Biodata Maker

Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia

यूपी जीतने के लिए भाजपा ने क्या-क्या किया?

Advertiesment
हमें फॉलो करें UP election BJP assembly SP
, मंगलवार, 7 मार्च 2017 (13:58 IST)
नई दिल्ली। राजनीतिक टिप्पणीकारों और चुनाव विश्लेषकों का कहना है कि यूपी में विधानसभा जीतने के लिए पार्टी ही नहीं वरन पीएम, पार्टी प्रमुख और अन्य लोग कितने अधिक बेचैन हैं, इस बात का अंदाजा मात्र कुछेक बातों से ही लगाया जा सकता है। आप सोच भी नहीं सकते हैं कि यूपी विधानसभा चुनाव जीतने के लिए भाजपा को क्या-क्या नहीं करना पड़ा है? यूपी के पूर्वांचल में अपनी पकड़ बनाने के लिए प्रधानमंत्री मोदी खुद तीन दिनों से वाराणसी में पड़े रहे और उनके मंत्रिमंडल के बहुत से मंत्रियों ने भी अपनी समूची ताकत लगा दी है।
 
चुनावी नतीजों को अपने पक्ष में करने के लिए मोदी सरकार ने कथित तौर पर साम, दाम, दंड और भेद जैसी सभी तरकीबों को अपनाया है। सरकार पर आरोप लगाए जा रहे हैं कि चुनाव जीतने के  लिए मोदी सरकार ने चीनी उत्पादन के आंकड़े भी बदल दिए? यह आरोप भी लग रहे हैं कि उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतने के लिए भाजपा न केवल सियासी जोड़-तोड़ का सहारा ले रही है, वरन सरकार नीति गत मामलों में अपनी मनमानी करने पर उपर आई है। कहा जा रहा है कि मोदी सरकार ने देश में चीनी उत्पादन के आंकड़े भी बदल डाले हैं ताकि चुनावों के दौरान ही चीनी की कीमतें में किसी तरह का कोई उछाल न आए।
 
उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव जीतना भाजपा के लिए कितना अहम है, यह बात प्रधानमंत्री और उनके समेत उनके तकरीबन दर्जन भर सहयोगी मंत्री और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह समेत संगठन के कई वरिष्ठ पदाधिकारियों के उत्तर प्रदेश में डटे हुए हैं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कुछ पदाधिकारी भी इसके लिए अंदर ही अंदर सक्रिय हैं तो यह मोदी की नाक का सवाल बन गया है कि जिसे वे किसी भी कीमत पर जीतना चाहते हैं।
 
पार्टियां चुनाव जीतने के लिए कई तरह की राजनीतिक जोड़-तोड़ करती हैं और भाजपा ने भी उत्तर प्रदेश चुनाव परिणामों के महत्व को ध्यान में रखकर यह काम किया। इसे अब की राजनीति में गलत नहीं माना जाता लेकिन भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार ने एक काम से ऐसा लग रहा है कि भाजपा थोड़ा और आगे निकल गई. कहा जा रहा है कि उसने सरकार में होने की वजह से सूचनाओं की गलतबयानी से भी परहेज नहीं किया जिससे उसे चुनावी लाभ मिल सके।
 
चीनी उत्पादन के आंकड़ों से खेल
 
यह मामला चीनी उत्पादन के आंकड़ों से जुड़ा हुआ है। दरअसल, देश में चीनी की सालाना मांग 250 लाख टन की है। पिछले चीनी वर्ष 260 लाख टन चीनी का उत्पादन हुआ था। चीनी वर्ष हर साल अक्टूबर में शुरू होता है और अगले साल सितंबर में खत्म होता है. पिछले साल मांग से अधिक उत्पादन होने की वजह से भारत से चीनी का काफी निर्यात किया गया था। लेकिन मौजूदा चीनी वर्ष में चीनी उत्पादन कम होने का अनुमान अक्टूबर महीने से ही लगाया जा रहा था और इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि महाराष्ट्र में सूखे की वजह से चीनी के उत्पादन पर बहुत बुरा असर पड़ा है। 
 
