इमेजिन टीवी का किन शब्दों में शुक्रिया अदा करें, समझ नहीं आता। घर में गाली-गलौज के संस्कार देने के लिए, या किसी इंसान की इज्जत से बिना किसी झिझक के खेलने के लिए। सदियों से मानव का स्वभाव रहा है किसी दूसरे की लानत-मलामत को उसे विशेष चटखारे लेकर देखने में मजा आता है।
राखी की टीआरपी भी इसीलिए सर चढ़ रही है कि लोग अपने भीतर छुपे विकार वहाँ निकलते देख रहे हैं। अगर आपने शो 'राखी का इंसाफ' देखा है तो आप जानते हैं कि वहाँ घटिया संवादों, अश्लील टिप्पणी और फुहड़ता का ऐसा उबकाई भरा माहौल है कि अगर किसी खुली सड़क पर यह सब चल रहा हो तो आप वहाँ खड़े नहीं रह सकते।
देखना तो पड़ता है सड़क पर गंदगी और आपसी गंदी गालियाँ रोकना हमारे बस की बात नहीं। सो हम आगे बढ़ जाते हैं। मगर किसी 'चालू' और असभ्य तबके का यह माहौल अब आपके ड्राइंग रूम में उपस्थित है। आप चाहे तो भी आगे नहीं बढ़ सकते क्योंकि अंदर कहीं छुपी आपकी ही आदिम प्रवृत्ति आपको उकसाती है, देखे तो सही, है क्या इसमें? 'ऐसा क्या कर रही है राखी, देखने दीजिए ना जरा।' भीतर ही भीतर आप मजे ले रहे होते हैं और ऊपर से आपके शब्द होते हैं, छी.. छी.. छी.. कितनी वाहियात है यह लड़की!
दाँत पीसने का अपना मजा है ऐसा नही है कि आप नकली इंसान है और आपको इन अश्लीलताओं पर गुस्सा नहीं आता। दरअसल आप चाहते हैं कि इस तरह की बातें आपके सामने आए, आती रहे और आप जी भर कर दाँत पीस सके। हम और आप दोहरे चरित्र के भी नहीं है। हम सब एक मनोवैज्ञानिक ग्रंथी के शिकार हैं। राखी जैसे 'चरित्र' जिनका अपना कोई चरित्र नहीं, हमारी इसी ग्रंथी का फायदा उठाते हैं।
भाषा और राखी : तौबा-तौबा राखी से स्तरीय भाषा की उम्मीद करने का मतलब है हम ही अज्ञानी है। भाषा से राखी का क्या संबंध। भाषा आपके भीतर के संस्कारों से सँवरती है। आपके आचरण से उसमें सौम्यता आती है। उसकी गरिमा ख्याल वे रखते हैं जिन्हें सामाजिक मर्यादा और परिधि का अहसास हो। भला राखी को और उसकी नैतिकता की बनती-बिगड़ती परिभाषाओं से तो अब शायद ही कोई अपरिचित होगा।
कुछ बानगी देखिए राखी के सामने एक ऐसा व्यक्ति बैठा है जो ना पुरुष है ना महिला। मगर वह नहीं मानता कि उसमें ऐसी कोई कमी है। राखी का प्रश्न क्या तुमने कभी किसी से शारीरिक संबंध बनाए हैं? सामने बैठा हुआ जब स्वीकृति देता है तब राखी अश्लील भावभंगिमा और रस लेती लिजलिजी प्रवृत्ति के साथ कहती है, किसका बलात्कार किया तुमने? इसके आगे राखी जो कहती है वह लिखने के लिए भी राखी जैसा कलेजा चाहिए।
यह एक साधारण उदाहरण है, इससे भी आगे चलकर राखी और शो में इंसाफ माँगने आए लोग जिस तरह अपनी जुबान से गंदगी झरते हैं वह कान बंद करने से लेकर टीवी फोड़ने तक के लिए किसी को उकसा सकता है। मास-मीडिया के कायदे-कानून, गरिमा, सभ्यता सब उस वक्त दीवार से सिर फोड़ कर लहूलुहान हो रहे होते हैं।
एक अशिष्ट व्यक्ति भी शिष्टता का चाहे ढोंग ही कर लें पर पब्लिकली इतना नग्न कभी नहीं होता। लेकिन जब एंकर राखी की बेशर्मी से रूबरू होता है तो उसकी अपनी मर्यादा भी वहीं शो में ही बह जाती है।
इंसाफ के लिए किरण क्यों नहीं शो इसलिए भी संदिग्ध है कि जब आपको इंसाफ पाना है और आप पाक-साफ हैं तो आप किरण बेदी के शो में जाना पसंद करेंगे ना कि नौटंकीबाज राखी के शो में। भला नैतिकता, सत्य, इंसाफ, न्याय और सही-गलत का फैसला राखी जैसी लड़की से आप क्यों चाहेंगे?
हमारे यहाँ आज भी न्यायिक प्रणाली पर विश्वास कायम है। चाहे और किसी पालिका से लोगों के विश्वास चटक गए हो मगर न्यायपालिका हमारे यहाँ अंतिम विकल्प के रूप में आज भी स्वीकारी जाती है। जो सचमुच पीड़ित है और न्याय के लिए तरस रहा हैं वह भला राखी का मुखापेक्षी कैसे होगा। जाहिर है, जिसे टीवी का पर्दा दिखता है, जिसे गाली-गलौज से भी परहेज नहीं है। जो सारी दुनिया के सामने तमाशा बनकर भी बेशर्म बना रह सकता हो यह शो उन्हीं के लिए है।
बहुत कुछ मर रहा है जो इस शो के कारण मर गया उस पर कुछ भी कहना हमारे दायरे में नहीं है। वरना कहना यही था मरने के लिए राखी के माथे आने से क्या होगा? बस, चैनलों पर राखी की आवाजाही बढ़ेगी, वह और लोकप्रिय(?) होगी, टीआरपी बढ़ेगी और कुछ नहीं। शो तो चलता रहेगा। देश के बुद्धिजीवीयों, उठों, और बताओं कि अभी 'दूरदर्शन' की संस्कारी पीढ़ी मरी नहीं है। वरना ऐसे घिनौने शो से सिर्फ प्रतिभागी ही नहीं मरेंगे बल्कि एक पूरी की पूरी मर्यादित सामाजिक व्यवस्था के मरने की संभावना है।