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समाजवादी पार्टी के अखिलेश युग की चुनौतियां

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लखनऊ। जिन लोगों ने नेताजी (मुलायम सिंह यादव) का समाजवादी युग देखा है, वे भलीभां‍ति जानते हैं कि समाजवादी पार्टी नेताजी से शुरू हुई और उनके परिवार पर ही जाकर समाप्त हो गई।
यह नेताजी के परिवार का समाजवादी युग था जिनके समर्थक साइकिल चला रहे थे और बाकी लोगों को कुचल रहे थे। अब नेताजी का जमाना खत्म हो गया है और एक नया अखिलेश युग शुरू हो गया है। 
 
इसमें न तो नेताजी, न ही शिवपाल, अमर सिंह और समाजवादी धुरंधर शामिल हैं और समूची कमान अखिलेश के हाथों में है। अब अगर किसी का पार्टी में निर्णायक हस्तक्षेप होगा तो वे डिंपल यादव हैं। रामगोपाल यादव के मार्गदर्शन को छोड़कर पार्टी के सभी बड़े नेता या तो मैदान से बाहर हैं या अखिलेश के पीछे खड़े हैं। 
 
समाजवादी पार्टी में अब एक नेता, एक निशान है। 5 साल तक लाचार और बबुआ सीएम बने रहकर विपक्ष के ताने झेलने वाले अखिलेश यादव का यह अवतार ऐतिहासिक भी है और उन्हें अत्यधिक प्रभावी भी बना सकता है, लेकिन इससे पहले उन्हें पार्टी की छवि को दुरुस्त करना होगा।
 
गुंडागर्दी छवि से मुक्ति : आम जनता में समाजवादी पार्टी की छवि ऐसे गुंडा तत्वों की है जिसमें ज्यादातर यादव या मुस्लिम शामिल हैं। राज्य की जनता ने 5 वर्ष तक निरंकुश गुंडाराज का खिताब हासिल किया है, जो कि मूलत: अपराधियों की शरणस्थली रही है। जब 4 अक्टूबर 1992 को मुलायम सिंह ने समाजवादी पार्टी बनाई थी, तब उनकी छवि गांव और किसानों की बात कहने वाले एक यादव नेता की थी। चौधरी चरण सिंह की छाप उन पर साफ नजर आती थी। 
 
बाद में बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद उनका दायरा मुस्लिमों के रक्षक तक बढ़ गया। एसपी की राजनीति किसानों और मुसलमानों पर ही केंद्रित रही। मुलायम ने खांटी नेता की छवि बरकरार रखी और राजनीति में साम, दाम, दंड, भेद सभी का सहारा लिया। अपराधियों को साथ लेने में भी उन्हें कभी गुरेज नहीं रहा। अपनी इसी राजनीति के दम पर मुलायम 3 बार सीएम बने लेकिन अब अखिलेश और एसपी को इन सभी पुरानी छवियों से मुक्ति मिल गई है।
 
युवा नेतृत्व को अवसर : साल 2011 में मुलायम ने अखिलेश यादव को आगे बढ़ाया और इसी के साथ एसपी को आधुनिक लुक देने की शुरुआत हुई। बदलाव के इस दौर में मुलायम और अखिलेश के बीच जेनरेशन गैप भी देखने को मिला। इन 5 सालों में समाजवादी पार्टी के परंपरागत ग्रामीण चेहरे को अखिलेश आधुनिक लुक देने में कामयाब रहे। पार्टी को युवाओं से जोड़ने की कोशिश में भी वे काफी हद तक कामयाब रहे हैं। इस चुनाव में 54 फीसदी वोटर 18 से 39 साल तक के हैं। अखिलेश की नजर इन पर है। बतौर सीएम भी उन्होंने मेट्रो और एक्सप्रेस-वे जैसे प्रोजेक्ट शुरू कर अपनी छवि को विकासवादी बनाने का प्रयास किया है।
 