इसके बावजूद जनवरी में केंद्र सरकार ने इस साल के चीनी उत्पादन के जो आंकड़े दिए, उनसे लगता है कि इन आंकड़ों को जारी करते वक्त मोदी सरकार के ध्यान में उत्तर प्रदेश के चुनाव थे। भारत सरकार के कृषि मंत्रालय में जनवरी में यह बताया कि इस साल 233 लाख टन चीनी उत्पादन का अनुमान है। सरकार ने यह दावा इस तथ्य को नजरअंदाज करते हुए किया था कि देश में सबसे ज्यादा चीनी का उत्पादन करने वाले राज्य महाराष्ट्र में का चीनी का उत्पादन आधा होने वाला है।
 
देश में चीनी उत्पादन और इसके वितरण से संबंधित आंकड़े रखने वाले संगठन इंडियन शुगर मिल एसोसिएशन ने बीते दिनों कहा कि इस साल पूरे देश का चीनी उत्पादन 200 लाख टन रहने का अनुमान है। एसोसिएशन का यह दावा महाराष्ट्र में पड़े सूखे से होने वाले कम उत्पादन को ध्यान में रखकर किया गया था। संघ का कहना था कि पिछले साल जहां महाराष्ट्र में 84 लाख टन चीनी का उत्पादन हुआ था, वहीं इस साल यह घटकर 46 लाख टन रहने का अनुमान है। 
 
इस प्रमुख कारण से महाराष्ट्र चीनी उत्पादन के मामले में पहले से तीसरे स्थान पर चला जाएगा।  और इसी वजह से दस सालों बाद एक बार फिर से उत्तर प्रदेश चीनी उत्पादन के मामले में पहले नंबर पर आ जाएगा। उम्मीद है कि इस साल उत्तर प्रदेश में 85 लाख टन चीनी का उत्पादन होगा।
 
चीनी की कीमतें चुनावी मुद्दा बनने का डर
 
इसलिए सब कुछ जानते हुए भी जब भारत सरकार ने जनवरी में 233 लाख टन चीनी उत्पादन का आंकड़ा सामने रखा तो जानकारों को आशंका थी कि यह मामला उत्तर प्रदेश चुनावों से जोड़कर देखा जा रहा है। केंद्र सरकार ने कम उत्पादन के आंकड़े संभवतः यह सोचकर नहीं जारी की कि इससे चीनी की कीमतें बढ़नी शुरू हो जाएंगी और देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में यह चुनावी मुद्दा बन जाएगा।  
 
विशेषज्ञों का मानना है कि भाजपा की अगुवाई वाली सरकार को यह डर सता रहा होगा कि अगर ऐसा होता है तो चुनावों में उसे इसका नुकसान उठना पड़ सकता है। इसलिए एक बड़ा वर्ग मान रहा है कि केंद्र में भाजपा की अगुवाई वाली सरकार ने जानबूझकर ऐसे आंकड़े जारी किए कि जिनसे उसकी पार्टी की चुनावी संभावनाओं पर नकारात्मक असर न पड़ सके।
 
चीनी ऐसी चीज है कि इसकी खपत हर घर में होती है। जानकार कह रहे हैं कि अगर सरकार जनवरी में ही 200 लाख टन चीनी उत्पादन का अनुमान जारी कर देती तो अब तक चीनी की कीमतें खुदरा में 60 रुपए प्रति किलो को पार कर जातीं। इस बात को बल इस तथ्य से भी मिलता है कि जब से 200 लाख टन उत्पादन के आंकड़े सार्वजनिक हुए हैं, चीनी के खुदरा मूल्यों में प्रति किलो चार से पांच रुपए की बढ़ोतरी हुई है और आने वाले दिनों में इसके 60 रुपए के पार जाने का अंदेशा जताया जा रहा है लेकिन तब तक चुनाव जैसा महायज्ञ पूरा हो चुका होगा।
 
