखा सकता। इसे हमें खुद ही अपने आप में विकसित करना होता है। मगर यह सच है कि विकास की प्रेरणा मीडिया गुरुओं से ही मिलती है, मिली है। मुझे याद है,विश्वविद्यालय की मौखिक अभिव्यक्ति की कक्षा। जहाँ अक्सर विचारों की भिन्नता सिर टकराने लगती और वाद-विवाद सिर्फ 'विवाद' के रूप में शेष बचता था। हम विद्यार्थियों के विचार 'तर्कों' के रास्तों से चलते-चलते 'तकरार' के द्वार पर जा पहुँचते थे।
लेकिन इसी उठापटक के बीच मैंने सीखा कि किसी विषय को दूसरों के नजरिए से देखने से ही दिमाग की खिड़कियाँ भड़भड़ाकर खुलती है। क्योंकि जब तक दूसरों के विचार सामने नहीं आएँगे तब तक हम उसे खंडित करने के लिए तर्क नहीं खोजेगें। अपनी बात को तार्किकता से प्रमाणित करने के लिए विरोधी विचारों का आगमन आवश्यक है।
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विरोधी विचारों को शांति से सुनने का गुण वर्तमान दायित्वों को निभाते हुए काम आया। यहाँ विश्व भर के नेट-यूजर्स अपनी भोली जिज्ञासाओं के साथ और कभी-कभी एकदम तीखे तेवर के साथ हर पल मौजूद रहते हैं। एक छोटी सी त्रुटि पर कटघरे में खड़ा करने से नहीं चुकते और जब तक संतोषजनक उत्तर ना प्राप्त कर लें उनकी जिज्ञासाओं का सिलसिला जारी रहता है। ऐसे में धैर्य ही तो काम आता है।
खुद को अभिव्यक्त करने की कला सिखाता मीडिया-शिक्षण जब हम पत्रकार बनने का निर्णय ले रहे होते हैं तब हमारी बिरादरी में विशेष प्रकार के व्यक्ति पाए जाते हैं। या तो अति आत्मविश्वासी या निहायत संकोची। मीडिया शिक्षण आपको आईना दिखाता है कि यह दोनों तरह की असामान्यता इस क्षेत्र के लिए उपयुक्त नहीं है। इस क्षेत्र की सबसे महती आवश्यकता है कि हम स्वयं को अभिव्यक्त करना सीखे। ना सिर्फ अभिव्यक्त बल्कि कुशलता से अभिव्यक्त करना सीखे।
यह सशक्तता हममें नहीं होगी तो कैसे हम दूसरों की आवाज बन सकेंगे? यह सामान्य पाठ्यक्रम नहीं है कि डिग्री लेने के उपरांत आप सोचें कि अब क्या बनना है। यह एक सुनिश्चित करियर है, और यहाँ रेंगने वाले जीव कुचल दिए जाते हैं। मीडिया-शिक्षा 'फील्ड' में आने से पहले नवागत पत्रकार में आवश्यक सुधार की नींव रखती है ताकि शिक्षण के उपरांत वह पत्रकारिता में मजबूती से अपने पैर जमा सकें।
यहाँ चुनौतियों की आँधी और संकटों के बादलों से आसमान हर मौसम में टूटने-बरसने को तैयार रहता है। यह क्षेत्र कमजोर जीव को उड़ाकर हाशिए पर पटकने के लिए भी बदनाम है। खुद पर विश्वास करना तो शिक्षण के दौरान हम सीखते ही हैं साथ ही पत्रकारिता के अनिवार्य गुण 'समयानुसार उचित अभिव्यक्ति' भी यहीं सीखी जा सकती है।
कुल मिलाकर, एक पत्रकार क्षेत्र में आने से पहले मजबूती से तैयार होना चाहता है तो निर्विवाद रूप से उसके लिए मीडिया-शिक्षण की उपयोगिता है। मैं अपने हर शिक्षक को जिनसे मैंने प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से पत्रकारिता सीखी है, आज के पवित्र दिवस पर नमन करती हूँ। यकीनन यह मातृ-दिवस नहीं है लेकिन हर बच्चे की पहली गुरु माँ होती है और शिक्षक दिवस पर माँ को उनकी दी हुई सारी शिक्षा के लिए आदर और आभार अर्पित करती हूँ।