साइकिल की आगे की राह : विवाद के बाद पार्टी में कई धड़े बन चुके हैं। इनको साथ लाना और इनसे निपटना पहली चुनौती है। मुलायम सिंह ने जब समाजवादी पार्टी बनाई थी तब उनके साथ जनेश्वर मिश्र, मोहन सिंह, आजम खां, बेनी प्रसाद वर्मा और भगवती सिंह जैसे कई वरिष्ठ नेता थे। ये सभी जमीनी नेता थे, जो संघर्ष की देन थे और मुलायम इनका थिंक टैंक भी थे। अखिलेश के लिए इस तरह के जमीनी और समझदार नेताओं को जोड़ना जरूरी है।
 
दरअसल, बीते 2 महीने से यूपी की सत्‍ता पर काबिज इस सियासी परिवार की विवादों से भरी इस कहानी के पटाक्षेप के बाद अहम सवाल यह उठ रहा है कि जमीन से जुड़े और धरतीपुत्र के नाम से समाजवाद की जड़ों को मजबूत करने वाले मुलायम सिंह यादव के बगैर अखिलेश की पार्टी कैसी होगी? उनका असली समाजवाद पिता के कथित समाजवाद से कितना अलग होगा?
 
अखिलेश की तुलना में मुलायम सिंह यादव जमीन से जुड़े नेता रहे हैं। उन्‍होंने साइकिल से यूपी के दूरदराज के इलाकों में प्रचार कर पार्टी को खड़ा किया है। यही नहीं, उनके इस पुराने लंबे सफर में मोहन सिंह से लेकर जनेश्‍वर मिश्र, आजम खां और बेनी प्रसाद वर्मा जैसे नेताओं का साथ भी रहा और सलाह भी, लेकिन इसकी तुलना में अखिलेश के पास सबकुछ नया है। 
 
यह सभी जानते हैं कि मुलायम सिंह यादव विचारवान नेता कभी नहीं रहे और न ही वे डॉ. राममनोहर लोहिया, आचार्य नरेन्द्र देव या फिर मधु लिमये जैसे समाजवादी विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध लोगों के प्रतिनिधि रहे हैं। दरअसल, लोहिया जिन मध्‍य जातियों को उभारना चाहते थे, वे उसी के प्रतिनिधि के रूप में उदित हुए हैं। 1992 में बाबरी मस्‍जिद विध्‍वंस के मामले पर उनके रुख ने उन्‍हें धर्मनिरपेक्षवादियों के खेमे में खड़ा कर दिया और उनकी राष्‍ट्रीय छवि बन गई। 
 
लेकिन बाद में उन्‍होंने पार्टी में भाई-भतीजावाद, परिवारवाद और कॉर्पोरेट कल्‍चर को बढ़ाया ही, जबकि बाद में बॉलीवुड की चमक-धमक ने भी कई तरह के विवाद पैदा किए। सैफई महोत्सव इसी प्रकार की गंदगी की पैदाइश रहा। मुलायम सिंह यादव का समाजवाद हमेशा सवालों के घेरे में रहा। पहले उन्‍होंने पिछड़ों की पॉलिटिक्‍स की, उसके बाद मुस्‍लिमों की, बाद में दलितों की। 
 
अवसरवाद उनकी राजनीति में दिखाई देता है और अखिलेश के पास भी समाजवाद का यही रूप है कि वे सांप्रदायिक राजनीति करते नहीं दिखाई देते। ये एक अच्‍छी बात है। पिता से अलग होकर नए समाजवाद का दावा करने वाले अखिलेश के पास चुनौती होगी कि वे जल्‍द ही समाजवाद के उस मूल विचार को पुनर्जीवित करें। उन्‍हें पिता की तरह एक ही धर्म और जाति के लोगों को साधने की सियासत करने से बचना होगा, क्‍योंकि समाजवाद की असली कसौटी ही सामाजिक समभाव और समरसता है।

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