विकास दर के आंकड़े भी अविश्वसनीय 
 
केंद्रीय सांख्यिकी संगठन- सीएसओ- के चीफ स्टैटिस्टिशियन टीसीए अनंत ने जब पिछले ‍‍द‍िनों  जीडीपी के आंकड़े पेश किए थे, तो उनपर भरोसा करना मुश्किल हो गया था। सीएसओ ने चालू वित्त वर्ष की तीसरी तिमाही के जैसे जीडीपी आंकड़े पेश किए हैं, उन पर यकीन करना मुश्किल हो रहा था। विशेषज्ञों का मानना था कि क्या वे इसी तिमाही के आंकड़े थे, जिसके दो महीने नवंबर और दिसंबर नोटबंदी से प्रभावित हुए थे। उस समयावधि में जब पूरे देश में जगह-जगह से फैक्ट्रियों में कामकाज ठप होने, मजदूरों की छंटनी होने और कैश की किल्लत की वजह से लोगों की शॉपिंग में कमी आने जैसी खबरें आ रही थीं।
 
लेकिन सरकारी आंकड़े इस तरह बता रहे थे कि मानो ऐसा कुछ भी नहीं हुआ और अक्टूबर से दिसंबर की तिमाही में भी आर्थिक गतिविधियां बदस्तूर जारी रहीं। जब दुनिया भर की सारी एजेंसियां और अर्थशास्त्री यह आशंका जता रहे थे कि दिसंबर तिमाही में जीडीपी ग्रोथ 5-6% के बीच रह सकती है, सीएसओ का दावा था कि यह 7% रहेगी। और यही दावा सारे विवाद की जड़ है क्योंकि सीएसओ के इन आंकडों पर यकीन ना करने के बहुत सारे कारण हैं। 
 
पहला कारण 
पहली वजह तो यही है कि सीएसओ के मुताबकि, तीसरी तिमाही में देश में प्राइवेट खपत  10.1% बढ़ गया, जो काफी अजीब है। खासकर इसलिए कि ऐसे देश में जहां रोजाना के खर्चे ज्यादातर कैश में किए जाते थे, वहां नोटबंदी के बाद लोगों ने अपनी खपत में कटौती कर दी थी तो फिर इतनी बढ़ोतरी कैसी हुई होगी?  अगर मान भी लें कि अक्टूबर के महीने में शादी और त्योहारों की शॉपिंग ने कुछ बढ़ोतरी दिखाई होगी, तो क्या यह अगले दो महीने की कटौती की भरपाई के लिए पर्याप्त थी ?  सरकार की ओर से इसका स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया।  
देश की बड़ी एफएमसीजी और टू-व्हीलर कंपनियों की दिसंबर तिमाही के बिक्री के आंकड़े भी ऐसी कोई तस्वीर पेश नहीं करते जो इस अवधि में खपत में बढ़ोतरी के पक्ष में हों। सिटीग्रुप का मानना था कि जब ये जीडीपी आंकड़े रिवाइज किए जाएंगे, तब इन आंकड़ों में बदलाव जरूर देखने को मिलेगा। नोमुरा ने तो स्पष्ट तौर पर यहां तक कह दिया कि ये बता पाना मुश्किल है कि भारत की ग्रोथ के आंकड़े 'फैक्ट हैं या फिक्शन' ?  आप स्वयं समझ सकते हैं कि इन आंकड़ों में सच्चाई कितनी है और कल्पना कितनी ? 
 
