पश्चिम उत्तरप्रदेश में 2022 चुनाव के लिए सभी राजनीतिक पार्टियों ने वोटों की खेती के लिए जमीन तैयार करनी शुरू कर दी है। हर पार्टी लखनऊ की कुर्सी पाने के लिए अपने जुगाड़ और गणित के समीकरण तैयार कर रही है जिसके चलते अब सियासी पारा तपने लगा है। विपक्ष हरसंभव प्रयास कर रहा है कि इस बार भारतीय जनता पार्टी को उखाड़ फेंके। कुर्सी की जुगत में पक्ष-विपक्ष गठजोड़ करने से भी पीछे नही हट रहे हैं। स्थिति यह है कि विचारधारा गठजोड़ के लिए नैपथ्य में चली गई है।
सत्तारूढ़ भाजपा की तरफ से पूरे प्रदेश में बैठकें और लगातार रैलियां हो रही हैं, वहीं सपा-रालोद ने अपनी ताल ठोंकते हुए इसी 7 दिसंबर को मेरठ में एक गठबंधन रैली आयोजित की है। इस रैली में समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव व राष्ट्रीय लोकदल सुप्रीमो जयंत चौधरी मंच साझा करेंगे।
गठबंधन की यह यूपी में पहली संयुक्त रैली को लेकर कार्यकर्ता उत्साहित हैं और दोनों ही पार्टियों के नेताओं ने मेरठ में होने वाली रैली को सफल बनाने के लिए पूरी ताकत लगा दी है। कृषि कानून वापसी के बाद विपक्षी दल की निगाहें विशेषतौर पर पश्चिमी उप्र में टिक गई हैं, क्योंकि वेस्ट यूपी से ही चौधरी चरण सिंह और बाबा महेंद्र सिंह टिकैत ने किसानों को नई दिशा दी थी। बागपत की छपरौली चौधरी चरण सिंह और मुजफ्फरनगर की सिसौली बाबा महेन्द्र सिंह टिकैत की कर्मस्थली रही है। उनके बाद उनकी विरासत को उनके बेटे और पोते संभाल रहे हैं। बाबा के बेटे नरेश टिकैत, राकेश टिकैत किसानों के बड़े नेता हैं। राकेश टिकैत ने कृषि कानून के विरुद्ध आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और उनकी मेहनत का नतीजा कृषि कानून वापसी के रूप में सामने आया है।
पश्चिम उत्तरप्रदेश की मुख्य फसल गन्ना और धान है। गन्ने की मिठास दूर-दूर तक फैली हुई है। यूपी की राजनीति को किसानों के गलियारों से होकर गुजरना ही पड़ता है। 2013 में मुजफ्फरनगर कवाल दंगे के चलते जाटों और मुसलमानों की बीच नफरत की खेती बोई गई, नफरत की इस फसल का सीधा फायदा भारतीय जनता पार्टी को मिला और वे फसल के रूप में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर काबिज हो गए।
कृषि कानून के विरोध में सभी धर्मों और जातियों के किसान एक हो गए जिसके चलते भारतीय जनता पार्टी को समझ आ गया कि लखनऊ की कुर्सी खतरे में है। इसलिए 1 साल से अधिक धरने पर बैठे किसानों को मनाने के लिए प्रधानमंत्री ने घोषणा करते हुए कहा कि 'किसानों की समस्याओं को हम समझ नहीं पाए जिसके चलते कृषि कानून वापस लेते है।' कृषि कानून वापस होते ही सपा और रालोद के दोनों युवा नेताओं ने गठजोड़ के लिए हाथ मिला लिया है। हालांकि नैपथ्य में इसकी रूपरेखा पहले ही तैयार होना शुरू हो गई थी। दूसरी तरफ उत्तरप्रदेश में कांग्रेस को खोया जनाधार वापस दिलाने के लिए प्रियंका गांधी दिलोजान से मेहनत कर रही हैं।
प्रियंका ने विपक्ष को आड़े हाथ लेते हुए कहा है कि जब आम आदमी के साथ कुछ अप्रिय घटित होता है तो विपक्ष की दूसरी पार्टियां सड़क पर नहीं होतीं, अकेले वह ही लड़ रही हैं, जनता के बीच जाकर उनके परेशानियों और दर्द को सुन रही हैं। लेकिन कांग्रेस की परेशानियां भी दूर होने का नाम नहीं ले रही है। वेस्ट यूपी में कांग्रेस के दिग्गज नेता और पूर्व सांसद हरेंद्र मलिक ने कांग्रेस का हाथ छोड़कर सपा का दामन थाम लिया जिसके चलते मुजफ्फरनगर की राजनीति भी गरमाई हुई है, क्योंकि पूर्व केंद्रीय मंत्री अजित सिंह 2019 का लोकसभा चुनाव मुजफ्फरनगर में हारे थे। अब अखिलेश ने हरेंद्र मलिक को अपने पाले में ले लिया है।
हालांकि गठजोड़ की घोषणा सार्वजनिक तौर पर नहीं की गई है, लेकिन माना जा रहा है कि इसी 7 दिसंबर को दबथुआ में होने वाली संयुक्त रैली के मंच पर इसकी घोषणा हो सकती है।
रालोद और सपा की संयुक्त परिवर्तन रैली को सफल बनाने के लिए दोनों दल गांव-गांव जाकर संपर्क अभियान चला रहे हैं। वेस्ट यूपी से बड़ी संख्या में किसानों को एकत्रित करने के लिए सपा और रालोद के दिग्गज जुटे हुए हैं और उनका मानना है कि ये परिवर्तन संदेश संयुक्त रैली ऐतिहासिक होने जा रही है। दूसरी तरफ कांग्रेस अकेले चल पड़ी है और जनता के मुद्दों और परेशानियों को उसने डुगडुगी बना लिया है। पूर्व मंत्री और कांग्रेस नेता नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने कहा कि उनकी पार्टी का विपक्ष के साथ गठबंधन न होकर सीधेतौर पर प्रदेश की जनता के साथ गठबंधन है। कांग्रेस अपने दमखम पर यूपी में चुनाव लड़ेगी, किसी के साथ चुनावी समझौता नही करेंगी।
अब देखना होगा कि गठबंधन के साइकल और नल की तेजी से वोट बाहर लाता है या प्रियंका गांधी का 40% महिलाओं की चुनावी भागीदारी का ट्रंप कार्ड रंग दिखाता है? ये तो आगामी चुनाव परिणाम ही बताएगा। वहीं कीचड़ में एक बार फिर से भाजपा का कमल खिलेगा या नहीं, यह भविष्य के गर्त में छुपा है।