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अनहद
एकता कपूर की कंपनी बालाजी फिल्म्स की दुर्दशा अंधविश्वास और अहंकार की पराजय है। बालाजी के शेयर जमीन पर हैं और कंपनी पर 500 करोड़ का कर्ज है। पिछले साल न सिर्फ फिल्में पिटीं बल्कि सास-बहू छाप सीरियल की टीआरपी भी जमीन पर आ गई और अदालत में भी कंपनी को मुँह की खानी पड़ी।
कुछ लोगों को इत्तफाक से सफलताएँ मिलती हैं। उस इत्तफाक को वो अपनी कारगुजारियों और अपनी तरकीबों-टोटकों का फल समझने लगते हैं। मसलन बालाजी का हर प्रोडक्ट "क" से शुरू होता है। क से शुरू होने के बावजूद जिस सीरियल ने एकता को सबसे ज़्यादा घाटा पहुँचाया उसका नाम है- "कहानी हमारे महाभारत की"। किसी धार्मिक कर्मकांड को अपना लेने मात्र से सफलता नहीं मिलती। क के दुरुपयोग से भी नहीं मिलती।
एकता कपूर का अहंकार अपने आप में एक कहानी है। अपने सीरियलों में उन्होंने कलाकारों के साथ बुरा बर्ताव किया। सफलता के नशे में वे यह भूल गईं कि आखिरकार तो ये कलाकार ही उनके लिए सफलता अर्जित कर रहे हैं। अगर आप गौर करें तो पाएँगे कि इस तरह के धारावाहिकों के खिलाफ पहली नाराजी तब उठी थी, जब एकता कपूर ने एक कलाकार को निकालकर उसकी जगह दूसरे को खड़ा कर दिया था और प्लास्टिक सर्जरी से सूरत बदल जाने की बात गढ़ दी थी। वही बिंदु है, जहाँ से एकता का बुरा समय शुरू हो गया था। लगता यही है कि दर्शकों को एकता की यह हरकत खल गई।
लंदन में भारतीय मूल के टीवी एंकर हैं संजीव भास्कर। डिस्कवरी की तरफ से संजीव सास-बहू सीरियल की सफलता पर एक कार्यक्रम बनाने भारत आए और एकता के सीरियल की शूटिंग देखी। संजीव के मुताबिक इतनी अराजकता में कामयाब शो बनना एक अचरज था। मजे की बात तो यह है कि संजीव को ही एक रोल ऑफर कर दिया गया, जो उन्होंने नहीं किया।
एकता कपूर की मौजूदा नाकामी का फायदा यह होगा कि लोग अंधविश्वास से उबरेंगे। अगर "क" से सीरियल का नाम रखना ही कामयाबी का राज था, तो अब ककारवादी सीरियल क्यों फेल हो रहे हैं? अगर भगवान की कृपा हासिल करने से ही कामयाबी मिलती है तो क्या इस समय एकता के पूजा-पाठ में कोई कमी आ गई है? अगर माथे पर तिलक लगाने से कामयाबी मिलती है तो एकता को अभी क्यों नहीं मिल रही है? सफलता कुछ लोगों को विनम्र बनाती है और अधिकतर को घमंडी। एकता को सफलता ने क्या बनाया, यह हम सबने देखा। अब देखना है कि एकता का क्या होगा। एकता के ही एक सीरियल का नाम है- क्या होगा निम्मो का। (नईदुनिया)