इस बात पर देश के सभी अर्थशास्त्री एकमत हैं कि नोटबंदी का सबसे ज्यादा असर देश के असंगठित क्षेत्र और छोटे-मझोले उद्योगों पर पड़ा था, जिसका योगदान जीडीपी में अच्छा खासा है, लेकिन सीएसओ के आंकड़ों में नोटबंदी के ऐसे किसी असर का कोई जिक्र नहीं किया गया। कारण स्पष्ट है कि आंकड़े पूरी तरह से झूठे हैं।
 
मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर का 20% से ज्यादा योगदान असंगठित क्षेत्र से आता है और हर महीने आने वाले आईआईपी यानी इंडेक्स ऑफ इंडस्ट्रियल प्रोडक्शन के आंकड़ों से काफी हद तक इसका अंदाजा मिल जाता है कि उद्योग-धंधों में काम कैसा चल रहा है। दिसंबर तिमाही के दो महीनों- अक्टूबर और दिसंबर में- आईआईपी ने निगेटिव ग्रोथ दर्ज की थी। कंस्ट्रक्शन और फाइनेंस सेक्टर की ग्रोथ भी निगेटिव रही है। कंस्ट्रक्शन सेक्टर जहां 7 तिमाहियों के निचले स्तर पर है, वहीं फाइनेंस सेक्टर अब तक के सबसे निचले स्तर पर है लेकिन इसका असर ग्रोथ के आंकड़ों पर क्यों नहीं दिखा? 
 
दूसरी वजह
 
एक और बात है जो सरकारी दावों पर संदेह पैदा करती है। वित्त वर्ष 2015-16 की तीसरी तिमाही के जीडीपी आंकड़े में रिवीजन कर उसे नीचे लाया गया है लेकिन आश्चर्य की बात है कि बाकी तीनों तिमाहियों के आंकड़े उनमें पॉजिटिव बदलाव दिखाते हैं।
 
एसबीआई के इकोनॉमिक रिसर्च डिपार्टमेंट का मानना है कि 2015-16 की तीसरी तिमाही के आंकड़ों में तेज गिरावट ने 2016-17 की तीसरी तिमाही के आंकड़ों में नोटबंदी के असर पर पर्दा डाल दिया है। सीएसओ ने 2015-16 की तीसरी तिमाही के जीडीपी आंकड़े में 0.3% की गिरावट दिखाई है, जिसका बेस इफेक्ट इस साल के आंकड़ों पर दिखा है।
 
एसबीआई के अर्थशास्त्रियों का भी मानना है कि जीडीपी की बजाय जीवीए (ग्रॉस वैल्यू एडेड) के आंकड़े शायद बेहतर और वास्तविक तस्वीर पेश कर रहे हैं। तीसरी तिमाही में जीवीए में 6.6% ग्रोथ का अनुमान सीएसओ ने जताया है लेकिन इस साल की पहली और दूसरी तिमाही के मुकाबले इनमें गिरावट दिख रही है, जो आर्थिक गतिविधियों की वास्तविकता पर आधारित माना जा सकता है।
 
अर्थशास्त्रियों ने सीएसओ के पेश किए आंकड़ों में कृषि विकास दर पर खुशी जताई है, जिसमें 6% की ग्रोथ का अनुमान तीसरी तिमाही में लगाया गया है लेकिन सिर्फ कृषि के बल पर पूरी इकोनॉमी में जीडीपी आंकड़े सुधार नहीं ला सकते हैं। अनुमान है कि इस पूरे साल में कृषि विकास दर 4.4% रहेगी, जो पिछले साल सिर्फ 0.8% थी। 
 
एक बड़ा सवाल यह भी है कि जब सीएसओ ने जनवरी में तीसरी तिमाही के अनुमानित आंकड़े पेश किए थे, तो बिना नोटबंदी के असर के उसके 7% रहने की उम्मीद की थी, और अब जो आंकड़े बताए वह भी 7% है, तो क्या मान लिया जाए कि नोटबंदी का कोई नकारात्मक असर अर्थव्यवस्था पर नहीं हुआ? पर क्या हकीकत में भी ऐसा हुआ होगा? ऐसी हालत में अगर इसे चुनावी अर्थशास्त्र का मायाजाल नहीं कहा जाए तो क्या कहा जा सकता है?
(वेबदुनिया डेस्क)

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi

अगला लेख

महिला सैनिकों की आपत्तिजनक तस्वीरें लीक, जांच शुरू