चुनावी एक्सप्लेनर: यूपी चुनाव में मायावती के ब्राह्मण व दलित गठजोड़ कार्ड से खत्म होगा बसपा का वनवास?
मायावती का चुनावी प्लान,सवाल बसपा बन पाएगी भाजपा का विकल्प?
2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर राजनीतिक दलों ने अपने पत्ते खोलने शुरु कर दिए है। गठबंधन को लेकर गर्माई प्रदेश की सियासत में मायावती की पार्टी बसपा बार-बार यह साफ कर रही है कि पार्टी अकेले दम पर 2022 का विधानसभा चुनाव लड़ेगी और किसी भी बड़े या छोटे दल से गठबंधन नहीं लड़ेगी। मायावती के बाद पार्टी में नंबर दो की हैसियत रखने वाले बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने एक बार फिर कहा है कि पार्टी अकेले बूते पर विधानसभा चुनाव लड़ेगी। बसपा महासचिव का यह बयान ऐसे समय आया है जब उत्तर प्रदेश में हाल में आए एक चुनावी सर्वे में मायावती की पार्टी को राज्य में नंबर दो की पार्टी बताया गया है।
ब्राह्मण+दलित गठजोड़ से खत्म होगा वनवास?- मायावती की पार्टी बसपा का अकेले चुनाव लड़ने का एलान एक सोची समझी रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। दरअसल 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा 2007 के अपने विनिंग फॉर्मूले पर उतरने की तैयारी कर रही है। उत्तर प्रदेश में सत्ता का वनवास खत्म करने के लिए बसपा 15 साल बाद एक बार 2007 के फॉर्मूले पर चलते हुए सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला अपना रही है। बसपा का सोशल इंजीनियरिंग का फॉर्मूला है दलित+बाह्मण वोटर। फॉर्मूले को अमल में लाते हुए बसपा ने ब्राह्मण वोट बैंक को साधने के लिए सम्मेलन करने शुरु कर दिए है।
बसपा के सोशल इंजीनियरिंग के फॉर्मूले को अपनाने का सबसे बड़ा कारण इसका बड़ा वोट बैंक है। अगर उत्तर प्रदेश के जातीय समीकरण की बात करें तो कुल वोट बैंक में बसपा का 21 फीसदी वोट है तो ब्राह्मण का 12 फीसदी वोट बैंक। 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह मायावती इस बार फिर 100 के करीब ब्राह्मण चेहरों को चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी कर रही है और अपना टिकट पक्का मानकर उम्मीदवारों ने अपनी पूरी ताकत भी लगा दी है।
2007 में बसपा ने 86 विधानसभा सीटों पर ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे थे और इसमें करीब आधे 41 जीतकर विधानसभा पहुंचे थे और इसके बल पर बसपा ने 206 सीटें जीतकर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई थी। मायावती अगर इन दोनों वोट बैंक को एकजुट रखने में सफल हुई तो वह सत्ता का वनवास खत्म कर लोकभवन (मुख्यमंत्री कार्यालय) की सीढ़ियां चढ़ सकती है।
यूपी में भाजपा का विकल्प बन पाएगी मायावती?- उत्तरप्रदेश के विधानसभा चुनाव में भले ही अभी वक्त हो लेकिन चुनावी चौसर पर मुकाबले की धुंधली तस्वीर धीरे-धीरे साफ होती दिख रही है। योगी सरकार को सत्ता से बाहर करने के लिए सभी राजनीतिक दल चुनावी मैदान में उतरकर अपना चुनावी शंखनाद करते हुए दिखाई दे रहे है। उत्तर प्रदेश की राजनीति के जानकार विधानसभा चुनाव में मुख्य मुकाबला भाजपा और समाजवादी पार्टी में होना बता रहे है।
लखनऊ में वरिष्ठ पत्रकार और सूबे की सियासत के जानकार रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि अगर जमीनी हकीकत की बात करें तो फिलहाल मायावती भाजपा के विकल्प के रुप में नहीं दिख रही है। राजनीति में जब तक कोई पार्टी चुनाव में सत्तारुढ़ दल के विकल्प के रुप में नहीं दिखाई देती तब तक आमतौर पर वोटर उसके साथ नहीं जाता है। वहीं जब अब चुनाव में करीब 8 महीने से भी कम समय बचा है तब उत्तर प्रदेश में 2007 वाली बसपा कहीं नहीं दिखाई दे रही है।
मायावती का पारंपरिक वोट बैंक खिसका-उत्तर प्रदेश में मायावती की पार्टी बसपा के अगर पिछले चुनाव के प्रदर्शन को देखे तो उसमें लगातार गिरावट देखी गई है। 2014 के लोकसभा चुनाव में अकेले उतरी बसपा का खाता भी नहीं खुला था वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव में मायावती ने समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन कर 10 सीटों पर जीत हासिल कर ली थी।
रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि मायावती और उनकी पार्टी बसपा की सबसे बड़ी समस्या उनका वैचारिक आधार खत्म होना है। यूपी में दलित और अति दलित में मायावती की अच्छी पकड़ थी लेकिन मायावती की निष्क्रियता ने उनके वोट बैंक को आज उनसे दूर कर दिया है। वहीं वह कहते हैं कि मायावती जिस ब्राह्मण वोट बैंक के सहारे सत्ता में वापसी की बात कह रही है वह वोट बैंक एक मुश्त किसी पार्टी के साथ जाएगा यह असंभव है। रामदत्त त्रिपाठी आगे कहते हैं कि बसपा आज कहीं भी नहीं दिखाई दे रही है। आज मायावती की पार्टी 100-150 सीटें जीतने की हैंसियत रखती तो जरुर उनके साथ ब्राह्मण जाते है।
मुसलमान वोटर बसपा से क्यों नाराज?- 2022 के उत्तर प्रदेश में योगी सरकार को अपदस्थ करने और सत्ता में वापसी करने में मुसलमान वोटरों की मुख्य भूमिका होगी। मोदी सरकार के जम्मू-कश्मीर से 370 हटाने से लेकर नागरिकता संशोधन कानून (CAA) और एनआरसी तक मायावती की चुप्पी मुसलमानों के मन में कई सवाल खड़े कर दिए है। जम्मू-कश्मीर में धारा 370 खत्म करने के मोदी सरकार के पक्ष में मायावती की पार्टी का समर्थन एक झटके में मुस्लिम वोटरों के मन में कई सवाल खड़े कर दिया है। इसलिए मजबूरी में मायावती को ब्राह्मणों के पक्ष में जाना मजबूरी हो गई है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र दुबे कहते हैं कि पिछले कुछ सालों में मायावती का भाजपा के प्रति सम्मोहन है। CAA और NRC को लेकर मायावती ने जो नरम रुख अपनाया उससे अल्पसंख्यक वर्ग उनके पक्ष में नहीं हैं। वहीं आज बसपा कही भी जीतते हुए नहीं दिख रही है और पॉलिटिक्स में दिखना बहुत बड़ी बात होती है।