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दिवस के बहाने 'शिक्षक' सम्मान

जगदीश ज्वलंत

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शिक्षक दिवस पर कई शिक्षकों की अपेक्षाभरी निगाहें राजधानी की ओर एक सम्मान को तलाशती हैं। शायद इस बार उनका सच्चा मूल्यांकन होगा। शासन बांहें फैलाकर, पास बुलाकर गले लगाएगा। कहेगा- ये है राष्ट्र निर्माण की सच्ची आधारशिला। प्रतीक पुरुष हैं ये जीवन-दर्शन के। राष्ट्र आभारी है जिनका। गौरवान्वित हैं हम इनका सान्निध्य पाकर।

सांझ ढल गई, किंतु ऐसा कुछ नहीं हुआ। होना भी नहीं था, क्योंकि ऐसा होता भी नहीं है। शासन कागज की आंखों से देखता है। सम्मान की फाइलें चला करती हैं। गुरुता के कद को कागज की लंबाई से नापा जाता है। सील, पृष्ठांकन, टीप, दस्तावेज, फाइल कवर, असर, दबाव-प्रभाव-भाव, समझौते, रिश्ते, घिघियाना, लरियाना, समझाना आदि अनेक इकाइयाँ मचल उठती हैं। तब जाकर मिलता है कालूसिंह जैसे को राजधानी से सम्मान।

कालूसिंह जिसका नाम, पात्र, घटनाएं सभी काल्पनिक हैं। यदि कहीं किसी से साम्य मिलता है तो इसे संयोग ही समझें। न भी समझें तो हमारा यह कालूसिंह इतना भारी है कि उस पर आपके कुछ भी समझने, न समझने से कोई फर्क नहीं पड़ता। राजधानी से जारी पुरस्कृत हुए शिक्षकों की सूची में कालूसिंह पहले नंबर पर है।

सूची देखकर कई शिक्षकों ने आश्चर्य से इतनी जोर से दांतों तले उंगली दबाई कि कई की कटते-कटते बची। कई अन्य शिक्षक जानते थे कि ये पुरस्कार सिर्फ कालूसिंह जैसों के लिए ही बने हैं! उन्हें सिर्फ कालूसिंह की परंपरा के वाहक ही हथिया सकते हैं। इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है। यह तो होना ही था। पुरस्कार की प्रक्रिया से गुजरने में एक माह से अधिक का समय लगता है। जो बेचारा निष्ठावान है, जुगा़ड़ू नहीं, इतना समय कहाँ से लाएगा?

कालूसिंह के पास समय ही समय था। सारे जोड़-तोड़, दांव-पेंच, हथकंडे, रिश्ते-नाते अपनाने थे, भुनाने थे। लगा दिए। प्रतिष्ठा का प्रश्न था। एक निवृत्त हुए, सेवाभावी, अपुरस्कृत गुरुजी से शर्त जो लगी थी। उन्हें हराना कालूसिंह का लक्ष्य था। बच्चे, भविष्य, चरित्र, राष्ट्र, संस्कार, निर्माण आदि फिजूल के शब्दों के लिए उनके पास कोई स्थान नहीं था। कसरती शरीर था, बनना पहलवान चाहते थे, बन गए शिक्षक। पहलवानी में आगे कोई "गॉर्मेंट जॉब" नहीं था। उस्ताद का कहा मान अपने सारे दाँव ले वे शिक्षा के अखाड़े में कूद गए।

उन्हें देख सारी शिक्षा व्यवस्था सहम गई थी। बाहें चढ़ा वे प्रधानाचार्य की कुर्सी पर जा बैठते। बेचारे दुबले-पतले प्रधानाचार्य दूर रखी चपरासी की बेंच पर ही बैठकर खैर मनाते। उन्हें चॉक से चिढ़ थी और बच्चों से नफरत। साढ़े दस से दबा पान बारह बजे नष्ट हो जाता और लंच टाइम में फँसाया गया दूसरा पान चार बजा देता था। उन्हें दो शब्द कहने का समय ही नहीं मिलता।

किसी की हिम्मत भी कहां थी कि उन्हें अध्यापन के निर्देश देकर ततैया के छत्ते में हाथ भरे। सभी उन्हें दूर से देखकर उनका अभिवादन करते। वे सिर्फ उड़ती निगाह से सभी को देखकर उपकृत कर देते थे। भय था कहीं वे सचमुच किसी को न देख लें। आज तक उन्हें पता नहीं था कि उन्हें किस विषय को, किस कक्षा में, कितने समय पढ़ाना है। वे तो यह भी भूल चुके थे कि पढ़ाते कैसे हैं।

उनका मानना था कि ज्ञान तो ईश्वरीय वरदान है। प्रतिभाएं स्वयं निखरती हैं, उन्हें छेड़ना नहीं चाहिए। ज्ञान तो गुरु के आशीर्वाद से ही मिल जाता है। वे सिर्फ आशीर्वाद देने में विश्वास रखते थे।

सरस्वतीजी के पास उन्होंने एक मुग्‌दल लाकर रख दिया था। वे उसी की पूजा करते थे जिससे भय और अनुशासन बना रहता था। शिक्षा पर शरीर हावी था। पुरस्कार के लिए आमंत्रित आवेदन लिए वे प्रधानाचार्यजी के पास पहुंचे। उन्हें बेंच से उठाकर अपनी कुर्सी पर बैठाया और आवेदन को श्रेष्ठतम रूप में भरने को कहा।

कुश्ती में जीत के कई फोटो सरकारी गोंद से चिपकाए गए। फूला हुआ सीना, मछली से उछले बल्ले दिखाते हुए, मलखंभ पर चढ़ते हुए, हथेली पर बच्चों को खड़ा किए हुए आदि दस्तावेजों से फाइल इतनी भारी हो गई कि अग्रिम बधाइयों का ताँता लग गया : 'पुरस्कार तो आपको ही मिलेगा, मजाल किसी की कि फाइल को दरकिनार करे!' उनके मोबाइल में राजधानी तक के पहलवानों के नंबर सेव थे।

घुमाने की देर थी, लेकिन नौबत नहीं आई। मिल गया पुरस्कार। बधाई कालूसिंह! आप जैसी प्रतिभाएं आगे आएं। पुरस्कार पाएं ताकि हम उन्हें और नजदीक से पहचान सकें।

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